Shiva To Shankara Quotes

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Shiva To Shankara: Decoding The Phallic Symbol Shiva To Shankara: Decoding The Phallic Symbol by Devdutt Pattanaik
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Shiva To Shankara Quotes Showing 1-13 of 13
“वह कर्म-योग और ज्ञान-योग को जोड़ देती है। हृदय मस्तिष्क को पदार्थ से जोड़ने में सफल हो जाता है।”
Devdutt Pattanaik, Shiv Se Shankar Tak
“पुराकथाओं में अप्सराओं की बड़ी भूमिका रही है। इस शब्द का मूल अप्स यानी जल में है। वे रस का साकार रूप हैं। वे तप से ऊर्जा खींच कर, उसे संसार की तरफ़ प्रवाहित करके दुनिया का कार्य-व्यापार जारी रखती हैं। इस तरह अप्सराएँ वह जल हैं जो तप की अग्नि को बुझा देता है।”
Devdutt Pattanaik, Shiv Se Shankar Tak
“भ्रान्तियों का साकार रूप। वह शक्ति भी थी—वह ऊर्जा—जिसका रूप देखने वाले की दृष्टि से निर्धारित होता था। वह प्रकृति थी—कुदरत—व्यक्ति का संसार। वह सरस्वती थी—ज्ञान और विद्या का माध्यम—और इसके साथ ही वह लक्ष्मी थी—पोषण का स्रोत।”
Devdutt Pattanaik, Shiv Se Shankar Tak
“जैसे शिव बाहरी जगत के रस को ग्रहण कर अन्दर की अग्नि प्रज्वलित करते थे, बाहरी जगत भी शिव से ऊर्जा प्राप्त कर अपने आप को बनाये रख सकता था।”
Devdutt Pattanaik, Shiv Se Shankar Tak
“देवता पृथ्वी की समृद्धि को मुका करके वितरित कर सकते थे, उनके पास उसके खर्च हो जाने के बाद उसे फिर से उत्पन्न करने की शक्ति नहीं थी। यह शक्ति असुरों के पास ही थी। असुरों को वह विधि मालूम थी जिससे मृतकों को फिर से जीवित किया जा सकता था। वे पृथ्वी को फिर से नया जीवन प्रदान करके उसकी उर्वरता उसे वापस दिला सकते थे। वे धरती के नीचे मौजूद पानी और खनिजों के भण्डारों को फिर से परिपूर्ण कर सकते थे। इसका श्रेय असुरों के गुरु शुक्राचार्य को जाता था, जिनके पास फिर से नया करने की संजीवनी नामक विद्या थी। शुक्राचार्य ने यह संजीवनी विद्या स्वयं शिव से प्राप्त की थी।”
Devdutt Pattanaik, Shiv Se Shankar Tak
“अनादि, यानी ‘आरम्भ से पहले।’ के काल में एक चैतन्य प्राणी अवश्य है—विष्णु। लेकिन वे स्वप्नरहित निद्रा में लीन हैं—खुद अपने और अपने चारों ओर के परिवेश से अनभिज्ञ। यह अनभिज्ञता हिन्दू विश्व-दृष्टि में ‘अनस्तित्व’ है, अप्रासंगिकता का काल, ऐसा समय जिसे प्रलय या विघटन कहते हैं, जब दर्शक और दृश्य, दोनों निराकार हैं, जैसे प्रशान्त ‘क्षीर सागर।’ कुल मिलाकर जो रहता है, वह शायद समय या काल है, जिसका प्रतीक-रूप है कुण्डली मारता और खोलता सर्प।”
Devdutt Pattanaik, Shiv Se Shankar Tak
“हिन्दू प्रतीक-योजना में पुरुष रूपों को जीवन की अमूर्त आन्तरिक वास्तविकताओं को चित्रित करने के लिए इस्तेमाल किया गया है, जबकि स्त्री रूपों को जीवन की मूर्त, बाहरी सच्चाइयों के चित्रण के लिए।”
Devdutt Pattanaik, Shiv Se Shankar Tak
“दक्ष ने अपना यज्ञ सम्पन्न किया और देवताओं को शक्ति प्रदान की जिससे जीवनचक्र एक बार फिर गतिशील हो सके। इस बार कर्मकाण्ड के अन्त में शिव को भी आहुति अर्पित की गयी। शिव ने अपने कुत्तों को उसे खाने की छूट दे दी। वे बस संसार से विमुख होकर एक गुफ़ा में जा बैठे”
