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तेजस्वी सम्मान खोजते नहीं गोत्र बतलाके, पाते हैं जग से प्रशस्ति अपना करतब दिखलाके।
अपना अवगुण नहीं देखता, अजब जगत् का हाल, निज आँखों से नहीं सुझता, सच है, अपना भाल।”
पत्थर-सी हों मांस-पेशियाँ, लोहे-से भुजदण्ड अभय, नस-नस में हो लहर आग-की, तभी जवानी पाती जय। विप्र हुआ तो क्या, रक्खेगा रोक अभी से खाने पर? कर लेना घनघोर तपस्या वय चतुर्थ के आने पर।
“‘वीर वही है जो कि शत्रु पर जब भी खड्ग उठाता है, मानवता के महागुणों की सत्ता भूल न जाता है।
जियो, जियो, ब्राह्मणकुमार! तुम अक्षय कीर्त्ति कमाओगे, एक बार तुम भी धरती को निःक्षत्रिय कर जाओगे। निश्चय, तुम ब्राह्मणकुमार हो, कवच और कुण्डल-धारी, तप कर सकते और पिता-माता किसके इतने भारी?’
धँस जाये वह देश अतल में, गुण की जहाँ नहीं पहचान, जाति-गोत्र के बल से ही आदर पाते हैं जहाँ सुजान।
“नहीं पूछता है कोई, तुम व्रती, वीर या दानी हो? सभी पूछते मात्र यही, तुम किस कुल के अभिमानी हो? मगर, मनुज क्या करे? जन्म लेना तो उसके हाथ नहीं, चुनना जाति और कुल अपने बस की तो है बात नहीं।
सच है, विपत्ति जब आती है, कायर को ही दहलाती है, शूरमा नहीं विचलित होते, क्षण एक नहीं धीरज खोते,
है कौन विघ्न ऐसा जग में, टिक सके वीर नर के मग में? खम ठोंक ठेलता है जब नर, पर्वत के जाते पाँव उखड़। मानव जब जोर लगाता है, पत्थर पानी बन जाता है।
“जब ध्यान जन्म का धरता हूँ, उन्मन यह सोचा करता हूँ, कैसी होगी वह माँ कराल, निज तन से जो शिशु को निकाल, धाराओं में धर आती है, अथवा जीवित दफनाती है?
“मित्रता बड़ा अनमोल रतन, कब इसे तोल सकता है धन? धरती की तो है क्या बिसात? आ जाय अगर वैकुण्ठ हाथ, उसको भी न्योछावर कर कुरूपति के चरणों पर धर दें
“तुच्छ है, राज्य क्या है केशव? पाता क्या नर कर प्राप्त विभव? चिन्ता प्रभूत, अत्यल्प हास, कुछ चाकचिक्य, कुछ क्षण विलास। पर, वह भी यहीं गँवाना है, कुछ साथ नहीं ले जाना है!
“प्रासादों के कनकाभ शिखर, होते कबूतरों के ही घर, महलों में गरुड़ न होता है, कंचन पर कभी न सोता है। बसता वह कहीं पहाड़ों में, शैलों की फटी दरारों में।
“मैं गरुड़, कृष्ण! मैं पक्षिराज, सिर-पर न चाहिये मुझे ताज। दुर्योधन पर है विपद् घोर, सकता न किसी विधि उसे छोड़। रणखेत पाटना है मुझको, अहिपाश काटना है मुझको।
पर, जाने क्यों, नियम एक अद्भुत जग में चलता है, भोगी सुख भोगता, तपस्वी और अधिक जलता है। हरियाली है जहाँ, जलद भी उसी खण्ड के वासी, मरु की भूमि मगर, रह जाती है प्यासी की प्यासी।
और, वीर जो किसी प्रतिज्ञा पर आकर अड़ता है, सचमुच, उसके लिए उसे सब-कुछ देना पड़ता है। नहीं सदा भीषिका दौड़ती द्वार पाप का पाकर, दुःख भोगता कभी पुण्य को भी मनुष्य अपनाकर।
प्रण करना है सहज, कठिन है लेकिन, उसे निभाना, सबसे बड़ी जाँच है व्रत का अन्तिम मोल चुकाना। अन्तिम मूल्य न दिया अगर, तो और मूल्य देना क्या? करने लगे मोह प्राणों का-तो फिर प्रण लेना क्या?
