Kumarasambhava of Kalidasa Quotes

Rate this book
Clear rating
Kumarasambhava of Kalidasa Kumarasambhava of Kalidasa by M.R. Kale
323 ratings, 4.18 average rating, 35 reviews
Kumarasambhava of Kalidasa Quotes Showing 1-30 of 53
“दो रथी आपस में एक-दूसरे को मारकर स्वर्ग जा पहुंचे और वहां फिर एक अप्सरा के लिए आपस में लड़ने लगे।”
Kālidāsa, Kumarsambhav (Sanskrit Classics)
“हठ से विवेकहीन लोगों को हित का उपदेश प्रिय नहीं लगता।”
Kālidāsa, Kumarsambhav (Sanskrit Classics)
“पेड़ों पर से स्वयं गिरे पत्तों को खाकर जीवन निर्वाह करना तप की सीमा समझी जाती है। परन्तु पार्वती ने स्वयं गिरे पेड़ों के पत्तों को खाना भी छोड़ दिया। इसीलिए बाद में मधुरभाषिणी पार्वती का नाम ‘अपर्णा’ पड़ गया।”
Kālidāsa, Kumarsambhav (Sanskrit Classics)
“जैसे अमृत और वज्र दोनों ही बादलों में रहते हैं, उसी प्रकार संयमी महापुरुषों के हृदय में क्रोध और दया दोनों का निवास होता है।”
Kālidāsa, Kumarsambhav (Sanskrit Classics)
“चांदनी चन्द्रमा के साथ ही चली जाती है और बिजली मेघ के साथ ही विलीन हो जाती है। इस बात को तो अचेतन पदार्थ भी समझते हैं कि स्त्रियों को पति के साथ ही जाना होता है।”
Kālidāsa, Kumarsambhav (Sanskrit Classics)
“अपकार के बदले में अपकार करने से ही दुर्जन शान्त हो सकता है, उपकार करने से नहीं।”
Kālidāsa, Kumarsambhav (Sanskrit Classics)
“यौवन के भार से अवनत पार्वती की गति ऐसी मनोहर थी, मानो वरण-नूपुर का वादन सीखने के बदले में राजहंसों ने पहले ही उसे अपनी विलासयुक्त गतियां सिखा दी हों।”
Kālidāsa, Kumarsambhav (Sanskrit Classics)
“जैसे उज्ज्वल शिखा से दीप, गंगा से स्वर्ग-मार्ग और विशुद्ध वाणी से विद्धान शोभित एवं पवित्र होता है, उसी प्रकार हिमालय उस कन्या से सुशोभित भी हुआ और पवित्र भी।”
Kālidāsa, Kumarsambhav (Sanskrit Classics)
“स्नेही बन्धु ‘पार्वती’ नाम से पुकारते थे। पर बाद में माता द्वारा तप का निषेध किए जाने से ‘उमा’ नाम पड़ गया।”
Kālidāsa, Kumarsambhav (Sanskrit Classics)
“रघुवंश में कालिदास ने यह प्रकट करने का यत्न किया है कि मानवजीवन तभी तक सुखी और समृद्ध रहता है, जबतक वह प्रकृति के घनिष्ठ सम्पर्क में रहता है। प्रकृति”
Kālidāsa, Kumarsambhav (Sanskrit Classics)
“कालिदास ने एक जगह लिखा है कि सुन्दरता वही है जो पल-पल में नया रूप धारण करती जाए।— “ क्षणे-क्षणे यन्नवतामुपैति तदेव रूप रमणीयताया:।” यह बात उनकी अपनी रचनाओं पर विशेष रूप से लागू होती है।”
Kālidāsa, Kumarsambhav (Sanskrit Classics)
“महाकाव्य के लिए संस्कृत आचार्यों ने उनमें निम्नलिखित बातों का होना आवश्यक माना है— महाकाव्य सर्गों में बंटा होना चाहिए। उसका एक नायक होना चाहिए, चाहे वह देवता हो अथवा कुलीन वंश में उत्पन्न क्षत्रिय हो। वह धीर और उदात्त गुणों से युक्त होना चाहिए या एक वंश में उत्पन्न हुए अनेक उच्च कुलीन राजा भी नायक हो सकते हैं। महाकाव्य में श्रृंगार, वीर या शान्त इनमें से एक रस प्रधान होना चाहिए। गौण रूप से इसमें सब रस और सब