Kindle Notes & Highlights
किसीकी मृत्यु का कारण बनना और प्रधान सेनापति का दायित्व सँभालना दो अलग-अलग बातें हैं।’’
मेरी प्रकृति रागमूलक थी, अनुरागमूलक थी, पर विरागमूलक नहीं।
‘‘जब व्यक्ति संघर्ष में पड़ता है, युद्ध में पड़ता है तब वह उन्हें याद करता है। तुम शांति और सुख के समय याद नहीं किए जाते। शायद तुम्हारे प्रति नियति की यही इच्छा रही है। संघर्ष में ही तुम्हारा जन्म हुआ, संघर्ष ने ही तुम्हें पाला-पोसा और आज भी संघर्ष ही तुम्हारे साथ है।’’
अहंकार औरों की हानि से अधिक अपनी हानि करता है।’’
युद्ध टालना पराजय नहीं होती, वत्स, यह भी एक युद्धनीति है। फिर अफवाहों पर युद्ध की टिकाऊ नींव नहीं होती।’’
‘जब माँ अपनी ममता को मारकर लोक-लज्जा के भय में पड़ जाती है तब माँ माँ नहीं रहती और न उसका बेटा बेटा ही रह जाता है। तब वह उसका गला भी दबा सकती है, उसे घूरे पर भी फेंक सकती है, उसे धारा में प्रवाहित भी कर सकती है।’
‘भूल से किए हुए प्रहार से क्या चोट नहीं लगती?’
कर्ण सबकुछ हो सकता है, पर कृतघ्न नहीं हो सकता।
मैं हर काम के लिए नियम बनाने के पक्ष में नहीं रहता; क्योंकि नियम स्वयं को बाँधने के लिए बनाए जाते हैं। इससे सामाजिक अनुशासन तो बढ़ता है, पर आत्मानुशासन दुर्बल हो जाता है। दूसरे, जिस क्षण नियम बनता है उसी क्षण उसके टूटने की संभावना का भी जन्म हो जाता है—जीवन के साथ मृत्यु की तरह। इसीलिए लोग मोक्ष चाहते हैं। इसीलिए मैं भी नियममुक्त स्थिति को सबसे अच्छी स्थिति मानता हूँ, जो केवल आत्मानुशासित हो। फिर युद्ध और प्रेम में नियम क्या? युद्ध में युद्ध करना और प्रेम में प्रेम करना ही नियम है।’’
यदि इस विपत्ति में नारी पुरुष का साथ नहीं दे सकती तो उसका जीवन व्यर्थ है।
सच्ची सेविका तो नारी ही होती है!’’
नारी का प्रतिशोध नागिन से कम जहरीला नहीं होता—वह भी द्रौपदी का, वह तो आग है आग—यदि दूसरे को न जला पाई तो स्वयं जलकर राख हो जाएगी।
नियम तो सामान्य मस्तिष्क देखता है। क्रोध और आवेश में तो वह असामान्य हो जाता है, तब उसे कुछ दिखाई नहीं देता। यदि नियम की ओर वह देखे तो उसे आवेश ही न आए। वैसे भी मैं मर्यादामुक्त व्यक्ति हूँ। कोई भी मर्यादा और नियम मुझे बाँध नहीं सकते। केवल आत्मानुशासन ही मेरे कर्मों पर नियंत्रण करता है।’’
मनोबल टूटेगा—और मनोबल का टूटना आधा पराजित हो जाना है।’’
तुम्हारे पास धर्म है, सत्य है और श्रीकृष्ण हैं।’’ महर्षि ने बड़े विश्वास से कहा, ‘‘यतो कृष्णः ततो जयः।’’
युद्धस्थल में ही मैं ध्यानावस्थित हुआ और मैंने योग से अपने असामान्य व्यक्तित्व को जगाया।
‘‘जिन्हें तू मारे जाने वाले समझता है, वे पहले से ही मरे हुए हैं। यदि ऐसा न होता तो यह स्थिति न आती। और मृत्यु तो जीवन का रूपांतर है। आगामी जीवन का द्वार है। न कोई किसीको मारता है और न मरता है। सब अपने कर्मों का फल भोगते हैं। तू भी अपने कर्मों का फल भोगेगा। ये भी भोगेंगे। तू चाहे कि इसे रोक ले, तो यह नहीं हो सकता।
फिर मरनेवाला तो शरीर है, आत्मा कहाँ मरता है! वह तो सृष्टि के आदि से है और सृष्टि के अंत तक रहेगा। बीच-बीच में वह अपना शरीर रूपी वस्त्र उतारता रहता है और नया जीवन चलता रहता है।
इस घटना के बहुत बाद अर्जुन ने फिर मुझसे कहा था—‘केशव, युद्धक्षेत्र में आपने मुझे जो शिक्षा दी थी, उसे फिर सुनाइए।’ मैं असमर्थ था। मैंने अर्जुन से कहा, ‘पार्थ, वह शिक्षक नहीं रहा। वह तो उसी समय तुम्हें शिक्षा देकर चला गया था।’
तुममें अपने से बड़ों के प्रति महत्ता का ज्ञान है। यही ज्ञान तुम्हें विजय दिलाएगा।
इनकी महानता इनकी मृत्यु का उपाय भी बता सकती है।
जिसका हो लिया, जीवन भर के लिए हो लिया।’’
उनकी प्रसन्नता के पीछे निराशा है। आपके शोक के पीछे उत्साह होना चाहिए।
वृक्ष ही खड़ा रहता है, जो हताशा की झंझा में झुकना जानता हो।
प्रसन्नता की अतिशयता मुझे आतंकित करती है।’’
नारी की प्रतिहिंसा किस सीमा तक जा सकती है और प्रतिशोध हिंसा की किस गहरी छाया में आश्रय लेता है।
मनुष्य भय की अंतिम सीमा पर परम निर्भय हो जाता है।
पेट की ज्वाला युद्ध की ज्वाला से भयंकर होती है, माधव!’’
