Ageya Ki Sampurna Kahaniyan Quotes

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Ageya Ki Sampurna Kahaniyan (Hindi Edition) Ageya Ki Sampurna Kahaniyan by सच्चिदानंद हीरानंद वात्स्यायन 'अज्ञेय'
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“जैसे कोई दान दी हुई गाय का कष्ट देखकर यही सोचकर रह जाता है कि अब मुझे इसका कष्ट निवारण करने का अधिकार नहीं रहा!”
सच्चिदानंद हीरानंद वात्स्यायन 'अज्ञेय', Ageya Ki Sampurna Kahaniyan
“वह एक सम्पन्न गूजर के घर बैठ गई थी। वह उसकी विवाहिता भी नहीं थी, उसकी रखैल भी नहीं थी। लूनी ने अपने-आप को मानो उसे दान कर दिया था, उसे अपना दान देकर विदा कर दिया था और स्वयं अकेली रह गई थी! कभी-कभी जब वह स्वयं अपनी परिस्थिति पर विचार करती, तब उसे जान पड़ता, उसके दो शरीर हैं, जो एक-दूसरे के ऊपर खड़े हैं। एक में उसकी सम्पूर्ण आत्मा, उसका अपनापन बसा हुआ है और लूनी के भाई की आराधना में लीन है; और दूसरा, निचला, केवल एक लाश-भर है। कभी-कभी दुरुपयोग से या शारीरिक अत्याचारों से पीड़ित होकर यह लाश ऊपर की आत्मा के पास फ़रियाद करती थी, तो उसमें एक क्षीण व्यथा-सी जागती थी, अन्य कोई उत्तर नहीं मिलता था…जैसे कोई दान दी हुई गाय का कष्ट देखकर यही सोचकर रह जाता है कि अब मुझे इसका कष्ट निवारण करने का अधिकार नहीं रहा! जब”
सच्चिदानंद हीरानंद वात्स्यायन 'अज्ञेय', Ageya Ki Sampurna Kahaniyan
“जीवन तीव्र और अनवरुद्ध गति से आगे बढ़ता जा रहा है, और मैं मूर्ख की तरह उसके साथ क़दम मिलाकर चलने की निष्फल चेष्टा कर रहा हूँ…पैदल आदमी सरपट दौड़ते घोड़े से क़दम मिलाए…”
सच्चिदानंद हीरानंद वात्स्यायन 'अज्ञेय', Ageya Ki Sampurna Kahaniyan
“लिफ़ाफ़े में अपने बालों की एक लट काटकर रख जाती हूँ। मैं क्रान्ति की हूँ, तो इसे तो रख ही लेना।”
सच्चिदानंद हीरानंद वात्स्यायन 'अज्ञेय', Ageya Ki Sampurna Kahaniyan
“संध्या हो गई थी। पर जैसे दिन-भर धुएँ के कारण सूर्य नहीं दिख पाया था, उसी प्रकार रात का पता नहीं लगा—केवल जो ज्वाला दिन में कुछ पीली-सी दिख पड़ती थी, वह अब रक्त के उबाल की तरह लाल-लाल दिखने लगी, और धुएँ का मैलापन कुछ और काला हो गया… क्रान्ति और युद्ध के, जीवन और मरण के, तेज और मालिन्य के, लाल और काले के इस सम्मिश्रण को देखकर कार्ल भी न जाने क्या सोचने लगा…”
सच्चिदानंद हीरानंद वात्स्यायन 'अज्ञेय', Ageya Ki Sampurna Kahaniyan
“यह बताओ, अगर एक कांस्टैंटाइन के स्वप्न के लिए लाखों प्राणियों की आहुति उनकी इच्छा के विरुद्ध दी जा सकती है, तो क्या लाखों प्राणियों के सुख के लिए एक आदमी इच्छापूर्वक नहीं मर सकता? तुम्हारे ऊपर क्रान्ति निर्भर करे, और तुम एक जीवन का मोह करो? छिः!” कार्ल विस्मित होकर एंटनी का यह नया रूप देख रहा था, बोला, “आरोरा भी तो है…” आरोरा ने तनकर कहा, “आरोरा भी तो मरना जानती है, डरती नहीं।” एंटनी बोला, “नहीं, आरोरा की बात नहीं है। वह तुम्हारे साथ जा सकती है।” आरोरा ने मुँह फेर लिया था। यह बात सुनकर वह तीखे स्वर में बोली, “ठीक है, आरोरा जा सकती है।” इस”
सच्चिदानंद हीरानंद वात्स्यायन 'अज्ञेय', Ageya Ki Sampurna Kahaniyan
“शैतान के चार सहायक हैं : कलह, अकाल, हिंसा और मृत्यु।”
सच्चिदानंद हीरानंद वात्स्यायन 'अज्ञेय', Ageya Ki Sampurna Kahaniyan
“कार्ल न जाने क्यों अधिकाधिक उदास होता जा रहा है—वह कहता है कि हम अपनी ही हानि कर रहे हैं। कहता है कि सिकन्दर पागल था—अपने राष्ट्र को दूर-दूर तक फैलाता गया, पर उसकी रक्षा नहीं कर सका—व्यर्थ ही इतने प्राण नष्ट किए—एक अपनी व्यक्तिगत तृप्ति के लिए…वह कहता है कि सबको स्वतन्त्र होने का अधिकार है, कि एक देश पर दूसरे देश का अधिकार स्थापित करना नीचता है और अन्याय की सीमा है…”
सच्चिदानंद हीरानंद वात्स्यायन 'अज्ञेय', Ageya Ki Sampurna Kahaniyan
“Whence shall arise the shout of love, if it be not from the summit of sacrifice?”
