Sanskriti Ke Chaar Adhyay (Hindi)
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उत्तरं यत्समुद्रस्य हिमाद्रेश्चैव दक्षिणम् वर्षं तद्भारतं नाम भारती यत्र सन्ततिः।
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यह सिद्ध करना अत्यन्त कठिन है कि हिन्दू–संस्कृति की कौन–सी बात द्राविड़ सभ्यता से आई है और कौन–सी बात आर्य–सभ्यता से।
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प्राय: सारे–के–सारे दैत्य पुराणों में शैव दिखाए गए हैं।
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पुराणों की रचना गुप्त–काल के लगभग मानी जाती है।
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गणपति कोई विरूप देवता थे, उन्हें इस देश की जनता पूजती थी।
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शिव का तमिल नाम सिवन् है, जिसका अर्थ लाल या रक्त वर्ण होता है। प्राचीन काल में, शिव का एक आर्य नाम भी ‘नील–लोहित’ मिलता है, जिसके भीतर शिव की गरल पानवाली कथा का संकेत है।
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वैष्णवों के तीन प्रसिद्ध पुराण हरिवंश, विष्णुपुराण और भागवत हैं। लेकिन, इनमें से किसी में भी राधा नाम का उल्लेख नहीं
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शतपथ–ब्राह्मण में लिखा है कि प्रजापति ने (विष्णु ने नहीं) मत्स्य, कूर्म और वराह का अवतार लिया था।
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हजरत ईसा ने जैसे ईसाइयत को और हजरत मुहम्मद ने जैसे इस्लाम को जन्म दिया, हिन्दू–धर्म ठीक उसी प्रकार, किसी एक पुरुष की रचना नहीं है।
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हिन्दू–संस्कृति ने अपने को कूप–मंडूक नहीं बनाया और इसे जहाँ से भी कोई अच्छी चीज मिलनेवाली थी, उसे इसने आगे बढ़कर स्वीकार कर लिया।
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प्रामाण्यबुद्धिर्वेदेषु साधनानामनेकता। उपास्यानामनियमं एतद्धर्मस्य लक्षणम्।
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आग्नेय जाति की देन
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सिन्दूर का न तो कोई वैदिक नाम है और न सिन्दूर-दान का कोई मन्त्र। सिन्दूर, मूलत:, नाग लोगों की वस्तु है। उसका नाम भी नाग–गर्भ और नागसम्भव
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शास्त्रानुसार, ग्राम-देवता की पूजा निषिद्ध
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ईरानी लोग ‘स’ का उच्चारण ‘ह’ करते थे, अतएव, ‘सिन्धु’ को उन्होंने ‘हिन्दु’ कहा। इसी विकृति से आगे चलकर हिन्दू और हिन्दुस्तान, दोनों शब्द निकले। यूनानियों के मुख से ‘ह’ के बदले ‘अ’ निकलता था, अतएव, हिन्दू को उन्होेंने इन्दो (Indo) कहना शुरू किया। इसी दूसरी विकृति से ‘इंडिया’ नाम निकला है। इटली के कवि वर्जिल ने इंडिया के बदले केवल ‘इन्द’ लिखा है और मिलटन ने भी भारत का नाम ‘इंड’ ही लिखा है।
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बलिना कलिनाच्छन्ने, धर्मे कवलिते कलौ, यवनैरवनी क्रान्ता, हिन्दवो विन्ध्यमाविशन्।
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हिन्दुः दुष्टो न भवति नानार्यो न विदूषकः सद्धर्मपालको विद्वान् श्रौतधर्मपरायणः।
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मुखे तु सकलं शास्त्रं पृष्ठे च सशरं धनुः इदं ब्राह्मम् इदं क्षात्रं, शापादपि शरादपि।
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राजशेखर ने माना है कि वेद तीन ही हैं, ऋक्, यजुष्, और साम।
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वेदांग
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उपनिषद्
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शंकराचार्य ने जिन उपनिषदों की टीका लिखी है, वे सबसे प्रमुख हैं। शंकराचार्य ने जिन उपनिषदों की टीका लिखी, उनके नाम हैं-(1) ईश, (2) केन, (3) कठ, (4) प्रश्न, (5) मुंडक, (6) मांडूक्य, (7) तैत्तिरीय,
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उपनिषद् शब्द का अर्थ कोई–कोई पंडित ‘पास बैठना’ लगाते हैं (उप=निकट; निषद्=बैठना)
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ऋग्वेद 33 देवताओं का अस्तित्व मानता है। शतपथ–ब्राह्मण में भी 8 वसु, 11रुद्र, 12 आदित्य तथा आकाश और पृथ्वी, इन 33 देवताओं का उल्लेख मिलता है। ऐतरेय ब्राह्मण में भी 11 प्रयाजदेव, 11 उपयाजदेव और 11 अनुयाजदेव, ये 33 देवता हैं।
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तत्तत्कर्मानुसार विभिन्न नामों से पुकारे जाने पर भी देव एक ही
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सृष्टि के प्रथम, अन्धकार से अन्धकार ढँका हुआ था।
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उपनिषदों की विशेषताएँ
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सृष्टि के विषय में उपनिषदों का यह मत है कि वह क्षिति, जल, पावक, गगन और वायु, इन पाँच तत्त्वों से बनी हुई है।
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इन पाँच तत्त्वों का स्वामी महत्तत्त्व है, जिसमें ये पाँचों तत्त्व विद्यमान रहते हैं।
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सृष्टि की रचना ब्रह्म करता है या वह आप–से–आप होती है?
