धर्मपुत्र Quotes

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धर्मपुत्र धर्मपुत्र by Acharya Chatursen
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धर्मपुत्र Quotes Showing 1-17 of 17
“महरी के पीछे-पीछे चोर दरवाज़े में घुसे। कमरों के बाद कमरे, दालान के बाद दालान, सेहन के बाद सेहन पार करते हुए, नौकरों, बाँदियों, लौंडियों और गुलामों की सलामें लेते हुए आखिर बेगम के खास कमरे में पहुँचे। सफेद चाँदनी का फर्श, चाँदी का तख्तपोश और कोच, छत में झाड़ और हज़ारा फानूस, चाँदी की एक पलंगड़ी, कीमती बिल्लौर की गोल मेज़ कमरे के बीचोंबीच।”
आचार्य चतुरसेन [Acharya Chatursen], धर्मपुत्र
“वे बिरादरी से खारिज हैं। उनकी बेटी को ब्याहने से बिरादरी नाराज़ होगी।”
आचार्य चतुरसेन [Acharya Chatursen], धर्मपुत्र
“मानववादिनी, अल्पभाषिणी, भावुक, सरल-तरल, जनहित से ओत-प्रोत, सब भेदभावों से दूर मनुष्य के प्यार से ओत-प्रोत।”
आचार्य चतुरसेन [Acharya Chatursen], धर्मपुत्र
“नई दुनिया थी—भूखी-प्यासी, भयभीत, कंगाल और अविश्वस्त; चिन्ता और वैकल्य से परिपूर्ण; अभाव और अन्धकार से लथपथ।”
आचार्य चतुरसेन [Acharya Chatursen], धर्मपुत्र
“विश्व की रंगभूमि पर हिटलर आया, मुसोलिनी आया, स्टालिन आया, रूस में लाल सितारा चमका, अमरीका के उड़नकिले उड़े, हिटलर के चमत्कारों से विश्व चमत्कृत हुआ। महाराज्यों के राजमुकुट उड़-उड़कर हवा में बिखर गए। समूचा मानव-विश्व रक्त-स्नान में जुट गया। देश, राष्ट्र, पूँजी, सत्ता-अधिकार, सत्ता अपनी-अपनी सीमाएँ बदलने लगे। आकाश में वायुयान अनेक करतब दिखाने लगे। जापान का आतंक आया और अणु महास्त्र ने जादू के ज़ोर पर उसे विलय कर दिया। सोना और खून दुनिया में अपनी होड़ लगाने लगे। संसार का साहित्य, संसार की वाणी, संसार की विचार-सत्ता, संसार का मस्तिष्क सब कुछ ‘सोना और खून’ की महत्ता को समझने में जुट गए। सोना मनुष्य के शरीर पर लदा था और खून उसकी नसों में बह रहा था। सोने में उसका संसार था। और खून में उसका जीवन था। मनुष्य खून बहाता था, पर सोना देना न चाहता था। इससे मनुष्य का खून एक करामात बन गया। ज्ञान-विज्ञान, शक्ति, सत्ता, सभी मनुष्य का खून उसकी नसों से बाहर निकाल बहाने में जुट गए।”
आचार्य चतुरसेन [Acharya Chatursen], धर्मपुत्र
“उसकी सूरत-शक्ल, बुद्धि और विचार-सत्ता सब कुछ उनसे नया निराला था। उसका रंग अत्यन्त गोरा, आँखें ज़रा भूरी, नाक उभरी हुई, पेशानी चौड़ी, बाल ज़रा लाली लिए हुए। जिस्म पतला-दुबला, लम्बा, मिज़ाज तेज़ और गुस्सैल, तबीयत ज़िद्दी और हाथ खुला था। अनुशासन उसे पसन्द न था। वह हर बात को मौलिक रीति पर सोचता-समझता था। भाइयों और बहिन को वह तुच्छ समझता, उनसे दूर रहता, हर चीज़ में वह अपना एक पृथक् अस्तित्व कायम रखना चाहता था।”
