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जयशंकर प्रसाद

“वेशभूषा में कोई विशेषता नहीं; परन्तु परिष्कार था। उसके पास कुछ नहीं था—वसन, अलंकार या भादों की भरी हुई नदी-सा यौवन। कुछ नहीं, थीं केवल दो-तीन कलामयी मुख-रेखाएँ—जो आगामी सौन्दर्य की बाह्य रेखाएँ थीं, जिनमें यौवन का रंग भरना कामदेव ने अभी बाकी रख छोड़ा था। कई दिन का पहना हुआ वसन भी मलिन हो चला था; पर कौमार्य में उज्ज्वलता थी। और यह क्या!—सूखे कपोलों में दो-दो तीन-तीन लाल मुँहासे। तारुण्य जैसे अभिव्यक्ति का भूखा था, ‘अभाव-अभाव’! ‘—कहकर जैसे कोई उसकी सुरमई आँखों में पुकार उठता था।”

जयशंकर प्रसाद, कंकाल
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