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ब्राह्मण तो कभी माँगने में इतना शंकाकुल नहीं होता।’
स्वार्थ की आग जब भभकती है तब पश्चात्ताप का धुआँ उसकी लपट के बहुत ऊपर तक जाता है।
‘‘न कभी मैं पूरा था और न कभी मैं आधा होऊँगा।’’ कर्ण अब भी मुसकरा रहा था।
‘‘कभी-कभी ऐसा भी होता है कि जो दिखाई देता है, वह कारण होता नहीं।’’
‘‘अब तक जो हुआ है, क्या वह ठीक था?’’
विषाद की भूमि पर ग्लानि का अंकुर बड़ी जल्दी फूटता है। यह मानसिकता सांसारिकता के प्रति बड़ी घातक होती है।
स्मृति के घेरे में आकर विस्मृति बड़ी मोहक हो जाती है।
‘‘आपद्धर्म की।’’ मैंने मुसकराते हुए कहा, ‘‘जब मनुष्य का अस्तित्व स्वयं खतरे में हो तब अपने अस्तित्व की रक्षा करना ही सबसे बड़ा धर्म है।
प्रतिहिंसा कितनी निष्ठुर और कठोर होती है। वह संबंधों का कोई भी बंधन स्वीकार नहीं करती।
उपलब्धता के बड़े-से-बड़े अरण्य को अहंकार भस्म कर देता है।
‘बहुत से प्रश्नों का उत्तर दिया नहीं जाता। उसे काल पर छोड़ दिया जाता है। प्रतीक्षा कीजिए, समय ही उसका उत्तर देगा।’
‘‘विवादग्रस्त व्यक्ति के क्रोध को परास्त करना आसान होता है, अतएव तुम अपनी प्रहारक क्षमता और बढ़ाओ।’’
अनैतिकता के अरण्य में नैतिकता का एकमात्र शेष वृक्ष भी गिर गया। ध्वस्त होते मानव मूल्यों के सागर में संकल्प, दृढ़ता और कृतज्ञता का जलयान डूब गया। उसके इस महाप्रयाण पर मेरा मस्तक स्वतः झुक गया।
दूसरे का अधर्म कृत्य हमें अधर्म करने का अधिकार नहीं देता।’’
‘‘मैं अपने कथन पर स्थिर हूँ। रह गई बात मेरे संबंध में, तो वह कई क्षेत्रों में मुझसे महान् था।’’
बार-बार सर्पदंश सहते-सहते वह विषधर हो गया था।’’
‘‘कभी-कभी जो दिखाई पड़ता है, वह यथार्थ नहीं होता।’’
ऐसा तुमने क्यों किया? क्या मैं अधार्मिक था? समाज के लिए कलंक था? मेरी पूजा, मेरी प्रार्थना, मेरा दान, मेरा धर्म, मेरी दीन-दुखियों की सेवा आदि का कोई महत्त्व नहीं? तुम्हें केवल मेरा जलता हुआ प्रतिशोध ही दिखा?
