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दलीलें या स्पष्टीकरण किसी कमी की
भरपाई कभी नहीं कर सकते।
उत्कृष्टता के अभाव के लिए ख़ुद को सांत्वना और तसल्ली दे देना, अपने जीवन में आपको बहुत नुक़सान पहुँचाएगा।
‘दोष रहित’ होना संभव है। उत्कृष्टता बनाए रखना संभव है। और इसका शुभारंभ ऐसा स्वभाव बना लेने से होता है, जिसमें आप सर्वोत्तम से कम किसी भी चीज़ से समझौता करने से साफ़ इंकार कर देते हैं। जीवन के साथ यह विचित्र बात है कि यदि सर्वोत्तम से कम किसी भी चीज़ से आप समझौता करने से इंकार कर देते हैं तो फिर आप उस सर्वोत्तम को हासिल कर ही लेते हैं।
बात केवल इतनी है कि संबंधों का स्वरूप बदल गया है। बीते वर्षों में संबंधों का आधार भावना हुआ करता था, आज संबंधों का आधार सूचना है।
संबंधों का आधार भावना से हटकर सूचना पर आ गया है।
विश्वास संबंधों का आधार होता है, लेकिन अब विश्वास बस यूँ ही नहीं कर लिया जाता। सूचना विश्वास का आधार बन गई है, और इसीलिए संबंधों का भी।
इस अंतराल से संबंध जोड़े तो आप
आश्रय बन जाएँगे अथवा ख़ुद आश्रित हो जाएँगे
यूगोस्लाविया की एग्नेस गॅान्जा बोयाजू तो कलकत्ता के एक कॉन्वेंट स्कूल में पढ़ाने के लिए भारत आई थी - और अनचाहे ही संसार के सामने मदर टेरेसा का करुणावतार अवतरित हो गया था। ‘द नेशनल हेराल्ड’ के एक संपादकीय सदस्य बालकृष्ण मेनन, जिनका हमेशा से यह विश्वास था कि हर साधु एक बड़ा फ़रेबी होता है, स्वामी शिवानंद के पास एक आर्टिकल लिखने के संबंध में पहुँचे और वे अनचाहे ही संसार को स्वामी चिन्मयानंद के रूप में प्राप्त हुए। आप कुछ भी कहें, क्रिस्टोफ़र कोलंबस के लिए अमेरिका था तो एक अनचाहा परिणाम ही।
और इस तरह हम अनजाने ही बच्चे में इस विश्वास की प्रोग्रामिंग कर देते हैं कि ख़ुशी-ख़ुशी रहने की तुलना में रोना अधिक ध्यान खींच सकता है।
गहरी घृणा और उथले प्रेम के बीच आपका अवचेतन हमेशा घृणा को ही चुनेगा। यही कारण है कि ठेस आघात व घृणा तो वर्षों तक ताज़े बने रहते हैं, लेकिन प्रेम को हर रोज़ किसी नए ढंग से अभिव्यक्त करना पड़ता है।
अपनी घृणा को जीवित रखने में तो आप समर्थ हैं, लेकिन अपने प्रेम को सँभालकर रखने के लिए आपको बाहरी संबल की ज़रूरत पड़ती है।
समाधान सरल है। नकारात्मक बात को दो वाक्यों में बोलें, और सकारात्मक को कम से कम पाँच में।
हम झूठ इसलिए बोलते हैं क्योकि यह हमें एक अप्रिय स्थिति में पहुँचने से पलायन कर जाने में सहायक होता है।
आप यदि शिखर पर पहुँचना चाहते हैं तो आपको जीवन में हर चीज़ का ‘सामना करने की प्रवृत्ति’ की ज़रूरत होगी।
‘बेटा, क्या तुमने आज कोई अच्छा प्रश्न पूछा?’ इस अंतर ने - सही प्रश्न पूछने ने, मुझे वैज्ञानिक बना दिया।”
संसार आपके आचरण के उदाहरण पर चलेगा, न कि आपकी सलाह या उपदेश पर।
हममें जीवन निर्माण, मानवीयता निर्माण तथा चरित्र निर्माण करने वाले विचार होने चाहिए।
हमें उस शिक्षा की ज़रूरत है, जिसके द्वारा चरित्र का निर्माण हो, मनोबल में वृद्धि हो, प्रज्ञा का विस्तार हो और जिसके बल पर व्यक्ति अपने पैरों पर खड़ा हो सके।”
संबंध ही जीवन का असली ताना-बाना हैं। संवाद ही संबंधों की जीवन रेखा होता है। सफलता केवल नेतृत्व से जुड़ी होती है - या तो आप नेतृत्व कर रहे होते हैं या फिर किसी के नेतृत्व का अनुसरण कर रहे होते हैं। जहाँ आप अपना समय लगाते हैं, आपका भविष्य भी वहीं से बनता
का कौशल ही जीवन का कौशल है।
आप या तो निर्भर करने योग्य होते हैं या फिर किसी पर निर्भर होने योग्य और यह आपकी उस छवि पर निर्भर करता है जो आपने ख़ुद अपने लिए बना ली है।
कटु सत्य यह है कि जीवन की इन अनिवार्यताओं में से कोई भी हमारे स्कूली या किताबी ज्ञान ...
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शिष्य ने पूछा, “गुरुजी, ज्ञान-प्राप्ति से पहले भी आप केवल कुँए से जल खींचते थे और लकड़ियाँ काटते थे, और ज्ञान-प्राप्ति के बाद भी आप वही कर रहे हैं। आपके कार्य में तो मुझे कोई अंतर दिखाई नहीं दे रहा है।” गुरु का उत्तर था, “हाँ, मेरे कार्य में कोई अंतर नहीं है, लेकिन जिस गुणवत्ता से मैं यह कार्य कर रहा हूँ, उसमें परिवर्तन आ गया है।”
कन्फ़्यूशियस ने ठीक ही कहा था, “वह रोज़गार चुनें,
जिसमें आपकी रुचि है, तो फिर आपको जीवन में एक भी दिन काम...
