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‘‘अस्त्र खरीदना उनकी अनिवार्यता है; जबकि मूर्तियों के लिए उनकी कोई अनिवार्यता नहीं। वह तो उनके लिए एक सजावटी वस्तु है। विलासिता की अनिवार्यता से जुटती है। इसलिए अस्त्र जितने बिकते हैं, मूर्तियाँ उतनी नहीं बिकतीं; जबकि मूर्तियाँ जनता भी खरीदती है।’’
हारे, टूटे और शक्तिहीन व्यक्ति का आशीर्वाद भी शक्तिहीन और निरर्थक होता है।
दुःख के चरम बिंदु पर ही अपनी नग्न वास्तविकता का आभास होता है। इसके विपरीत सुख एक परदा आँखों पर डाल देता है; तब औरों को कौन कहे, व्यक्ति स्वयं को भी नहीं देख पाता।
‘‘भूल करना मनुष्य की प्रकृति है। भूल का अनुभव कर उसका पश्चात्ताप करना उसकी संस्कृति है।
‘यतो धर्मः ततो जयः’—जहाँ धर्म है वहीं जय होती है।’’
विनाश के मूल में है आयुध और सर्जना के मूल में है कला। आयुध मृत्यु के लिए लालायित रहता है और कला जीवन का जय बोलती है। यदि आयुध के प्रति तुम्हारी जैसी घृणा पूरी मानव जाति को हो जाती तो यह पृथ्वी स्वर्ग हो जाती।’’
इस महायुद्ध के पूरे संदर्भ में दो स्थितियाँ बहुधा अवरोधक हो जाती थीं। एक थी युधिष्ठिर की अतिशय भावुकता और दूसरी थी द्रौपदी की अतिशय प्रतिशोध की भावना। और
वही आपको शक्ति भी देगा, जिसने यह अनिवार्यता दी है।’’
अब मैं समझता हूँ, वह (कर्ण) कहीं बाहर से नहीं आया था। वह मेरे भीतर ही था—और एकांत का लाभ उठाते हुए मेरे अर्द्धचेतन में बैठा हुआ कर्ण स्वयं बाहर निकल आया था।
‘‘जाओ, गंगा में खड़े होकर मैं तुम्हारे माध्यम से पूरी नारी जाति को शापित करता हूँ कि आज से कोई बात उसके पेट में कभी पचेगी नहीं।’’
यही तो हिंसा की अंतिम परिणति होती है। ऐसे महायुद्धों के बाद कहीं भी किसीको विजय पर्व मनाते हुए न देखा और न सुना। यह तो पश्चात्ताप और शाप पर्व है।’’
‘वही राजमुकुट सत्ता के वैभव की गरिमा को सुरक्षित रख सकता है, जिसपर आचार्य-पग की धूलि लगी हो, आचार्य या उसके पुत्र की मस्तक-मणि नहीं।’’
पर क्या करूँ, मैं भी मनुष्य हूँ। मनुष्य ने युद्ध कभी नहीं चाहा। उसकी मूल प्रवृत्ति युद्ध के विरुद्ध ही रही। फिर भी युद्ध का अस्तित्व धरती पर तब से है जब से मनुष्य है—और तब तक रहेगा जब तक मनुष्य रहेगा; क्योंकि उसका अहंकार रहेगा, उसका द्वेष रहेगा, उसकी ईर्ष्या रहेगी, उसका लोभ रहेगा और रहेगी अनंत सुख की उसकी लिप्सा।
प्रेमी भिक्षा नहीं, प्रतिदान माँगता है। वह समर्पित हो सकता है, पर दास नहीं होता। दासता भी करना उसे स्वीकार है, पर क्रीत दासता उसे पसंद नहीं। प्रेम तो हृदय का सौदा है, वह बराबर का सौदा है। आग दोनों ओर बराबर लगनी चाहिए। यदि किसी ओर से आकर्षण है तो प्रत्याकर्षण होना चाहिए। प्रेमी चरणों पर सिर तो रख सकता है, पर पत्थर पर सिर नहीं मार सकता।’’
पर वे संसारी होकर भी संसारी नहीं हैं, देही होकर भी विदेही हैं। यह स्थिति कठिन अवश्य है, पर असंभव नहीं। वे सोते-जागते, उठते-बैठते बस आपका ही नाम जपती हैं। आपकी छवि सदा उनके समक्ष रहती है। आपका कोई-न-कोई प्रतीक बड़े पूज्यभाव से अपने पास रखती हैं। किसीके पास आपकी मुरली है, किसीके पास आपकी माला है—यदि पूरी माला नहीं तो उसका मनका ही सही। किसीके पास आपका पीतांबर है—यदि पूरा नहीं तो उसका एक टुकड़ा ही सही। किसीने अपनी वह चोली सुरक्षित रखी है, जिसे कभी आपने खींचकर फाड़ा था। किसीके पास उन कुंज-लताओं की पत्तियाँ हैं, भले ही वे सूख गई हैं, जहाँ आपने केलिक्रीड़ाएँ की थीं। और नहीं तो उस स्थान की धूल तो है