‘बस-बस, अब बस करो। तुमने तर्क के इतने तीर मारे कि मुझे जब भी तुम्हारी याद आएगी, मैं पश्चात्ताप की पीड़ा से छटपटाता रहूँगा। संप्रति तुम्हारे इन प्रश्नों का मेरे पास कोई उत्तर नहीं है।’
‘युद्धक्षेत्र में अर्जुन की हर शंका का समाधान करनेवाले, ‘गीता’ का उपदेश देनेवाले, आखिर इस समय तुम पराजित हो गए।’ सारा सन्नाटा शून्य की एक बीभत्स खिलखिलाहट में बदल गया। फिर एक आवाज ब्रह्मास्त्र की तरह मुझपर मारी गई—‘तुम क्या उत्तर दोगे, इसका उत्तर कालदेवता देगा।’
मेरा सारा ज्ञान, मेरा सारा विवेक, मेरी सारी चिंतना अत्यंत असमर्थ हो गई।
युद्धस्थल में सभी मानवीय संबंध और रिश्ते समाप्त हो जाते हैं। कोई व्यक्ति केवल शत्रु या मित्र ही रह जाता है।
‘‘आँगन में उगा काँटा भी काँटा ही होता है। उसे निकालकर फेंक देना ही धर्म है। मेरा सिद्धांत स्पष्ट है। जहाँ तक हो, युद्ध टालते जाइए; पर यदि वह अनिवार्य हो जाए तो पूरी निर्ममता के साथ उसका सामना करना चाहिए।’’
‘‘युद्ध में जरा भी ढिलाई नहीं करेंगे। यह न समझेंगे कि अब तो किनारे लग गया हूँ। बहुत से तैराक किनारे पर ही डूब जाते हैं।’’
‘‘तुम अपने क्रोध पर नियंत्रण करो। इतना अहंकार हितकर नहीं।’’ मैंने कहा, ‘‘और यह अच्छी तरह समझ लो कि न तुम किसी वंश का निर्माण कर सकते हो और न विनाश। यह कार्य प्रकृति का है। धरती अपना बीज अपने में सुरक्षित रखती है। ठीक इसी प्रकार का भ्रम परशुराम को भी था। उन्होंने अनेक बार धरती से क्षत्रियों को मिटा देने का दावा किया; पर आज तक क्षत्रिय नहीं मिटे और न परशुराम परंपरा मिटी।’’
मनुष्य को अवश्य ही अपने कर्मों का फल भोगना पड़ता है, चाहे वह कर्मयुद्ध में हो या जीवन में हो।’’
पर याद रखना, कृष्ण! तुम्हें भी अपने कर्मों का फल भोगना पड़ेगा।’’
आप ठीक कहते हैं। यह खुल्लम-खुल्ला अन्याय है; पर हमें उन संदर्भों को भी समझना चाहिए।’’
इतना तो हमने रोकना चाहा; पर महाविनाश होकर ही रहा। संसार सोचता था कि सबकुछ मेरे हाथ में था; पर वास्तविकता यही थी कि मेरे हाथ में कुछ भी नहीं था। शायद मैं भी नहीं। ऐसा लगता है कि हम सब किसी महा नट के हाथ की कठपुतलियाँ हैं। जैसा वह नाच नचाता है वैसा हम नाचते हैं। फिर क्या होगा, हम यह सोचते क्यों हैं?
‘‘संन्यास तो आप लीजिएगा न, समाज आप छोड़ दीजिएगा न; पर ये आवाजें आपको कहाँ छोड़ने वाली हैं!’’ मैंने पूछा, ‘‘क्या इस महासमर की भयंकरता, इसकी क्रूरता आपका मन और मस्तिष्क छोड़ सकता है? यह दुःख स्वप्न बनकर आपको छाएगा और आपका सोना हराम कर देगा। आग से भागने से आग शांत नहीं होती, वह तो बुझाने से शांत होगी।’’
आपको सारा कष्ट इसलिए है कि आप सोचते हैं कि यह सब हमने किया है, या हमारे कारण हुआ है। आप यह क्यों नहीं सोचते कि इसे तो होना ही था। हम तो निमित्त मात्र बने हैं।’’
आपकी मूल समस्या यह है कि आप मन और मस्तिष्क का समन्वय नहीं कर पा रहे हैं।’’
‘‘मन और मस्तिष्क का सार्थक समन्वय ही ‘कर्मयोग’ है।’’
