कंकाल Quotes

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कंकाल कंकाल by जयशंकर प्रसाद
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कंकाल Quotes Showing 1-30 of 92
“मृत्यु जब तक कल्पना की वस्तु रहती है, तब तक चाहे उसका जितना प्रत्याख्यान कर लिया जाय; परन्तु यदि वह सामने हो?”
जयशंकर प्रसाद, कंकाल
“भगवान् क्षमा करते हैं। मनुष्य भूलें करता है, इसका रहस्य है मनुष्य का परिमित ज्ञानाभास। सत्य इतना विराट् है कि हम क्षुद्र जीव व्यावहारिक रूप में उसे सम्पूर्ण ग्रहण करने में प्राय: असमर्थ प्रमाणित होते हैं। जिन्हें हम परम्परागत संस्कारों के प्रकाश में कलंकमय देखते हैं, वे ही शुद्ध ज्ञान में यदि सत्य ठहरें, तो मुझे आश्चर्य न होगा।”
जयशंकर प्रसाद, कंकाल
“हृदय की प्यास—ओफ! कितनी भीषण है—वह अनन्त तृष्णा!—संसार के कितने ही कीचड़ों पर लहराने वाली जल की पतली तहों में शूकरों की तरह लोट चुकी हैं! पर, लोहार की तपाई हुई छुरी जैसे सान रखने के लिए बुझाई जाती हो, वैसे ही मेरी प्यास बुझकर भी तीखी होती है।”
जयशंकर प्रसाद, कंकाल
“सीता-निर्वासन एक इतिहास-विश्रुत महान् सामाजिक अत्याचार है, और ऐसे अत्याचार अपनी दुर्बल संगिनी स्त्रियों पर प्रत्येक जाति के पुरुषों ने किया है। किसी-किसी समाज में तो पाप के मूल में स्त्री का ही उल्लेख है, और पुरुष निष्पाप है। यह भ्रान्त मनोवृत्ति अनेक सामाजिक व्यवस्थाओं के भीतर काम कर रही है। रामायण भी केवल राक्षस-वध का इतिहास नहीं है, किन्तु नारी-निर्यातन का सजीव इतिहास लिखकर वाल्मीकि ने स्त्रियों के अधिकार की घोषणा की है। रामायण में समाज के दो दृष्टिकोण हैं—निन्दक और वाल्मीकि के। दोनों निर्धन थे, एक बड़ा भारी अपकार कर सकता था और दूसरा एक पीड़ित आर्यललना की सेवा कर सका था। कहना न होगा कि उस युद्ध में कौन विजयी हुआ! सच्चे तपस्वी ब्राह्मण वाल्मीकि की विभूति संसार में आज भी महान् है। आज भी उस निन्दक को गाली मिलती है, परन्तु देखिए तो, आवश्यकता पड़ने पर हम-आप और निन्दकों से ऊँचे हो सकते हैं? आज भी तो समाज वैसे ही लोगों से भरा पड़ा है—जो स्वयं मलिन रहने पर भी दूसरों की स्वच्छता को अपनी जीविका का साधन बनाये है।”
जयशंकर प्रसाद, कंकाल
“लोकापवाद से भयभीत होकर स्वभाव को पाप कहकर मान लेना, एक प्राचीन रूढ़ि है। समाज को सुरक्षित रखने के लिए उससे संगठन में स्वाभाविक मनोवृत्तियों की सत्ता स्वीकार करनी होगी। सब के लिए एक पथ देना होगा। समस्त प्राकृतिक आकांक्षाओं की पूर्ति आपके आदर्श में होनी चाहिए। केवल—‘रास्ता बन्द है!’—कह देने से काम न चलेगा। लोकापवाद—संसार का एक भय है, एक महान् अत्याचार है। आप लोग जानते होंगे कि श्रीरामचन्द्र ने भी—लोकापवाद के सामने सिर झुका लिया।”
जयशंकर प्रसाद, कंकाल
“बहु-परिचारिणी जाबाला के पुत्र सत्यकाम को कुल-पति ने ब्राह्मण स्वीकार किया था; किन्तु उत्पत्ति, पतन और दुर्बलताओं के व्यंग्य से मैं घबराता नहीं।”
जयशंकर प्रसाद, कंकाल
“स्त्री, जल-सदृश कोमल एवं अधिक-से-अधिक निरीह है। बाधा देने की सामर्थ्य नहीं; तब भी उसमें एक धारा है, एक गति है, पत्थरों की रुकावट की भी उपेक्षा कर के कतराकर वह चली ही जाती है। अपनी सन्धि खोज ही लेती है, और सब उसके लिए पथ छोड़ देते हैं, सब झुकते हैं; सब लोहा मानते हैं।”
जयशंकर प्रसाद, कंकाल
“स्त्री वय के हिसाब से सदैव शिशु, कर्म में वयस्क और अपनी असहायता में निरीह है। विधाता का ऐसा ही विधान है।”
जयशंकर प्रसाद, कंकाल
“सब सुख सब के पास एक साथ नहीं आते, नहीं तो विधाता को सुख बाँटने में बड़ी बाधा उपस्थित हो जाती!”