Devdutt Pattanaik, Shiv Se Shankar Tak
“राख को आगे और नष्ट नहीं किया जा सकता। राख या भस्म, इस तरह, आत्मा का प्रतीक है,”
Devdutt Pattanaik, Shiv Se Shankar Tak
“सहज क्रिया के वशीभूत होकर वीर्यपात करने की बजाय मस्तिष्क उत्तेजना पर मनन करता है”
Devdutt Pattanaik, Shiv Se Shankar Tak
“जैसे पुरुष वीर्य के प्रवाह पर नियन्त्रण रख सकता है, वैसे ही हर व्यक्ति—पुरुष या स्त्री—चारों तरफ़ की दुनिया से अपनी क्रिया-प्रतिक्रिया का स्वरूप नियन्त्रित कर सकता/सकती है। इस रूपक को स्वीकार करते ही निष्क्रिय, ऊर्ध्वलिंगी शिव उस व्यक्ति में बदल जाते हैं, जिसने सारी सांसारिक कामनाएँ जीत ली हैं, जो वीर्य के उलटे प्रवाह से द्योतित होता है, और जिसने आत्म-बोध और आत्म-निर्भरता का, सत-चित्त-आनन्द का, आत्म-चेतस लिंग का, वह लक्ष्य पा लिया है जिसकी कामना सभी करते हैं।”
Devdutt Pattanaik, Shiv Se Shankar Tak
“दक्ष प्रजापति का अभिवादन किया। दक्ष ने प्रसन्न होकर सभी देवताओं का अभिवादन स्वीकार करते हुए, सभा में नज़र घुमायी। फिर उनकी नज़र शिव पर पड़ी, जो अकेले बैठे हुए थे और दक्ष के अभिवादन के लिए उठे नहीं थे। यह देखकर दक्ष का चेहरा तन गया, वे शिव को घूरते रहे, मगर शिव उसी तरह निर्विकार बैठे रहे। ऐसा नहीं था कि शिव दक्ष का अपमान करना चाहते थे, लेकिन वे इसलिए बैठे रहे, क्योंकि वे दक्ष के उच्च पद और प्रतिष्ठा के प्रति निरपेक्ष थे।”
Devdutt Pattanaik, Shiv Se Shankar Tak
“In the fifth century BC, Buddhism and Jainism posed a great threat to Vedic ritualism. Members of the merchant classes patronized these monastic ideologies. Threatening even the Buddhists and the Jains was the idea of an all-powerful personal Godhead that was slowly taking shape in the popular imagination. The common man always found more comfort in tangible stories and rituals that made trees, rivers, mountains, heroes, sages, alchemists and ascetics worthy of worship. The move from many guardian deities and fertility spirits to one all-powerful uniting deity was but a small step. Being atheistic, or at least agnostic, Buddhism and Jainism could do nothing more than tolerate this fascination for theism on their fringes. In a desperate bid to survive, Vedic priests, the Brahmins, did something more: they consciously assimilated the trend into the Vedic fold. In their speculation they concluded and advertised the idea that Godhead was nothing but the embodiment of Brahman, the mystic force invoked by the chanting of Vedic hymns and the performance of Vedic rituals. Adoration of this Godhead through pooja, a rite that involved offering food, water, flowers, lamp and incense, was no different from the yagna.”
Devdutt Pattanaik, Shiva To Shankara: Decoding The Phallic Symbol