यह प्रश्न लगभग वैसा ही है जैसा काम के भस्म हो जाने पर रति ने शिव से पूछा था—‘मेरे भाग्य का सिंदूर मिटाने का आपको क्या अधिकार है?’ शायद उसने यह भी कहा था कि ‘यह सही है कि मेरे पति ने आपकी समाधि भंग करने की कुचेष्टा की थी। उन्होंने अपराध किया था, उसका दंड उन्हें मिला; पर मुझे विधवा होने का दंड क्यों दिया गया?’ शिव निरुत्तर हो गए थे। उन्होंने विवश होकर कहा था—‘तुम ठीक कहती हो, रति! पर तुम विधवा नहीं हुईं। तुम्हारा पति जीवित है। तुम सधवा ही हो और रहोगी; पर मैं उसे शरीर नहीं दे सकता। जीव को अंगी बनाने का सामर्थ्य मुझमें नहीं। अब वह अनंग बनकर सबके मनों में विराजेगा।’
ऐसी घबराहट कि किसीने मेरे स्वास्थ्य के बारे में पूछने की औपचारिकता तक नहीं बरती।
‘‘वैसे ही जब हमें दिया काम भी पूरा हो जाएगा तब नियति चुपचाप, बिना किसीसे पूछे-जाँचे हमें उठा ले जाएगी। बहाने हजार बनते रह जाएँगे; चाहे युद्ध का बहाना बने, चाहे रोग का या किसी और का।’’
अभिशप्त जीवन एक अभागे से अधिक संतप्त जीवन होता है।’’
अशांत मन की आत्मा शरीर को जल्दी नहीं छोड़ती। यदि छोड़ती है तो वह अशांत ही रहती है। अशांत आत्मा अशांत मन से अधिक घातक होती है।’’
कोई किसीको मार नहीं सकता, महाराज! मनुष्य अपने कर्मों से ही मारा जाता है।’’
‘‘आत्महत्या करनेवालों की एक मनोवृत्ति होती है, लोग मुझे देख लें कि मैंने अपने किए का दंड स्वयं स्वीकार किया।’’
‘‘पाप के लिए प्रोत्साहन देना भी पाप से कम पाप नहीं है, विदुर!’’
मुझे स्पष्ट लगा कि आँसू मन के सारे कलुष धो देते हैं। दृष्टि साफ हो जाती है। जिसका जीवन भर अनुभव नहीं होता, उसका अनुभव होने लगता है। जो जीवन में दिखाई नहीं देता, वह दिखाई देने लगता है। शायद परमात्मा का भी मनुष्य को बोध न होता, यदि उसे कष्ट न होता।
मनुष्य किसी और का नहीं, अपने कर्मों का फल भोगता है। चाहे वह हँसकर भोगे या रोकर। फिर नियति की इच्छा के विरुद्ध कुछ नहीं होता।’’
मैरेय में डूबी नींद भी बेसुध हो जाती है।’’
‘‘इसलिए कि मैं लूटनेवाले से भी नहीं लुटी थी। कुछ-न-कुछ शेष थी। आज तो ऐसी लुटी कि कुछ भी शेष न रह गई।’’
‘‘प्रतिशोध से प्रतिशोध का अंत नहीं होता। एक आग दूसरी आग को जलाती है। इसके विरुद्ध क्षमा में स्थायी शांति है।’’
आक्रोश के टूट जाने के बाद व्यक्ति के प्रहार की क्षमता दुर्बल हो जाती है।
शायद जीवन की अंतिम परिणति यही है। सारा तू-तू, मैं-मैं, मेरा-तेरा, अपना-पराया, छीना-झपटी एक जिद्दी बालक की तरह छैलाकर सो गई। लगता है, प्रकृति हमें जन्म देते ही सपनों के खिलौने थमा देती है और जीवन भर हम उन्हीं खिलौनों से खेलते रहते हैं। वे ही सपने हमारे अस्तित्व की पहचान बनते हैं। तृष्णा और आकांक्षाएँ इन सपनों में रंग भरती हैं। तब मनुष्य उनमें और खो जाता है। उनसे उलझता है, खेलता है, रोता है, गाता है; पर जब साँसों का सिलसिला थम जाता है, जब शिव चला जाता है तब मात्र शव रह जाता है—और तब आती है एक अंतहीन शांति।
इतना सुनते ही मुझे रोमांच हो आया। मेरा तन-मन दोनों सिहर उठा। मुझे लगा कि मैंने उसे छोड़कर अच्छा नहीं किया। उसके प्रेम के साथ धोखा हुआ। पर उसके प्रेम की विह्वलता इस धोखे को भी स्वीकार नहीं करती। फिर भी कोई उलाहना नहीं, एक अटल विश्वास के साथ दत्तचित्तता, निश्चय ही उसका प्रेम तो राधा आदि गोपियों के प्रेम से भी महान् है।