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इन्हीं दो प्रकार के उत्तरों से आगे चलकर भारत में द्वैतवाद और अद्वैतवाद के सिद्धान्त निकले।
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यह ध्यान देने की बात है कि वैदिक युग में इसी अद्वैतवाद का जोर था। द्वैतवाद का उत्थान तब हुआ जब भक्ति की लहर उठी और लोग यह मानने लगे कि भगवान् हमारी प्रार्थना सुनकर हमारे पापों को क्षमा कर देते हैं तथा हमें मुक्ति भी देते हैं।
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उपनिषद् कहते हैं कि कर्मफलवाद का सिद्धान्त सही है। मनुष्य जैसा कर्म करता है, उसे वैसा फल अवश्य भोगना पड़ता है।
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आत्मा और परमात्मा एक हैं, आत्मा और परमात्मा अलग–अलग हैं तथा आत्मा और परमात्मा अलग भी हैं और एकाकार भी, ये तीन तरह के मत हैं और तीनों का समर्थन उपनिषदों में खोजा जा सकता है।
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सम्बुद्धि में प्रमाणों की जरूरत नहीं होती, तर्क और दलील देने की आवश्यकता नहीं होती।
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जब तक मनुष्य को यह विश्वास न हो जाए कि सृष्टि विश्रृंखल नहीं, नियमों से आबद्ध है, तब तक न तो विज्ञान उत्पन्न होता है, न दर्शन और रहस्यवाद।
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पुरोहितवादी प्रभावों के विस्तार के कारण ब्राह्मण-काल वैदिक धर्म की अवनति का काल था। इस
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उपनिषद् हिन्दुत्व के आधारभूत ग्रन्थ रहे हैं और उन्हें समझे बिना हिन्दुत्व को समझना असम्भव माना जाता रहा है।
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ब्रह्मज्ञान की शिक्षा पानेवाला सत्यकाम जारज था, राजा जानश्रुति शूद्र थे और उन्हें आत्मविद्या सिखानेवाले ऋषि रैक्व गाड़ीवान थे।
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वैदिक सभ्यता कर्मठ मनुष्य की सभ्यता
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भाषण, इन सबसे पुण्य की प्राप्ति नहीं होती।’’ पूरण कश्यप के इस वाद को अक्रियावाद कहते थे।
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भारत में आगे चलकर दर्शन की जो छह शाखाएँ निकलीं, उनकी भी जड़ें इसी काल के बौद्धिक आन्दोलनों में थीं।
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अभी हाल तक गाँवों में यह धारणा प्रचलित थी कि जो भी गीता और उपनिषद् पढ़ेगा, वह वैरागी हो जाएगा।
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भारतीय कल्पना का ईश्वर ब्रह्म है, जो निर्विकार है, जिसमें इच्छाएँ नहीं होतीं, जो सृष्टि नहीं बनाता, जो संसार के सभी कामों से तटस्थ रहता है। किन्तु, इस्लाम और ईसाइयत की कल्पना का ईश्वर इच्छावान् और कर्मठ है। वह सृष्टि की रचना करता है तथा मनुष्यों को उनके पाप और पुण्य के लिए दंड और पुरस्कार भी देता है।
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स्वयं गीता में भगवान् ने अर्जुन से कहा है कि ‘‘वेद तो तीनों गुणों में रत हैं; हे अर्जुन! तू तीनों गुणों से ऊपर उठ।’’
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बृहस्पति और चार्वाक; वेद के भयंकर निन्दकों में इन दो पंडितों के नाम आते हैं,
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मज्झिमनिकाय के महासिंहनाद सुत्त मेें चार प्रकार के तपों का वर्णन मिलता है। तप के ये चार प्रकार थे-तपस्विता, रुक्षता, जुगुप्सा और प्रविविक्तता।
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ये चातुर्याम–संवाद थे (1) हिंसा का त्याग, (2) असत्य का त्याग, (3) स्तेय का त्याग, (4) परिग्रह का त्याग।
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पूर्वी भारत में क्रान्ति के बीज
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आर्यों का जो सर्वप्रथम दल भारत आया था, वह बढ़ते–बढ़ते बिहार की ओर