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मैं प्रेमापराधी हूँ—बहुत बड़ा प्रेमापराधी।
‘‘जिनके आँसू कोई नहीं पोंछ पाता, समय उनके आँसू पोंछ देता है, बुआजी! मनुष्य किसी और का नहीं, अपने ही कर्मों का फल पाता है।’’
‘‘यहाँ मैं तुमसे विषादयोग की शिक्षा लेने नहीं आई हूँ! फिर ज्ञान बुद्धि का मामला है और मोह हृदय का। दोनों के कार्यक्षेत्र अलग हैं, दोनों का प्रभाव अलग है। जब गोपियों से ऐसी ही बात उद्धव ने कही थी, तब उसके ज्ञान को उन वियोगिनियों ने धूल में मिला दिया था। आज भी तुम्हारा यह ज्ञान विधवाओं के आँसुओं में बह जाएगा।’’ इतना
‘‘मरनेवाला मैं नहीं, मेरा शरीर होगा। उसे तो किसी-न-किसी दिन मरना ही है। फिर वह आज मरे या कल, क्या अंतर पड़ता है!’’
‘‘न कुछ पुण्य है और न कुछ पाप है। हमारे भीतर अहंकार के आस्तरण पर कुंडली मारकर बैठा एक आक्रोश का साँप है। जब वह फुफकारता है तब पापकर्मों की ज्वाला उगलता है। पहले हमारा विवेक जलता है तथा फिर उसी आग में औरों को भी जलाता है। जब वह साँप फिर शांत होकर सो जाता है तब हम पश्चात्ताप के आँसुओं में डूब जाते हैं।’’
‘‘वृंदावन तो सदा मुझमें रहता है। राधा सदा उसीमें विहार करती है। उसके लिए मुझे कहीं जाने की आवश्यकता ही नहीं है।’’
‘‘सराय नहीं, प्रेमिकाओं का राजभवन कहो। और राधा उस राजभवन की पट्टमहिषी है, मेरी स्मृतियों की बस्ती की रानी है। उसके बिना न मैं पूरा होता हूँ और न मेरा नाम पूरा होता है। वंशी तो एक बार छूट भी सकती है, पर राधा नहीं।’’
इच्छाओं का कोई अंत नहीं। एक इच्छा पूरी हुई नहीं कि तुरंत दूसरी ने जन्म लिया।
मानव लिप्सा का यह अंतहीन सिलसिला है। जो इस मरीचिका के पीछे दौड़ा, अंत में मरीचिका ही उसे निगल गई।
पश्चात्ताप तो मैं कभी करता ही नहीं; क्योंकि पश्चात्ताप तो किसी भूल रूपी बीज का वृक्ष है। जब मैं स्वयं कर्ता नहीं तो भूल मुझसे क्या होगी! कर्ता तो कोई और है, मैं तो उसका ‘करण’ हूँ, माध्यम हूँ। जिसके लिए मैं माध्यम बना, यह शाप भी वही भोगेगा।’’
‘मैं अनंत काल से प्रवाहित समय की अजस्र धारा हूँ, जो अनंत काल तक इसी प्रकार बहती रहेगी। मैं हजारों साम्राज्यों और सभ्यताओं को निगल चुकी हूँ, निगल रही हूँ और निगलती रहूँगी। यह चंद्र, सूर्य, ग्रह, नक्षत्र—सब मेरे वशवर्ती हैं। मेरी ही गति का एक अंश लेकर यह पृथ्वी गतिवान् हुई है। वह अपने दिन-रात कच्चे सूत से सदैव मुझे नापने की असफल चेष्टा करती है और स्वयं एक दिन मेरी धारा में बह जाती है। उसका अस्तित्व तक भी शेष नहीं रहता। मैं ही संसार के सारे जड़-चेतन और स्थावर-जंगम की जीवन अवधि निश्चित करती हूँ। उसके बाद ही उसे इस अवधि रेखा के साथ बहा ले जाती हूँ। फिर भी मैं अदृश्य हूँ। तुम्हें केवल दिखाई देता है
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यह उनके द्वारा नहीं, उनके अहंकार द्वारा मेरी उपेक्षा थी।
