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आप किसे शापित करेंगे, मेरे शरीर को? यह तो शापित है ही—बहुतों द्वारा शापित है; और जिस दिन मैंने यह शरीर धारण किया था उसी दिन यह मृत्यु से शापित हो गया था।
चिंताहीन होकर मरना चिंतित होकर जीने से लाख गुना अच्छा है।
जन्म के पूर्व से ही मनुष्य अपने कर्मों की शृंखला से आबद्ध है। पर संसार की दृष्टि हमारे कर्मों पर कम और उसके प्राप्त फल पर अधिक होती है। इसीलिए लोग कहते हैं कि जन्म के साथ मनुष्य का भाग्य उसके कपाल पर लिख दिया जाता है। वस्तुतः वह भाग्य नहीं, उसका कर्मफल है। परमात्मा ने हर व्यक्ति को किसी विशेष कर्म के लिए बनाया है। तुम्हें भी कुछ कर्मों का लंबा दायित्व मिला है। तुम अपना कर्म करो, वे आदिवासी स्त्रियाँ अपना कर्म कर रही हैं।’
संदेह की कोई ओषधि नहीं है।’’
‘‘बैठनेवाला अपनी जगह स्वयं ढूँढ़ लेगा।’’
रोग की जब तक भयानकता न हो तब तक एकाध दिन ओषधि नहीं लेनी चाहिए।
आप केवल वर्तमान के भोक्ता हैं—और वह वर्तमान, जो क्षण-क्षण में अतीत होता जा रहा है और अनचीन्हे, अनजाने भविष्य के प्रकोष्ठ से आ रहा है।’’
औरों से युद्ध करना उतना कठिन नहीं है जितना अपने से।
‘तुम्हें शांति की संभावनाओं पर युद्ध नहीं वरन् युद्ध की संभावनाओं पर शांति खोजनी है।’
नींद उसे नहीं आती जिसका सबल विरोध होता है या जिसका सबकुछ हर लिया जाता है। कामी और चोर को भी अनिद्रा का रोग हो जाता है।
अर्जुन ने श्रीकृष्ण को पाकर विजय पा ली; क्योंकि जीत उधर ही होगी जिधर श्रीकृष्ण होंगे।’ ’’
अर्जुन की यह विशेषता थी कि जो निश्चय कर लेता था, वही करता था। उसकी दृष्टि सदा अपने लक्ष्य पर रहती थी। इसीसे वह कभी लक्ष्यभ्रष्ट नहीं हुआ।
क्योंकि शांति दोनों के चाहने पर होती है।’’ ‘‘और युद्ध एक के चाहने पर भी हो जाता है।’’
यही दुर्भाग्य है मनुष्य का। यदि शांति की तरह युद्ध भी दोनों के चाहने पर होता तो संसार में उसकी संख्या सौ में से मात्र एक-दो रह जाती—और वह भी अखाड़े के मल्लयुद्ध की तरह दर्शनीय होता।’’
जो मुझमें विश्वास करते हैं, उन्हींको मेरा विश्वास प्राप्त होता है।’’
अंधकार का अंधकार में कोई अस्तित्व नहीं।’’
जिसपर कला प्रभाव नहीं करती, उसके काटे लहर नहीं आती।’’
बिना कष्ट सहे कोई अच्छा परिणाम नहीं निकलता।’’
कोई भी युद्ध केवल सैनिक और आयुध के बल पर नहीं जीता जा सकता। उसके लिए जनमत का व्यापक सहयोग और सहानुभूति चाहिए।
पर प्रतिशोध का अंत तो प्रतिशोध में नहीं होता।’’ मैंने कहा, ‘‘प्रत्येक प्रतिशोध एक दूसरे प्रतिशोध को जन्म देता है। फिर तो यह अंतहीन सिलसिला चलता रहता है।’’
‘‘प्रतिशोध का अंत तो क्षमा की सीमा पर होता है।’’