‘‘विवाह न होते हुए भी लोग वैवाहिक संस्कार से अनभिज्ञ नहीं होते।’’ वह बोला, ‘‘भोगे हुए यथार्थ से कम अनुभव का यथार्थ प्रभावित नहीं करता।’’
मैंने अपने जीवन में जो कुछ भी किया हो, पर कभी वचनभंग नहीं किया। मैं चुपचाप लौट पड़ा—अत्यंत टूटा हुआ और ऐसी गति से कि मेरे पैर लड़खड़ाने लगे।
अर्जुन, देखना, इस महासमर में सारे वचन तोड़े जाएँगे। युद्ध के नियमों की धज्जियाँ उड़ाई जाएँगी।
भीष्म अर्जुन के बाणों से धराशायी नहीं हुआ, वह धराशायी हुआ द्वारकाधीश की युक्ति से।’’
‘शिष्य से पराजित होना जीवन का सबसे बड़ा सम्मान है।’
तुम अकेले कहाँ हो! तुम्हारा पराक्रम तुम्हारे साथ है, तुम्हारी विद्या तुम्हारे साथ है, तुम्हारा धर्म तुम्हारे साथ है—और फिर मैं तो हूँ ही।’’
तब भी घटती, क्योंकि इसे घटना था।’’
एक क्षत्राणी इन्हीं दिनों के लिए अपने बेटे को जन्म देती है।’’
जीवन का मोह छोड़कर आज अपने पराक्रम का परिचय दीजिए, देव! यदि विजयी होगे तो मेरी माँग के सिंदूर की अरुणिमा और बढ़ जाएगी, अन्यथा हम दोनों साथ स्वर्गारोहण करेंगे।’’
‘‘इसीलिए आपको कभी मृत्यु पर क्रोध नहीं करना चाहिए; क्योंकि सृष्टिकर्ता की इच्छा का परिणाम है जीवन, तो उसके दमित क्रोध का रूपांतर है मृत्यु। जीवन है तो मृत्यु होगी।’’
क्रोध की बाढ़ यदि रोकी नहीं जा सकती तो पश्चात्ताप का सिंधु भी बाँधा नहीं जा सकता।
‘‘आत्मस्तुति से बढ़कर कोई आत्मदाह हो नहीं सकता।’’
धर्म तभी तक है जब तक जीवन है। जब जीवन का अस्तित्व खतरे में पड़ता है तब धर्म का अस्तित्व भी खतरे में पड़ जाता है। ऐसे समय धर्म यदि बंधन की तरह सामने आ जाए तो उससे मुक्त होना ही जीवनधर्म है। इसलिए अब तक जो हुआ, वह हुआ; अब हमें भी युद्ध के नियमों की परवाह किए बिना युद्ध करना चाहिए। इस संदर्भ में आपकी क्या राय है?’’
धर्म तो समाज की देन है। धर्म लेकर व्यक्ति पैदा नहीं होता। हम अर्थ और काम लेकर पैदा होते हैं, धर्म समाज दे देता है—और तीनों के समन्वय से हम मोक्ष के लिए प्रयत्नशील होते हैं। इसलिए जब तक समाज है तब तक धर्म है। जब समाज ही छूट रहा हो, शरीर का अस्तित्व ही खतरे में पड़ गया हो, तब हम धर्म को सिर पर लादे हुए क्या करेंगे?’’
‘वस्तुतः यह उसकी शिक्षा से भयभीत नहीं है; यह भयातुर है उसके कठिन अभ्यास और तपस्या से।’ ’’
मैं निर्मम होकर लाशों पर से ही रथ को इधर-उधर भगाता रहा।
अर्जुन तुरंत चिल्लाया—‘‘आप भूल में हैं! अभी संध्या नहीं हुई है।’’ मैंने अर्जुन को डाँटा—‘‘जो प्रकृति तुम्हारे अनुकूल बन रही है, तुम उसी को नकार रहे हो! चुपचाप स्वीकार करो कि संध्या हो रही है, बल्कि हो गई है।’’
‘‘देखो, यह न्याय की ध्वनि सुनाई दे रही है।’’ मेरा व्यंग्यात्मक उद्घोष कौरव पक्ष में बड़ी गहराई तक डूब गया।
‘‘मेरे जघन्य मातृत्व को झुलसा देनेवाले मेरे योग्यतम पुत्र की कृतज्ञता और दान का प्रतीक चिह्न।’’
‘तुम कर्ण को क्या समझती हो, कुंती!’ इंद्र ने कहा, ‘जो झूठ न बोलता हो, जिसमें सत्ता की लिप्सा न हो, जिसकी प्रजा किसी अभाव का अनुभव न करती हो, जो ब्राह्मणों को मुँहमाँगा दान देता हो, जो जीवन में कभी कृतघ्न न हुआ हो, वह किसी ऋषि या महर्षि से भी महान् है।’
ब्राह्मण माँगते समय इतना संकोच नहीं करता।’
‘मैंने आज तक ऐसा ब्राह्मण नहीं देखा, जिसने कभी किसीसे कुछ माँगा न हो।’