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सुन सहम उठा राधेय, मित्र की ओर फेर निज चकित नयन, झुक गया विवशता में कुरुपति का अपराधी, कातर आनन। मन-ही-मन बोला कर्ण, “पार्थ! तू वय का बड़ा बली निकला, या यह कि आज फिर एक बार, मेरा ही भाग्य छली निकला।”
मगर, यह कर्ण की जीवन-कथा है, नियति का, भाग्य का इङ्गित वृथा है। मुसीबत को नहीं जो झेल सकता, निराशा से नहीं जो खेल सकता, पुरुष क्या, श्रृङ्खला को तोड़ करके, चले आगे नहीं जो जोर करके?
“मही का सूर्य होना चाहता हूँ, विभा का तूर्य होना चाहता हूँ। समय को चाहता हूँ दास करना, अभय हो मृत्यु का उपहास करना।
“कवच-कुण्डल गया; पर, प्राण तो हैं, भुजा में शक्ति, धनु पर बाण तो हैं। गयी एकध्नि तो सब कुछ गया क्या? बचा मुझमें नहीं कुछ भी नया क्या?
‘प्रवंचित हूँ, नियति की दृष्टि में दोषी बड़ा हूँ, विधाता से किये विद्रोह जीवन में खड़ा हूँ। स्वयं भगवान् मेरे शत्रु को ले चल रहे हैं, अनेकों भाँति से गोविन्द मुझको छल रहे हैं।
“नरोचित धर्म से कुछ काम तो लो। बहुत खेले, ज़रा विश्राम तो लो। फँसे रथचक्र को जब तक निकालूँ, धनुष धारण करूँ, प्रहरण सँभालूँ, “रूको तब तक, चलाना बाण फिर तुम, हरण करनां, सको तो, प्राण फिर तुम। नहीं अर्जुन! शरण मैं माँगता हूँ, समर्थित धर्म से रण माँगता हूँ। “कलङ्कित नाम मत अपना करो तुम। हृदय में ध्यान इसका भी धरो तुम, विजय तन की घड़ी भर की दमक है। इसी संसार तक उसकी चमक है।
“चले वनवास को तब धर्म था वह, शकुनियों का नहीं अपकर्म था वह। अवधि का पूर्ण जब, लेकिन, फिरे वे, असल में, धर्म से ही थे गिरे वे।
“कहा जो आपने, सब कुछ सही है, मगर अपनी मुझे चिन्ता नहीं है। सुयोधन-हेतु ही पछता रहा हूँ, बिना विजयी बनाये जा रहा हूँ।
“सुयोधन पूत या अपवित्र ही था, प्रतापी वीर मेरा मित्र ही था। किया मैंने वही, सत्कर्म था जो, निभाया मित्रता का धर्म था जो।
“प्रभा-मण्डल! भरो झङ्कार, बोलो! जगत् की ज्योतियो! निज द्वार खोलो! तपस्या रोचिभूषित ला रहा हूँ, चढ़ा मैं रश्मि-रथ पर आ रहा हूँ।“
उठी कौन्तेय की जयकार रण में, मचा घनघोर हाहाकार रण में। सुयोधन बालकों-सा रो रहा था! खुशी से भीम पागल हो रहा था!
कहा, “केशव! बड़ा था त्रास मुझको, नहीं था यह कभी विश्वास मुझको, कि अर्जुन यह विपद् भी हर सकेगा, किसी दिन कर्ण रण में मर सकेगा।
“विजय क्या जानिये, बसती कहाँ है? विभा उसकी अजय हँसती कहाँ है? भरी वह जीत के हुङ्कार में है, छिपी अथवा लहू की धार में है?
“मगर, जो हो, मनुज सुवरिष्ठ था वह। धनुर्धर ही नहीं, धर्मिष्ठ था वह। तपस्वी, सत्यवादी था, व्रती था, बड़ा ब्रह्मण्य था, मन से यती था।