यह जानते हुए भी हमें संधि की बात चलानी चाहिए और यह सिद्ध कर देना चाहिए कि हम किसी भी स्थिति में युद्ध नहीं चाहते। भले ही हम युद्ध चाहते हों।’’
हो सकता है, आपको अपना पाप कभी ब्रह्मास्त्र की तरह प्रयोग करना पड़े।’’
जिसके साथ धर्म हो, कर्तव्यपरायणता हो, सत्य हो उसके साथ भविष्य होता है, भले ही वर्तमान उसके विरुद्ध हो।’’
अविस्थल, वृकस्थल, माकंदी, आसंदी और वारणावत
अब तुम वह रूप देखना, जब मेरी अस्मिता स्वयं मुझसे बाहर निकलकर तांडव करेगी। और जानते हो, सात्यकि, अधर्म व अन्याय के जंगल को जलाने के लिए धर्म एवं न्याय की एक चिनगारी काफी है।’’
‘‘हिस्सा मार देने में और हिस्सा स्वेच्छया दे देने में बड़ा अंतर है, मामाजी! एक में लोभ है और दूसरे में उदारता; एक में छल है और दूसरे में प्रेम; एक में त्याग है और दूसरे में अनीति।’’
जो होना है, वह तो होगा ही। उससे डरना क्या! आप ही लोगों का तो कहना है कि साहस के साथ उसका मुकाबला करना चाहिए; किंतु धर्म और न्याय के विरुद्ध होकर नहीं।
बाँस के न रहने पर भी बाँसुरी की धुन तो रहेगी ही।’’
कितना विचित्र है कि मनुष्य अपने मन से पैदा होनेवाले भय से ही भयभीत होता है! भय कहीं बाहर से नहीं आता।’’
‘‘जो बाहर है, उसे भीतर क्यों ले आ रहे हो? उसे बाहर ही रहने दो और निर्भय होकर सो जाओ। तुम मारे जाने के पहले ही मरना चाहते हो! मेरे मित्र होकर भी इतने कायर हो!’’
कभी शरीर से अलग होकर भी तुमने स्वयं को देखा है? तुम एक ज्योतिपुत्र हो। अनंत असीम शक्ति तुममें है। शरीर के बंधन में बँधकर तुम बहुत छोटे हो गए हो। तुम शरीरी हो, पर तुम स्वयं को शरीर ही समझते हो। शरीर तो मृत्युलोक का दिया तुम्हारा वस्त्र है। अपनी इच्छानुसार काल इस वस्त्र को उतार भी सकता है, या जीर्ण होने पर तुम स्वयं इसे उतार दोगे। तो तुम अभी से उससे अलग होने का अभ्यास करो। सारा भय तुम्हारे इस शरीर तक है। निर्भय होने के लिए तुम इससे अलग होकर देखो। शायद तुम यह नहीं जानते कि तुम्हारा यह शरीर पूरे ब्रह्मांड में एक छोटा सा जीव है; जबकि तुम्हारे भीतर भी एक ऐसा ही ब्रह्मांड है।’’
पुरातत्त्व की वस्तुएँ बहुमूल्य अवश्य होती हैं, पर कक्ष में सजाने के अतिरिक्त उनका कोई उपयोग नहीं होता।
हर नारी पर किसी-न-किसी पुरुष का अधिकार होता है; तो इसका क्या मतलब है कि वह जहाँ चाहे, उसे नग्न कर सकता है? क्या नारी को समाज में जीने का अधिकार नहीं? उसकी अपनी अस्मिता नहीं? जिस समाज में नारी का स्वाभिमान नहीं, वह समाज जानवरों से भी गया-बीता होगा।’’
कूटनीतिक युद्ध आसन्न युद्ध की भूमिका होता है।
पांडवों का घाव गहरा है; क्योंकि वे घाव पर घाव खाए हुए हैं। उसे भरने में देर लगेगी; पर समय सबको भर देता है।
