मैं खेद के साथ लिख रहा हूं कि ‘जो लरे दीन के
हेत’ के माध्यम से विमल को वो मुक्तकंठ प्रशंसा न प्राप्त हो सकी जो कि हार्पर
कॉलिंस से प्रकाशित मेरे पिछले उपन्यास ‘कोलाबा कांस्पीरेसी’ में जीतसिंह को हुई
थी । इसका ये मतलब हरगिज भी नहीं है कि पाठकों को विमल या उपन्यास नापसंद आया ।
उपन्यास बराबर पसंद आया लेकिन ये दो बड़ी शिकायत भी लगभग तमाम पाठकों को हुई:
1. उपन्यास में विमल मेहमान कलाकार लगा । 110
पृष्ठ तक तो उपन्यास में उसकी एंट्री तक नहीं हुई थी ।
2. उपन्यास एक ही जिल्द में सिमट गया जब कि अब
पाठकों को विम...
Published on October 09, 2014 02:16