जयशंकर प्रसाद, कंकाल
“कोहनूर का सीसफूल गजमुक्ताओं की एकावली बिना अधूरा है,”
जयशंकर प्रसाद, कंकाल
“कंगाल को सोने से नहला दिया; पर उसका कोई तत्काल फल न हुआ—मैं समझता हूँ वह सुखी न हो सकी। सोने की परिभाषा कदाचित् सबके लिए भिन्न-भिन्न हो! कवि कहते हैं—सेवेरे की किरणें सुनहली हैं, राजनीति-विशारद्—सुन्दर राज्य को, सुनहला शासन कहते हैं। प्रणयी यौवन में सुनहरा पानी देखते हैं, और माता अपने बच्चे के सुनहले बालों के गुच्छों पर सोना लुटा देती है। यह कठोर, निर्दय, प्राणहारी पीला सोना ही तो सोना नहीं है।”
जयशंकर प्रसाद, कंकाल
“वेशभूषा में कोई विशेषता नहीं; परन्तु परिष्कार था। उसके पास कुछ नहीं था—वसन, अलंकार या भादों की भरी हुई नदी-सा यौवन। कुछ नहीं, थीं केवल दो-तीन कलामयी मुख-रेखाएँ—जो आगामी सौन्दर्य की बाह्य रेखाएँ थीं, जिनमें यौवन का रंग भरना कामदेव ने अभी बाकी रख छोड़ा था। कई दिन का पहना हुआ वसन भी मलिन हो चला था; पर कौमार्य में उज्ज्वलता थी। और यह क्या!—सूखे कपोलों में दो-दो तीन-तीन लाल मुँहासे। तारुण्य जैसे अभिव्यक्ति का भूखा था, ‘अभाव-अभाव’! ‘—कहकर जैसे कोई उसकी सुरमई आँखों में पुकार उठता था।”
जयशंकर प्रसाद, कंकाल
“कुछ नहीं, थीं केवल दो-तीन कलामयी मुख-रेखाएँ—जो आगामी सौन्दर्य की बाह्य रेखाएँ थीं, जिनमें यौवन का रंग भरना कामदेव ने अभी बाकी रख छोड़ा था। कई दिन का पहना हुआ वसन भी मलिन हो चला था; पर कौमार्य में उज्ज्वलता थी। और यह क्या!—सूखे कपोलों में दो-दो तीन-तीन लाल मुँहासे। तारुण्य जैसे अभिव्यक्ति का भूखा था, ‘अभाव-अभाव’! ‘—कहकर जैसे कोई उसकी सुरमई आँखों में पुकार उठता था।”
जयशंकर प्रसाद, कंकाल
“मैं पूछता हूँ कि हृदय में जितनी मधुरिमा है, कोमलता है, वह सब क्या केवल एक तरुणी सुन्दरता की उपासना की सामग्री है? इसका और कोई उपयोग नहीं? हँसने के जो उपकरण हैं, वे किसी झलमले अंचल में ही अपना मुँह छिपाए किसी आशीर्वाद की आशा में पड़े रहते हैं? संसार में स्त्रियों का क्या इतना व्यापक अधिकार है?”