‘भूल जाओ और आगे की नीति पर विचार करो’
मैं ज्यों-ज्यों झुकता गया त्यों-त्यों दुर्योधन का अहं बढ़ता गया। वह आवेश में बोला, ‘‘पाँच ग्राम क्या, मैं सुई की नोक के बराबर भूमि भी बिना युद्ध के नहीं दे सकता।’’
‘‘इसमें इस बेचारे का क्या दोष? दोष तो आपका है, जो सदा इसके कर्मों और कुकर्मों को देखकर भी अनदेखी करते रहे। इसका हठ आपके अंधे पुत्र-प्रेम का परिणाम है। मैंने अनेक बार समझाया था; पर आपने कभी मेरी बात नहीं सुनी। अब उसका फल भी आप ही भोगिए।’’
‘तू जिसे बाँधना चाहता है, वह मैं नहीं हूँ। तू मात्र मेरे आवरण को बाँधना चाहता है। ऐसे सभी आवरणों का प्रणेता मैं हूँ। मैं ही शिव का तीसरा नेत्र हूँ। उन्मुक्त मेघों में चमकनेवाली हजारों तड़ित तरंगों की कड़क मैं ही हूँ। महाकाल मेरी भृकुटि पर नृत्य करता है। मैं जब दुर्गा में समाया था तब वह महाकाली हो गई थी। पृथ्वी के अंतरंग में मैं ही धधकता हूँ और वह ज्वालामुखी बन जाती है। टकटकी लगाकर मुझे देख मत। मुझे बाँधना हो तो आगे आ।’ ’’
न्याय कभी असमर्थ नहीं हुआ है। अभी भी असमर्थ नहीं है। जब न्याय असमर्थ हो जाएगा तब मानव सभ्यता मर जाएगी। मनुष्य जंगली हो जाएगा।’’
‘‘अस्त्र तो एक निर्जीव पदार्थ है। संचालित तो वह बुद्धि से ही होता है। दुर्बुद्धि के हाथ में अस्त्र निरर्थक है—मरकट के हाथ में माणिक की तरह।’’
‘अब पछताने से क्या होता है! जैसा बोया है वैसा काटिए।’
पर जहाँ तक मैं समझता हूँ, इसके दो कारण हैं। एक तो वह अपनी माँ को बदनाम करना नहीं चाहता। दूसरे, यदि इस तथ्य का उद्घाटन हो गया तो धर्मराज सोचने लगेंगे कि तब कर्ण हम सबका बड़ा भाई है। उसके रहते हमें राज्य करने का कोई औचित्य नहीं है।’’
चाचाजी, यह महायुद्ध उसी क्षण आरंभ हो चुका था जिस क्षण सूर्यपुत्र को उसकी माँ ने गंगा में प्रवाहित कर दिया—और वह भी लोक-लाज के भय से। उसका मातृत्व सामाजिक अवमानना का साहसपूर्वक सामना करने की शक्ति खो चुका था। ममता का इतना हृस! जब-जब मानव मूल्यों का ऐसा क्षरण होता है, युद्ध अवश्य पैदा होता है।’’
व्यक्तिगत रूप से कुष्ठमुक्त होने से उसके मनस्ताप का भले ही शमन हो जाए, पर समाज पर पड़ी उस पाप की छाया तो बनी ही रहेगी।
‘‘पाप के शिखर पर पश्चात्ताप की अग्नि धधकती है। अंततोगत्वा शिखर पर पहुँचने के बाद जलते रहने के सिवा कोई चारा नहीं है।
‘‘तुम्हारे कहने का चाहे जो अभिप्राय रहा हो, पर मुझे वही समझना चाहिए, जो मैंने समझा है।’’
‘‘युद्ध की समाप्ति पर कौन रह जाएगा और कौन नहीं रहेगा, इसको कौन जानता है!’’
क्योंकि मनुष्य जैसा होता है वैसा ही दूसरों को समझता है।’’