'सर्वकाले सर्वदेशे'
एक वेब पत्रिका के संपादक मित्र को कविता भेजी थी, उन्होंने इसे अपने यहां प्रकाशित करने लायक नहीं माना, उनके निर्णय का सम्मान करता हूं, लिहाजा बहुत दिनों बाद ब्लॉग पर एक कविता जारी की है, मुलाहिजा फरमाएं -
प्रेम को बचा लेना साधना है
अन्यथा उड जाएगा कपूर की तरह
प्रेम को सहेजना एक कला है- जीवन की जरूरी कलाओं में से एक !
वरना बेनूर हो जाएगा सारा का सारा वजूद
और अखिल चराचर जगत में विचरण भूत योनि में जैसे कई धर्मशास्त्र कहते हैं!
प्रेम की जरूरत कब होती है दैहिक फकत
प्रेम होता है जीना साथ - कभी खयालों में, कभी हकीकत में !
जीवन के अरण्य में प्रेम के पुष्प सायास नहीं उगते
वे खरपतवार की तरह होते हैं
और ऐसी खरपतवार जो सिखाती है - रंगों की पहचान और मौसमों की अहमियत !
प्रेम का कोई अर्थशास्त्र नहीं होता, सामाजिकी भी कोई नहीं
प्रेम की राजनीति सबसे विचित्र ज्ञान !
दो जिस्मों की आदिम अकुलाहट भर नहीं होता प्रेम!
प्रेम रहता है फिर भी अपरिभाषेय सर्वकाले सर्वदेशे !
प्रेम रहता है हमेशा केवल जीने के लिए
प्रेम को पाना और जी लेना कुदरत की वह नियामत है जो कुदरत अपने बहुत प्रिय प्राणियों को उपहार में देती है।
किसी नदी में बहते हुए आ जाता है पुष्पसमूह के मध्य कोई दीप
जुगनू भर आभा से चमकता है नदी का वह छोर- आत्म मुग्ध और आत्म संतुष्ट !
वायुवेगों की चंचलताओं के बीच बचा लेना उस दीप की वो अस्मिता
चुनौती स्वरूप उपस्थित होती है
कोई निर्धन माझी लगा सकता है अपना जीवन दांव पर उसके लिए
जिसके पास नहीं होता जीवन के सिवा कुछ भी दांव पर लगाने के लिए।
जीवन में अनंत दुसाध्य कष्टों के बावजूद
प्रेम को संभव बना लेना
रहेगा सबसे बडा कौशल और सबसे बडी विजय भी, तमाम पराजयों के साथ।
प्रेम किसी निर्जन मरूस्थल का वह छोर भी हो सकता है
जहां से आगे जीवन संभव ही नहीं होता।
किसी किसान के खेत में साप्ताहिक सिंचाई के ऐसे अवसर सा हो सकता है प्रेम
जो क्षण भर की किसी चूक से किसी और के खेत को सींच दे संपूर्ण !
प्रेम रहेगा जी लेने के लिए
फिर भी हर सदी, हर देश।
प्रेम को बचा लेना साधना है
अन्यथा उड जाएगा कपूर की तरह
प्रेम को सहेजना एक कला है- जीवन की जरूरी कलाओं में से एक !
वरना बेनूर हो जाएगा सारा का सारा वजूद
और अखिल चराचर जगत में विचरण भूत योनि में जैसे कई धर्मशास्त्र कहते हैं!
प्रेम की जरूरत कब होती है दैहिक फकत
प्रेम होता है जीना साथ - कभी खयालों में, कभी हकीकत में !
जीवन के अरण्य में प्रेम के पुष्प सायास नहीं उगते
वे खरपतवार की तरह होते हैं
और ऐसी खरपतवार जो सिखाती है - रंगों की पहचान और मौसमों की अहमियत !
प्रेम का कोई अर्थशास्त्र नहीं होता, सामाजिकी भी कोई नहीं
प्रेम की राजनीति सबसे विचित्र ज्ञान !
दो जिस्मों की आदिम अकुलाहट भर नहीं होता प्रेम!
प्रेम रहता है फिर भी अपरिभाषेय सर्वकाले सर्वदेशे !
प्रेम रहता है हमेशा केवल जीने के लिए
प्रेम को पाना और जी लेना कुदरत की वह नियामत है जो कुदरत अपने बहुत प्रिय प्राणियों को उपहार में देती है।
किसी नदी में बहते हुए आ जाता है पुष्पसमूह के मध्य कोई दीप
जुगनू भर आभा से चमकता है नदी का वह छोर- आत्म मुग्ध और आत्म संतुष्ट !
वायुवेगों की चंचलताओं के बीच बचा लेना उस दीप की वो अस्मिता
चुनौती स्वरूप उपस्थित होती है
कोई निर्धन माझी लगा सकता है अपना जीवन दांव पर उसके लिए
जिसके पास नहीं होता जीवन के सिवा कुछ भी दांव पर लगाने के लिए।
जीवन में अनंत दुसाध्य कष्टों के बावजूद

प्रेम को संभव बना लेना
रहेगा सबसे बडा कौशल और सबसे बडी विजय भी, तमाम पराजयों के साथ।
प्रेम किसी निर्जन मरूस्थल का वह छोर भी हो सकता है
जहां से आगे जीवन संभव ही नहीं होता।
किसी किसान के खेत में साप्ताहिक सिंचाई के ऐसे अवसर सा हो सकता है प्रेम
जो क्षण भर की किसी चूक से किसी और के खेत को सींच दे संपूर्ण !
प्रेम रहेगा जी लेने के लिए
फिर भी हर सदी, हर देश।
Published on October 10, 2012 21:48
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