जयशंकर प्रसाद, कंकाल
“हम लोग डाकू हैं, हम लोगों को माया-ममता नहीं! परन्तु हमारी निर्दयता भी अपना निर्दिष्ट पथ रखती है, वह है केवल धन लेने के लिए। भेद यही है कि धन लेने का दूसरा उपाय हम लोग काम में नहीं लाते, दूसरे उपायों को हम लोग अधम समझते हैं—धोखा देना, चोरी करना, विश्वासघात करना, यह सब जो तुम्हारे नगरों के सभ्य मनुष्यों की जीविका के सुगम उपाय हैं, हम लोग उनसे घृणा करते हैं।”
जयशंकर प्रसाद, कंकाल
“यह ब्रज की सीमा के भीतर है। यहाँ चाँदनी रात में बाँसुरी बजाने से गोपियों की आत्माएँ, मचल उठती हैं।”
जयशंकर प्रसाद, कंकाल
“बरसात से धुला हुआ जंगल अपनी गम्भीरता में डूब रहा था।”
जयशंकर प्रसाद, कंकाल
“सदैव प्रस्तुत रहो’ का महामन्त्र मेरे जीवन का रहस्य है—दुःख के लिए, सुख के लिए, जीवन के लिए और मरण के लिए! उसमें शिथिलता न आनी चाहिए! विपत्तियाँ वायु की तरह निकल जाती हैं; सुख के दिन प्रकाश के सदृश पश्चिमी समुद्र में भागते रहते हैं। समय काटना होगा, बिताना होगा, और यह ध्रुव-सत्य है कि दोनों का अन्त है।”
जयशंकर प्रसाद, कंकाल
“संसार अपने-अपने सुख की कल्पना पर खड़ा है—यह भीषण संसार अपनी स्वप्न की मधुरिमा से स्वर्ग है।”
जयशंकर प्रसाद, कंकाल
“स्त्रियों को भरना पड़ता है। तब, इधर-उधर देखने से क्या! ‘भरना है’—यही सत्य है, उसे दिखावे के आदर से ब्याह करके भरा लो या व्यभिचार कहकर तिरस्कार से।”
जयशंकर प्रसाद, कंकाल
“जहाँ अन्ध-अनुसरण करने का आदेश है, वहाँ प्राकृतिक, स्त्री-जनोचित प्यार कर लेने का जो हमारा नैसर्गिक अधिकार है—जैसा कि घटनावश प्राय: किया करती हैं—उसे क्यों छोड़ दूँ!”
जयशंकर प्रसाद, कंकाल
“संसार में पाप से उतना डर नहीं, जितना जनरव से!”
जयशंकर प्रसाद, कंकाल
“मैंने पुरुषोत्तम की प्रारम्भिक जीवनी सुनाई थी, आज सुनाऊँगा उनका सन्देश। उनका सन्देश था—आत्मा की स्वतन्त्रता का, साम्य का, कर्मयोग का और बुद्धिवाद का। आज हम धर्म के जिस ढाँचे को—शव को—घेर कर रो रहे हैं, वह उनका धर्म नहीं था। धर्म को वे बड़ी दूर की पवित्र या डरने की वस्तु नहीं बतलाते थे। उन्होंने स्वर्ग का लालच छोड़कर रूढ़ियों के धर्म को पाप कहकर घोषणा की। उन्होंने जीवनमुक्त होने का प्रचार किया। निःस्वार्थ भाव से कर्म की महत्ता बताई और उदाहरणों से भी उसे सिद्ध किया। राजा नहीं थे; पर अनायास ही वे महाभारत के सम्राट् हो सकते थे, पर हुए नहीं। सौन्दर्य, बल, विद्या, वैभव, महत्ता, त्याग कोई भी ऐसे पदार्थ नहीं थे, जो उन्हें अप्राप्य रहे हों। वे पूर्णकाम होने पर भी समाज के एक तटस्थ उपकारी रहे। जंगल के कोने में बैठकर उन्होंने धर्म का उपदेश काषाय ओढ़कर नहीं दिया; वे जीवन-युद्ध के सारथी थे। उसकी उपासना-प्रणाली थी—किसी भी प्रकार चिन्ता का अभाव होकर अन्तःकरण का निर्मल हो जाना, विकल्प और संकल्प में शुद्ध-बुद्धि की शरण जानकर कर्त्तव्य निश्चय करना। कर्म-कुशलता उसका योग है। निष्काम कर्म करना शान्ति है। जीवन-मरण में निर्भय रहना, लोक-सेवा करते रहना, उनका सन्देश है। वे आर्य संस्कृति के शुद्ध भारतीय संस्करण हैं।”
जयशंकर प्रसाद, कंकाल
“तस्मान्नो द्विजते लोको लोकान्नोद्विजते च य: जो लोक से न घबराये और जिससे लोक न उद्विग्न हो, वही पुरुषोत्तम का प्रिय मानव है, जो सृष्टि को सफल बनाता है।”
जयशंकर प्रसाद, कंकाल