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चोर भी चाकू का प्रयोग करता है और सर्जन भी चाकू का प्रयोग करता है।
किसी कर्म में कोई पाप नहीं होता, पाप तो हमेशा उस कर्म के पीछे मौजूद आशय में होता है।
मुझे इस बात के प्रति सजग व सचेत रहने की ज़रूरत है कि मेरे आस-पास का संसार तो मुझे मेरे कार्यों से ही जानना जारी रखेगा।
भगवान हमें भले ही हमारे इरादों के आधार पर पुरस्कृत या दंडित करे, लेकिन इंसान तो हमें हमारे कार्यों के आधार पर ही पुरस्कृत या दंडित करेगा।
लोगों की संगत में रहना दोधारी तलवार जैसा होता है…
जो बुद्धिमान लोगों की संगत में रहता है, वह बुद्धिमान बनेगा, लेकिन मूर्खों की संगत में रहने वाला हानि ही झेलेगा। - प्रोवर्ब
और कोई बुराई भी तब इसलिए अच्छाई लगने लगती है कि वह लोगों का ध्यान आकर्षित कर रही होती है। विडंबना तो तब होती है जब कोई अच्छाई भी, बस इसलिए अच्छाई नहीं रह जाती क्योंकि वह लोगों का ध्यान आकर्षित करने में विफल रहती है। दूसरों का ध्यान आकर्षित करना, दूसरों की नज़र में आना - यह अहं की ही ख़ुराक़ है।
अपने अहं को संतुष्ट करने के चक्कर में आप कितने मूल्यवान संबंध खो चुके
अपनी चोंच में माँस का टुकड़ा ले जा रहे एक कौवे ने पाया कि कई चिड़ियाँ उसके पीछे पड़ गई हैं। उसने वह माँस का टुकड़ा छोड़ दिया। तब सारी चिड़ियाँ कौवे को छोड़कर उस टुकड़े के पीछे झपट पड़ीं। तब आकाश में अकेले उड़ते कौवे ने कहा - “उस माँस के टुकड़े को छोड़कर मैंने आकाश की आज़ादी पा ली।”
समस्या यह नहीं है कि आप अपेक्षा कर रहे हैं, बल्कि यह है कि इस अपेक्षा का तुलना वाला पैमाना आप हमेशा अपने साथ लेकर चल रहे हैं।
दूसरों से असंतुष्ट होना जहाँ हमें नाख़ुश बनाता है, वहीं अपने आपसे असंतुष्ट रहना हमें अपना विकास करने में सहायक होता है।
आपका मन-मस्तिष्क आपकी शांति का आसन होना चाहिए, न कि किसी ऐसी चीज़ या व्यक्ति का आसन, जो आपको अशांत करता रहे।
कुछ आपकी शांति के लिए हो। जाने देना, विदा कर देना सीखें - शारीरिक रूप से नहीं बल्कि भावनात्मक रूप
आपका मन या तो महकते फूलों की टोकरी बन सकता है या फिर तेज़ाब रखने का बर्तन।
लेकिन यदि आप अपने आघात को पाले रखते हैं तो आप ख़ुद को वैसे ही नष्ट कर रहे होते हैं, जैसे तेज़ाब उस पात्र को नष्ट कर देता है, जो उसे सँभाले होता है।
लोग अपने ही अज्ञान व अपरिपक्वता के चलते आपको ठेस पहुँचाते हैं।
जब आप किसी से घृणा करते हैं, तब उसका तो कुछ नहीं बिगड़ता, लेकिन निश्चय ही, आपकी रातें करवटें बदलते हुए बीत जाती हैं, और यदि इसकी अति हो जाए तो आपको एसिडिटी और अल्सर जैसी समस्याएँ होने लगती
चीज़ ठेस लगने जितनी निरर्थक हो, आप उसके साथ क्यों जिएँ?
भौतिक रूप से तो लोगों या घटनाओं द्वारा आपको
पहुँचाई गई ठेस एक बार ही घटित होती है लेकिन आप उस घटना की अपने दिमाग़ में फ़िल्म की तरह सैकड़ों, हजारों, बल्कि असंख्य बार घुमा-घुमाकर देखते रहते हैं। जितनी बार आप ऐसा करते हैं, वह चोट, वह ठेस उतनी ही गहराती जाती है। अपनी ही शांति की तुलना में ...
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एक चूहा बिल्ली के डर से हमेशा त्रस्त और दुखी रहता था। एक संत को उस पर दया
आ गई और उन्होंने उसे बिल्ली बना दिया। अब वह कुत्ते से डरने लगा। इसलिए उस संत ने उसे कुत्ता बना दिया। अब वह आदमी से डरने लगा। तो संत ने उसे आदमी बना दिया। लेकिन आदमी बनने के बाद वह भगवान से डरने लगा। इस पर उस संत ने यह कहते हुए उसे वापस चूहा बना दिया- “तुम्हारे लिए मैं कुछ भी कर दूँ, सब बेकार है, क्योंकि तुम्हारा दिल तो चूहे वाला ही है।”
यह संसार ‘एक-गुणी अचरजों’ से भरा है। आप हरफ़नमौला व्यक्तित्व बनें। आप पूर्णतावादी नेतृत्व करें। किसी के प्रति आत्मसमर्पण किए बिना, उसका आधिपत्य स्वीकार किए बिना, उसके प्रति श्रद्धा व आदर का भाव रखें।