नाटक सन्धियां प्रयुक्त की जानी चाहिए। इसकी कथा इतिहासप्रसिद्ध होनी चाहिए अथवा किसी श्रेष्ठ व्यक्ति को आधार बनाकर कल्पित कथा भी लिखी जा सकती है। धर्म, अर्थ, काम, मोक्ष इनमें से किसी एक की प्राप्ति उस नाटक का फल होना चाहिए। प्रारम्भ में नमस्कार, आशीर्वाद अथवा कथावस्तु का उल्लेख होना चाहिए। बीच-बीच में कहीं-कहीं दुष्टों की निन्दा और सज्जनों की प्रशंसा होनी चाहिए। एक सर्ग में एक ही छन्द रहना चाहिए। सर्ग के अन्त में आनेवाली कथा का संकेत रहना चाहिए। महाकाव्य में सन्ध्याकाल, सूर्य, चन्द्रमा, रात्रि, ब्राह्ममुहूर्त, अन्धकार, दिन, प्रभात, दुपहरी, शिकार, पहाड़, ऋतु, वन और सागर का वर्णन होना चाहिए। संयोगश्रृंगार, और वियोगश्रृंगार, मुनियों, स्वर्ग नगर तथा यज्ञों का वर्णन होना चाहिए। युद्ध के लिए प्रस्थान, विवाह, वार्तालाप तथा पुत्र-जन्म इत्यादि का यथावसर सांगोपांग वर्णन होना चाहिए। महाकाव्य का नाम कवि के नाम पर, कथा के नाम पर, नायक के नाम पर अथवा अन्य किसी व्यक्ति के नाम पर रखा जाना चाहिए और प्रत्येक सर्ग का नाम उस सर्ग में वर्णित कथा के अनुसार रखा जाना चाहिए। संस्कृत आचार्यों के अनुसार किसी भी काव्य को महाकाव्य तभी माना जाएगा जब उसमें ये लक्षण पाए जाएंगे। इन लक्षणों की दृष्टि से विचार करने पर कुमारसम्भव महाकाव्य सिद्ध होता है। इसमें मुख्य रस श्रृंगार है। महादेव इससे नायक हैं। इसकी कथावस्तु इतिहास प्रसिद्ध है। इसमें आठ से अधिक सर्ग हैं। प्रत्येक सर्ग के अन्त में आगे आनेवाली कथावस्तु की सूचना मिल जाती है। इसमें पर्वत, ऋतु, विवाह, संध्या, सूर्यास्त, रात्रि इत्यादि के सुन्दर और विस्तृत वर्णन हैं। निस्सन्देह कुमारसम्भव महाकाव्य है।”
Kālidāsa, Kumarsambhav (Sanskrit Classics)
“अटूट निर्मल प्रवाहवाली और समुद्र की लहरों तक बहती चली जानेवाली तुम्हारी नदियां सब लोकों को पवित्र करती हैं, सब जगह तुम्हारी कीर्ति फैलाती हैं। “जिस प्रकार गंगा का आदर विष्णु के चरण से निकलने के कारण किया जाता है, उसी प्रकार ऊंचे शिखरों से निकलने के कारण भी उसका आदर होता है।”
Kālidāsa, Kumarsambhav (Sanskrit Classics)
“तुम्हारे शिखर और तुम्हारा हृदय दोनों एक समान ही ऊंचे हैं। “तुम्हें जो स्थावर रूप विष्णु कहा जाता है, वह ठीक ही कहा जाता है। क्योंकि तुमने चर-अचर सब प्राणियों को अपनी गोद में स्थान दिया हुआ है।”
Kālidāsa, Kumarsambhav (Sanskrit Classics)
“आप जैसे तेजस्वी महात्माओं के दर्शन से केवल मेरी गुफाओं में भरा अंधकार ही नष्ट हो गया, परन्तु मेरे हृदय में विद्यमान रजोगुण से आगे का तमोगुण भी नष्ट हो गया है।”
Kālidāsa, Kumarsambhav (Sanskrit Classics)
“सूर्य भी जब इन सप्तर्षियों के पास से गुजरता है तो वह अपने घोड़ों को नीचे ही खड़ा कर देता है। फिर अपने रथ की ध्वजा उतारकर विनयपूर्वक ऊपर की ओर देखता हुआ इन ऋषियों को प्रणाम किया करता है।”
Kālidāsa, Kumarsambhav (Sanskrit Classics)
“आप जिसके चित्त में विद्यमान हों, वही व्यक्ति सबसे अधिक भाग्यशाली है। फिर उस व्यक्ति के सौभाग्य का तो कहना ही क्या, जिसका आपने स्मरण किया हो!”