“गोपाल ने ब्रज छोड़ दिया। यही ब्रज है। अत्याचारियों की नृशंसता से यदुकुल के अभिजात-वर्ग ने ब्रज को सुना कर दिया। पिछले दिनों में, ब्रज में बसी हुई पशुपालन करने वाली गोपियाँ-जिनके साथ गोपाल खेले थे, जिनके सुख को सुख और दुःख को दुःख समझा, जिनके साथ जिये, बड़े हुए, जिनके पशुओं के साथ वे कड़ी धूप में घनी अमराइयों में, करील के कुंजों में विश्राम करते थे—वे गोपियाँ, वे भोली-भाली सरल हृदय अकपट स्नेह वाली गोपियाँ, रक्त-माँस के हृदय वाली गोपियाँ—जिनके हृदय में दया थी, माया-ममता थी, आशा थी, विश्वास था, प्रेम का आदान-प्रदान था,—इसी यमुना के कछारों में वृक्षों के नीचे, वसन्त की चाँदनी में, जेठ की धूप में छाँह लेती हुई, गोरस बेंचकर लौटती हुई, गोपाल की कहानियाँ कहतीं। निर्वासित गोपाल की सहानुभूति से, उस क्रीड़ा के स्मरण से, उन प्रकाशपूर्ण आँखों की ज्योति से, गोपियों की स्मृति इन्द्र-धनुष सी रँग जाती। वे कहानियाँ प्रेम से अतिरंजित थीं, स्नेह से परिलुप्त थीं, आदर से आर्द्र थीं, सबको मिलाकर उनमें एक आत्मीयता थी—हृदय की वेदना थी, आँखों का आँसू था! उन्हीं को सुनकर, इस छोड़े हुए ब्रज में उसी दुःख-सुख के अतीत सहानुभूति से लिपटी हुई कहानियों को सुनकर आज भी हम-तुम आँसू बहा देते हैं! क्यों? वे प्रेम करके, प्रेम सिखलाकर, निर्मम स्वार्थ पर हृदयों में मानव-प्रेम को विकसित करके, ब्रज को छोड़कर चले गये—चिरकाल के लिए। बाल्यकाल की लीलाभूमि ब्रज का आज भी इसीलिए गौरव है। यह वही ब्रज है। वही यमुना का किनारा है! कहते-कहते गोस्वामी की आँखों से अविरल अश्रुधारा बहने लगी।”
जयशंकर प्रसाद, कंकाल
“भगवान् दुखियों से अत्यन्त स्नेह करते हैं। दुःख भगवान् का सात्विक दान है—मंगलमय उपहार है। इसे पाकर एक बार अन्तःकरण के सच्चे स्वर से पुकारने का, सुख अनुभव करने का अभ्यास करो।”
जयशंकर प्रसाद, कंकाल
“नियति ने इस अन्धे को तुम्हारे पास तक पहुँचा दिया। क्या वही तुमको—आँखोंवाली को—तुम्हारे पुत्र तक न पहुँचा देगा?”
जयशंकर प्रसाद, कंकाल
“वरदान के समान शीतल, शान्तिपूर्ण था। हृदय की आकांक्षा के सदृश गर्म। मलय-पवन के समान कोमल सुखद स्पर्श। वह मेरी निधि, मेरा सर्वस्व था!”
जयशंकर प्रसाद, कंकाल
“कलेजा रोने लगता है, हृदय कचोटने लगता है, आँखें छटपटाकर उसे देखने के लिए बाहर निकलने लगती हैं, उत्कण्ठा साँस बनकर दौड़ने लगती है। पुत्र का स्नेह, बड़ा पागल स्नेह है, विजय! स्त्रियाँ ही स्नेह की विचारक हैं। पति के प्रेम और पुत्र के स्नेह में क्या अन्तर है, यह उनको ही विदित है। अहा, तुम निष्ठुर लड़के क्या जानोगे! लौट जाओ मेरे बच्चे! अपनी माँ की सूनी गोद में लौट जाओ।”
जयशंकर प्रसाद, कंकाल
“मैं अपने कर्मफल को सहन करने के लिए वज्र के समान सबल, कठोर हूँ। अपनी दुर्बलता के लिए कृतज्ञता का बोझ लेना मेरी नियति ने मुझे नहीं सिखाया। मैं भगवान् से यही प्रार्थना करती हूँ कि, यदि तेरी इच्छा पूर्ण हो गई, इस हाड़—मांस में इस चेतना को रखने के दण्ड की अवधि पूरी हो गई, तो एक बार हँस दे कि मैंने तुझे उत्पन्न करके भर पाया। —कहते-कहते सरला के मुख पर एक अलौकिक आत्म-विश्वास, एक सतेज दीप्ति नाच उठी। उसके देखकर पादरी भी चुप हो गया।”
जयशंकर प्रसाद, कंकाल

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