साधारणता के नायकत्व का दुर्लभ प्रतिमान

ऐसी किस्मत कितने लोगों को मिलती है कि उनकी पहली ही फिल्म ”आखिरी खत” ऑस्कर के लिए नामांकित की गयी थी। क्या हमें नहीं मान लेना चाहिए कि अमिताभ का उदय राजेश खन्ना का अंत था और अब उनकी देह का अंत हुआ है। देह का अंत ज्यादा मायने नहीं रखता … कलाकार का जिंदा होना या मरना उसके काम से ही होता है। उनके किरदार और सिनेमा जिंदा रहेंगे, जैसे उनके सुपरस्टारडम के अंत के बाद भी अब तक जिंदा रहा है!!


पर्दे पर मोहक दिखता यह नायक कितने ही कथानकों में गुलशन नंदा (जिनके बेटे राहुल नंदा पब्लिसिटी डिजाइनर के तौर पर आज के नायकों की छवियों रचते हैं) के उपन्यासों से रचा गया था (जैसे कटी पतंग और दाग)। दबे छुपे जो बाहर आया है, उसके आधार पर कहना जरूरी है कि अराजक जीवन ने लाखों दिलों में रहने वाले नायक को केवल 69 साल की उम्र में छीन लिया … ऐसे नायक को क्या ये हक होता है कि कुछ फिल्मों की असफलता से टूटकर अपने चाहने वालों को भूलकर जीवन को अराजक बना दे? मेरी जिज्ञासा है कि वे पुरुष केंद्रित उद्योग में सितारों के चरम अराजक व्यवहार की परंपरा के सूत्रधार नहीं कहे जाने चाहिए क्या?

मुझ जैसे कितने ही लोगों की परवरिश दूरदर्शन पर शनिवार और रविवार को राजेश खन्ना की फिल्में देखकर हुई होगी और बेशक हमें उन फिल्मों का रिलीज होना और पर्दे पर देखना नसीब नहीं हुआ, पर मैंने उनकी जो एक मात्र फिल्म पर्दे पर देखी, वह थी – ”नजराना” (वो भी गुलशन नंदा की कहानी पर आधारित थी) और उसका एक गाना बहुत मशहूर हुआ था – ”मैं तेरा शहर छोड़ जाऊंगा” … वो अब जब ये दुनिया छोड़ गये हैं, याद तो वे आएंगे, बहुत आएंगे।

बेशक राजेश खन्ना ने लोकप्रियता का चरम देखा, पर मेरी राय है कि अभिनय के क्लासिक मापदंडों पर वे बहुत साधारण थे। महान उन्हें शायद ही कहा जा सकता है। इस लिहाज से साधारणता के नायकत्व का दुर्लभ प्रतिमान हैं राजेश खन्ना!

बार-बार कहा जाता है कि सिनेमा एक सामूहिक कला है। कौन असहमत होगा कि किशोर कुमार और आरडी बर्मन के बिना इस सुपर स्टार का आकार लेना मुमकिन ही नहीं था!! यानी जिन लोगों का साथ उन्हें मिला, उस लिहाज से भी वो किस्मत के शेर थे! और यह भी पुरजोर पुन: स्थापित होता है कि च्युत नायकत्व को भी सम्मान देना भारतीय परंपरा है।

जरूरी नहीं कि जीवन मूल्य किसी धर्म या परंपरा से आएं, पर वो किसी इनसान के जीवन में होने चाहिए। राजेश खन्ना के जीवन में एक ही मूल्य था – आभासी नायकत्व और उसे कायम रखना। यह ज्ञात और कुख्यात है कि घोर अराजक और विलासी जीवन राजेश खन्ना ने जिया है। क्या यह काला सच नहीं है कि वो अपने अहम और स्टारडम की कंदराओं से ताउम्र बाहर नहीं निकले। बाबू मोशाय को लेकर दिये बयान बताते हैं कि वे किस कदर आत्ममुग्ध थे, ईष्यालु थे, असहिष्णु थे। चाहे इसे गॉसिप और संघर्षशील अभिनेत्री का स्टंट कहकर खारिज कर दें, पर याद करना जरूरी है कि उन पर भी बलात्कार का आरोप लगा था और जिसे एक स्टार के मीडिया प्रबंधन के उदाहरण के तौर पर दबाने के किस्से मशहूर हैं।

ये सवाल प्राय: हमारा आधुनिक समाज व्यक्तिगत कहकर नहीं पूछेगा कि अंजू महेंद्रू से ब्रेकअप क्यों हुआ? क्यों डिंपल अलग हो गयीं? क्यों जीवन संध्या में उनकी अंतरग हुई महिला ने उनसे शादी नहीं की? पर्दे पर आदर्श रोमांटिक नायक जीवन में आदर्श प्रेमी नहीं बना, क्या समाजशास्त्रियों को नहीं सोचना चाहिए!!! ऐसे प्रेमिल परदाई नायक के लिए आहें भरने वाली, खून से खत लिखनेवाली, निर्जन स्थान पर खड़ी नायक की कार पर चुंबनों से प्रेम-कविता रचने वाली, डिंपल से विवाह पर आत्महत्या करने वाली लड़कियां अपने जीवन की प्रौढ़ अवस्था में अपनी आंखों की भीगती कौर के साथ सोचती होंगी – ”क्या वो ऐसे आभासी – कागजी नायक से प्रेम करती थी! कितना बेवकूफाना था – वो प्रेम या आकर्षण !!” यानी वास्तविक जीवन में राजेश खन्ना नहीं जानते थे कि सच्चा प्रेम रोमांस, जिम्मेदारी और प्रतिबद्धता का समेकित रूप है … या कहा जाए कि उनके लिए प्रेम रोमांस भर था!!

जब पूरा मीडिया एक फैन का सा व्यवहार कर रहा है, मेरी आपसे इल्तिजा है, मेरी टिप्पणी को मौत के बाद की गयी आलोचना नहीं, निष्पक्ष मूल्यांकन की एक कोशिश माना जाना चाहिए।
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Published on July 25, 2012 22:50
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