Kālidāsa, Kumarsambhav (Sanskrit Classics)
“महादेव ने उन सबको बिना किसी भेदभाव के एक ही दृष्टि से देखा, क्योंकि महात्मा लोग स्त्री और पुरुष का बहुत भेद नहीं करते। वे तो उनके चरित्र को ही महत्व देते हैं। अरुन्धती को देखकर महादेव का विवाह के प्रति आग्रह और भी बढ़ गया, क्योंकि सब धार्मिक क्रियाओं का मूल कारण अच्छी पत्नियां ही होती हैं।”
Kālidāsa, Kumarsambhav (Sanskrit Classics)
“अच्छा, इस विवाद को समाप्त करो। जैसा तुमने सुना है, मान लिया कि वे बिलकुल वैसे ही हैं; परन्तु मेरा मन तो उन्हीं में रमा हुआ है। और प्रेम दोषों को नहीं देखा करता।”
Kālidāsa, Kumarsambhav (Sanskrit Classics)
“सखी के द्वारा सन्देश कहलवाकर पार्वती अपने प्रिय महादेव के प्रेम में उसी प्रकार मग्न हो गई, जैसे आम्रवृक्ष की डाल को कोयला के द्वारा वसन्त के पास सन्देश भिजवाकर खिल उठती है।”
Kālidāsa, Kumarsambhav (Sanskrit Classics)
“जब कभी ये अपने वाष्प-गद्‌गद कंठ से महादेव के गुणों के गीत गाने लगतीं, तो वे ऐसे हृदयद्रावक होते थे कि अनेक बार इनकी वन-संगीत की सखियां किन्नर राजकुमारियां भी रोने लगती थीं।”
Kālidāsa, Kumarsambhav (Sanskrit Classics)
“महादेव को पति रूप में प्राप्त करना चाहती हैं, जिन्हें अब कामदेव को नष्ट हो जाने के कारण अपने सौन्दर्य द्वारा मुग्ध नहीं किया जा सकता।”
Kālidāsa, Kumarsambhav (Sanskrit Classics)
“यदि तुम्हें स्वर्ग जाने की इच्छा है, तो यह तपस्या का श्रम तुम व्यर्थ ही कर कर रही हो, क्योंकि तुम्हारे पिता का देश ही देवताओं का निवासस्थान स्वर्ग है और यदि तुम यह तपस्या पति पाने की कामना से कर रही हो तो भी यह व्यर्थ है, क्योंकि रत्न किसी ग्राहक को नहीं ढूंढ़ता फिरता, बल्कि रत्न को स्वयं ही ढूंढ़ा जाता है।”
Kālidāsa, Kumarsambhav (Sanskrit Classics)
“हे पार्वती, यह जो कहा जाता है कि सुन्दर रूप पाप-कर्म की ओर प्रवृत्त नहीं होता, वह ठीक ही है; क्योंकि सुन्दरी, तुम्हारा सदाचरण बड़े-बडे तपस्वियों के लिए भी आदर्श बन गया है।”
Kālidāsa, Kumarsambhav (Sanskrit Classics)
“पार्वती लज्जा से जड़-सी हो गई। उसके उन्नत मस्तक पिता की इच्छा और उसका अपना सौंदर्य, दोनों ही असफल हुए।”
Kālidāsa, Kumarsambhav (Sanskrit Classics)
“आप स्वयं ध्यान लगानेवाले हैं और आपका ही ध्यान भी लगाया जाता है।”
Kālidāsa, Kumarsambhav (Sanskrit Classics)
“उज्ज्वल शिखा से दीप, गंगा से स्वर्ग-मार्ग और विशुद्ध वाणी से विद्धान शोभित एवं पवित्र होता है, उसी प्रकार हिमालय उस कन्या से सुशोभित भी हुआ और पवित्र भी।”
Kālidāsa, Kumarsambhav (Sanskrit Classics)
“योगी लोग अपने यम, नियम आदि व्रतों से सांसारिक विषयों को नष्ट कर देते हैं।”
Kālidāsa, Kumarsambhav (Sanskrit Classics)
“त्रिलोक द्वारा पूजित महादेव ने हिमालय को प्रणाम किया तो हिमालय को इतनी लज्जा आई कि उसे यह पता भी नहीं चला कि महादेव की महिमा के सम्मुख उसका अपना सिर पहले ही झुक गया था।”
Kālidāsa, Kumarsambhav (Sanskrit Classics)
“अन्त में वे सब उस सुन्दर प्रासाद में पहुंचे, जहां कल्पवृक्ष स्वाभाविक बन्दनवार बनकर खड़ा था। सब ओर पारिजात के फूल बिखरे हुए थे।”
Kālidāsa, Kumarsambhav (Sanskrit Classics)

« previous 1