आचार्य चतुरसेन [Acharya Chatursen], धर्मपुत्र
“ज़िन्दगी जिस्म में पनपती चली आ रही है,”
आचार्य चतुरसेन [Acharya Chatursen], धर्मपुत्र
“-धीरे उनके गुण दिखने लगे,”
आचार्य चतुरसेन [Acharya Chatursen], धर्मपुत्र
“निहायत सफाई, नफासत और सादगी से सजाया गया है।”
आचार्य चतुरसेन [Acharya Chatursen], धर्मपुत्र
“मेवे के पकौड़े, पेस्ट्री, मिठाइयाँ, भुने कबाब, तले हुए मेवे, ताज़ा फल और न जाने क्या-क्या। साथ में चाँदी के सैट में चाय।”
आचार्य चतुरसेन [Acharya Chatursen], धर्मपुत्र
“रज़ील, तबीयत से भी और खसलत से भी।”
आचार्य चतुरसेन [Acharya Chatursen], धर्मपुत्र
“उम्र पचपन साल, क्लीनशेव्ड, कद छ: फुट दो इंच, रंग में डूबी बत्तीसी, खास पेरिस में तैयार की हुई, समूची। उम्दा खिज़ाब से ज़रा नीली झलक लिए हुए बाल। लम्बी शेरवानी, ढीला पायजामा, पम्प शू और सिर पर फैज़ टोपी।”
आचार्य चतुरसेन [Acharya Chatursen], धर्मपुत्र
“दुलखो मत, यह एक पवित्र काम है, पुण्य है। जब तक मैं तुम्हारे साथ नहीं खाऊँगी, तुम्हारे बेटे को अपनाऊँगी कैसे?”
आचार्य चतुरसेन [Acharya Chatursen], धर्मपुत्र
“दुकानों में बैठे, अतलस का कुर्ता पहने, पान कचरते, लचकती दिल्ली की भाषा में अपने को ‘देहलवी’ कहकर अपनी सुर्मई आँखों में लाल डोरे सजाए रहते थे।”
आचार्य चतुरसेन [Acharya Chatursen], धर्मपुत्र
“प्यार तो पत्थर का बुत है, जिसे हिन्दू पूजते हैं। भीतर-बाहर वह सब तरफ पत्थर है—ठोस, वहाँ अहसास कहाँ? इसी से वह प्यार सब भूख प्यास से पाक-साफ होकर भक्ति बन जाता है। इस भक्ति से किसी का पेट नहीं भरता। कभी ऊब नहीं पैदा होती। वह इतना पाक हो जाता है कि सिवा पूजा करने के दूसरी किसी बात का ख्याल दिमाग में लाया ही नहीं जा सकता।”
आचार्य चतुरसेन [Acharya Chatursen], धर्मपुत्र
“सज़ा है कि इनाम, यह तो समझने की बात है। मगर मैं तो यह समझने लगी हूँ कि प्यार की सही सूरत तो जुदाई ही है, मिलन नहीं—वह जुदाई, जहाँ प्यार की भूख रोम-रोम में रमकर जिस्म को प्यार से सराबोर कर देती है।”
आचार्य चतुरसेन [Acharya Chatursen], धर्मपुत्र
“अगर ज़िन्दा रहोगे, खुश रहोगे, मुझ पर अपनी बरकत की नज़र डालोगे, तो मैं तुम्हें फरिश्ता समझकर परस्तिश करूँगी। तुम्हारी मूरत मेरी आँखों पर रहेगी। और अगर मर मिटोगे, तो मैं तुम्हें एक नाचीज़, हकीर, अदना इन्सान समझूँगी। तब सिर्फ ज़रा-सी हमदर्दी ही मेरे दिल में तुम्हारे लिए रह जाएगी, और कुछ नहीं।”
आचार्य चतुरसेन [Acharya Chatursen], धर्मपुत्र