अहंकार मनुष्य के सारे कर्मफल को नष्ट कर देता है।
‘‘ज्ञान-अज्ञान, पुण्य-पाप तथा सफलता-विफलता जहाँ एक ओर व्यक्ति के अपने कर्मों से जुड़े रहते हैं वहीं दूसरी ओर एक अज्ञात अदृश्य से भी। वही उसे करने की प्रेरणा देता है और उसे सँभालता भी है—कभी कृष्ण को भेजकर और कभी नेवले को।’’
अंतःपुर के गलियारे में थोड़ी दूर बढ़ने के बाद मैंने पीछे मुड़कर देखा, द्रौपदी द्वार पर खड़ी बड़ी कातर दृष्टि से मुझे देख रही थी। मेरे पास इस मोह-बंधन में पड़ने का अवसर नहीं था। मैंने एक दृष्टि उसपर डालने के बाद ही आँखें हटा लीं। फिर भी उसकी आँखें मुझसे चिपकी ही रहीं।
—‘‘आज आप कुछ ग्रहण नहीं कर रहे हैं!’’ ‘‘जब नमक कहीं से छूटता है तब यही स्थिति होती है। लगता है, आज हस्तिनापुर का नमक छूट रहा है।’’
वियोग के क्षणों में सभी की ममता समवेत होकर एक बिंदु पर घनीभूत हो जाती है।
‘‘आप सबकी ममत्व भरी आत्मीयता के समक्ष मैं नतमस्तक हूँ। यदि मुझसे कभी कोई भूल हुई हो तो क्षमा कीजिएगा।’’
‘अब तुम्हारा कालचक्र विपरीत घूम रहा है। अब मैं तुम्हें नहीं छोड़ूँगी, भले ही अपना तन छोड़ना पड़े।’
राधा ने मेरे लिए अपना तन छोड़ दिया। वह मुझमें समा गई, उद्धव। अब वह मेरी हर साँस में रहेगी। उसके बिना मेरा कोई भी काम अधूरा रहेगा। मैं अधूरा रहूँगा।’’
कन्हैया! तुमने बड़ा भारी पाप किया है यह युद्ध कराकर। तुम उसका सद्यः परिणाम भोगोगे।’’
मुझे देखना हो तो तूफानी सिंधु की उत्ताल तरंगों में देखो। हिमालय के उत्तुंग शिखर पर मेरी शीतलता का अनुभव करो। सहस्रों सूर्यों का समवेत ताप मेरा ही ताप है। एक साथ सहस्रों ज्वालामुखियों का विस्फोट मेरा ही विस्फोट है। शंकर के तृतीय नेत्र की प्रलयंकर ज्वाला मेरी ही ज्वाला है। शिव का तांडव मैं हूँ; प्रलय में मैं हूँ, लय में मैं हूँ, विलय में मैं हूँ। प्रलय के वात्याचक्र का नर्तन मेरा ही नर्तन है। जीवन और मृत्यु मेरा ही विवर्तन है। ब्रह्मांड में मैं हूँ, ब्रह्मांड मुझमें है। संसार की सारी क्रियमाण शक्ति मेरी भुजाओं में है। मेरे पगों की गति धरती की गति है। आप किसे शापित करेंगे, मेरे शरीर को? यह तो
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‘‘मैं आपकी छाया हूँ। जैसे अँधेरे में छाया वस्तु में समा जाती है वैसे मैं भी आप पर छा रहे अंधकार के समय अब आपमें समा रहा हूँ।’’
जैसे राधा का मेरे सिवा संसार में कोई नहीं था—और जो था, उसे छोड़कर वह मेरी हो गई थी वैसे ही छंदक का भी कोई नहीं था। उसे किसीको छोड़ना नहीं पड़ा। वह मेरा ही था और मुझमें ही समाविष्ट हो गया।’
न मस्तिष्क में शांति थी और न मन में चैन। तन का ताप भी बढ़ गया था।
मेरा शरीर घायल नहीं है, मित्र! पर मन बुरी तरह घायल है। बेतरह टूट चुका हूँ। अब न तन में शक्ति रही और न मन में।’’
कहाँ रह गया तुम्हारा ईश्वरत्व? किस भ्रम में तुम पड़े थे? और अभी क्या देखते हो! तुम्हारी महान् कृति द्वारका शीघ्र ही समुद्र में समा जाएगी। इसे समुद्र वैसे ही निगल जाएगा जैसे महाकाल सृष्टि निगल जाता है।’
‘इसे याद रखो कि यह मृत्युलोक है। यहाँ एक तपोनिष्ठ की निष्काम तपस्या के समक्ष ईश्वरत्व भी निष्प्रभावी हो जाता है।’