ऋतु के बाद फलों का रुकना डालों का सड़ना है, मोह दिखाना देय वस्तु पर आत्मघात करना है। देते तरु इसलिए कि रेशों में मत कीट समायें, रहें डालियाँ स्वस्थ और फिर नये-नये फल आयें।
जो नर आत्मदान से अपना जीवन-घट भरता है, वही मृत्यु के मुख में भी पड़कर न कभी मरता है। जहाँ कहीं है ज्योति जगत् में, जहाँ कहीं उजियाला, वहाँ खड़ा है कोई अन्तिम मोल चुकानेवाला।
दान जगत् का प्रकृत धर्म है, मनुज व्यर्थ डरता है, एक रोज़ तो हमें स्वयं सब-कुछ देना पड़ता है।
“अरे, कौन है भिक्षु यहाँ पर? और कौन दाता है? अपना ही अधिकार मनुज नाना विधि से पाता है। कर पसार कर जब भी तुम मुझसे कुछ ले लेते हो, तृप्त भाव से हेर मुझे क्या चीज़ नहीं देते हो?
“ऐसा है तो मनुज-लोक, निश्चय, आदर पायेगा, स्वर्ग किसी दिन भीख माँगने मिट्टी पर आयेगा। किन्तु, भाग्य है बली, कौन किससे कितना पाता है, यह लेखा नर के ललाट में ही देखा जाता है।
कहा कर्ण ने, “वृथा भाग्य से आप डरे जाते हैं, जो है सम्मुख खड़ा, उसे पहचान नहीं पाते हैं। विधि ने था क्या लिखा भाग्य में, खूब जानता हूँ मैं, बाँहों को, पर, कहीं भाग्य से बली मानता हूँ मैं।
“आगे जिसकी नज़र नहीं, वह भला कहाँ जायेगा? अधिक नहीं चाहता, पुरुष वह कितना धन पायेगा? अच्छा, अब उपचार छोड़ बोलिये, आप क्या लेंगे, सत्य मानिये, जो माँगेंगे आप, वही हम देंगे।
“समझा, तो यह और न कोई, आप स्वयं सुरपति हैं, देने को आये प्रसन्न हो तप में नयी प्रगति हैं। धन्य हमारा सुयश आपको खींच मही पर लाया, स्वर्ग भीख माँगने आज, सच ही, मिट्टी पर आया।
“तनिक सोचिये, वीरों का यह योग्य समर क्या होगा? इस प्रकार से मुझे मार कर पार्थ अमर क्या होगा? एक बाज़ का पंख तोड़ कर करना अभय अपर को, सुर को शोभे भले, नीति यह नहीं शोभती नर को।
“और पार्थ यदि बिना लड़े ही जय के लिए विकल है, तो कहता हूँ, इस जय का भी एक उपाय सरल है। कहिये उसे, मोम की मेरी एक मूर्त्ति बनवाये, और काट कर उसे, जगत् में कर्णजयी कहलाये।
“फिर कहता हूँ, नहीं व्यर्थ राधेय यहाँ आया है, एक नया सन्देश विश्व के हित वह भी लाया है। स्यात्, उसे भी नया पाठ मनुजों को सिखलाना है, जीवन-जय के लिए कहीं कुछ करतब दिखलाना है।
“वह करतब है यह कि युद्ध में मारो और मरो तुम, पर, कुपन्थ में कभी जीत के लिए न पाँव धरो तुम। वह करतब है यह कि सत्य-पथ पर चाहे कट जाओ, विजय-तिलक के लिए करों में कालिख पर, न लगाओ।
“श्रम से नहीं विमुख होंगे जो दुख से नहीं डरेंगे, सुख के लिए पाप से जो नर सन्धि न कभी करेंगे। कर्ण-धर्म होगा धरती पर बलि से नहीं मुकरना, जीना जिस अप्रतिम तेज से, उसी शान से मरना।
“एक विनय है और, आप लौटें जब अमर भुवन को, दे दें यह सूचना सत्य के हित में, चतुरानन को। ‘उद्वेलित जिसके निमित्त पृथ्वीतल का जन-जन है, कुरुक्षेत्र में अभी शुरू भी हुआ नहीं वह रण है।
अपना कृत्य विचार, कर्ण का करतब देख निराला, देवराज का मुखमण्डल पड़ गया ग्लानि से काला। क्लिन्न कवच को लिये किसी चिन्ता में पगे हुए-से, ज्यों-के-त्यों रह गये इन्द्र जड़ता में ठगे हुए-से।
“तृण-सा विवश डूबता, उगता, बहता, उतराता हूँ, शील-सिन्धु की गहराई का पता नहीं पाता हूँ। धूम रहा मन-ही-मन लेकिन, मिलता नहीं किनारा, हुई परीक्षा पूर्ण, सत्य ही, नर जीता, सुर हारा।
“तू दानी, मैं कुटिल प्रवंचक, तू पवित्र, मैं पापी, तू देकर भी सुखी और मैं लेकर भी परितापी। तू पहुँचा है जहाँ कर्ण, देवत्व न जा सकता है, इस महान् पद को कोई मानव ही पा सकता है।
“अज्ञातशीलकुलता का विघ्न न माना, भुजबल को मैंने सदा भाग्य कर जाना। बाधाओं के ऊपर चढ़ धूम मचा कर, पाया सब-कुछ मैंने पौरुष को पाकर। “जन्मा लेकर अभिशाप, हुआ वरदानी, आया बनकर कंगाल, कहाया दानी। दे दिये मोल जो भी जीवन ने माँगे, सिर नहीं झुकाया कभी किसी के आगे।
सबकी पीड़ा के साथ व्यथा अपने मन की जो जोड़ सके, मुड़ सके जहाँ तक समय, उसे निर्दिष्ट दिशा में मोड़ सके। युगपुरुष वही सारे समाज का विहित धर्मगुरु होता है, सबके मन का जो अन्धकार अपने प्रकाश से धोता है।
औ’ जिस प्रकार हम आज बेल- बूटों के बीच खचित करके, देते हैं रण को रम्य रूप विप्लवी उमंगों में भरके; कहते, अनीतियों के विरुद्ध जो युद्ध जगत् में होता है, वह नहीं ज़हर का कोष, अमृत का बड़ा सलोना सोता है।
कुरुकुल का दीपित ताज गिरा, थक कर बूढ़ा जब बाज़ गिरा, भूलुठित पितामह को विलोक, छा गया समर में महा शोक। कुरुपति ही धैर्य न खोता था, अर्जुन का मन भी रोता था।
“आज्ञा हो तो अब धनुष धरूँ, रण में चलकर कुछ काम करूँ, देखूँ, है कौन प्रलय उतरा, जिससे डगमग हो रही धरा। कुरुपति को विजय दिलाऊँ मैं, या स्वयं वीरगति पाऊँ मैं।
“अब कहो, आज क्या होता है? किसका समाज यह रोता है? किसका गौरव, किसका सिंगार, जल रहा पंक्ति के आर-पार? किसका वन-बाग़ उजड़ता है? यह कौन मारता-मरता है?
“इसलिए, पुत्र! अब भी रुककर, मन में सोचो, यह महासमर, किस ओर तुम्हें ले जायेगा? फल अलभ कौन दे पायेगा? मानवता ही मिट जायेगी, फिर विजय सिद्धि क्या लायेगी?
“पार्थोपम रथी, धनुर्धारी, केशव-समान रणभट भारी, धर्मज्ञ, धीर, पावन-चरित्र, दीनों-दलितों के विहित मित्र, अर्जुन को मिले कृष्ण जैसे, तुम मिले कौरवों को वैसे।
“जय मिले बिना विश्राम नहीं, इस समय सन्धि का नाम नहीं, आशिष दीजिये, विजय कर रण, फिर देख सकूँ ये भव्य चरण; जलय़ान सिन्धु से तार सकूँ; सबको मैं पार उतार सकूँ।
“कल तक था पथ शान्ति का सुगम, पर, हुआ आज वह अति दुर्गम, अब उसे देख ललचाना क्या? पीछे को पाँव हठाना क्या? जय को कर लक्ष्य चलेंगे हम, अरि-दल का गर्व दलेंगे हम।
भीष्म का चरण-वन्दन करके, ऊपर सूर्य को नमन करके, देवता व्रज-धनुधारी सा, केसरी अभय मगचारी-सा, राधेय समर की ओर चला, करता गर्जन घनघोर चला,
सेना समग्र हुङ्कार उठी, ‘जय-जय राधेय!‘ पुकार उठी, उल्लास मुक्त हो छहर उठा, रण-जलधि घोष में घहर उठा, बज उठी समर-भेरी भीषण, हो गया शुरू संग्राम गहन।
सागर-सा गर्जित, क्षुभित घोर, विकराल दण्डधर-सा कठोर, अरिदल पर कुपित कर्ण टूटा, धनु पर चढ़ महामरण छूटा। ऐसी पहली ही आग चली, पाण्डव की सेना भाग चली।
“बड़वानल, यम या कालपवन, करते जब कभी कोप भीषण सारा सर्वस्व न लेते हैं, उच्छिष्ट छोड़ कुछ देते हैं। पर, इसे क्रोध जब आता है; कुछ भी न शेष रह पाता है।
जब बड़ा लक्ष्य हो खींच रहा, छोटी बातों का ध्यान करे?
जब लोभ सिद्धि का आँखों पर, माँड़ी बन कर छा जाता है तब वह मनुष्य से बड़े-बड़े दुश्चिन्त्य कृत्य करवाता है।