सच्चिदानंद हीरानंद वात्स्यायन 'अज्ञेय', Ageya Ki Sampurna Kahaniyan
“वहीं, नित्य-प्रति रात को लोग आते थे, हमारे शरीरों को देखते थे, गन्दे संकेत करते थे, और हम बैठी सब कुछ देखा करती थीं। वहाँ, जब चूसे हुए नींबू की तरह बीमारियों से घुले हुए वे पूँजीपति साफ़-साफ़ कपड़े पहनकर इठलाते हुए आते थे—उफ़्! जिसने वह नहीं देखा, वह पूँजीवाद और साम्राज्यवाद का दूरव्यापी परिणाम नहीं समझ सकता! धन के आधिक्य से ही कितनी बुराइयाँ समाज में आ जाती हैं इसको जानने के लिए वह देखना ज़रूरी है!”
सच्चिदानंद हीरानंद वात्स्यायन 'अज्ञेय', Ageya Ki Sampurna Kahaniyan
“कोढ़ का रोगी जब डॉक्टर के पास जाता है, तो यही कहता है कि मेरा रोग छुड़ा दो। यह नहीं पूछता कि इस रोग को दूर करके इसके बदले मुझे क्या दोगे! क्रान्ति एक भयंकर औषधि है, यह कड़वी है, पीड़ाजनक है, जलाने वाली है, किन्तु है औषध। रोग को मार अवश्य भगाती है। किन्तु इसके बाद, स्वास्थ्य-प्राप्ति के लिए, जिस पथ्य की आवश्यकता है, वह इसमें खोजने पर निराशा ही होगी, इसके लिए क्रान्ति को दोष देना मूर्खता है।”
सच्चिदानंद हीरानंद वात्स्यायन 'अज्ञेय', Ageya Ki Sampurna Kahaniyan
“क्रान्ति सुधार नहीं है।” “न सही। परिवर्तन ही सही। लेकिन परिवर्तन का भी तो ध्येय होता है!” “क्रान्ति परिवर्तन भी नहीं है।” मैंने सोचा, पूछूँ तो फिर क्रान्ति है क्या? किन्तु मैं बिना पूछे उसके मुख की ओर देखने लग गया। वह स्वयं बोली, “क्रान्ति आन्दोलन, सुधार, परिवर्तन कुछ भी नहीं है; क्रान्ति है विश्वासों का, रूढ़ियों का, शासन की और विचार की प्रणालियों का घातक, विनाशकारी, भयंकर विस्फोट! इसका न आदर्श है, न ध्येय, न धुर। क्रान्ति विपथगा, विध्वंसिनी है, विदग्धकारिणी है!”
सच्चिदानंद हीरानंद वात्स्यायन 'अज्ञेय', Ageya Ki Sampurna Kahaniyan
“क्रान्ति का विरोध करोगे, उसे रोकोगे तुम? सूर्य उदय होता है, उसको रोकने की चेष्टा की है? समुद्र में प्रलय-लहरी उठती है, उसे रोका है? ज्वालामुखी में विस्फोट होता है; धरती काँपने लगती है, उसे रोका है? क्रान्ति सूर्य से भी अधिक दीप्तिमान, प्रलय से भी अधिक भयंकर, ज्वाला से भी अधिक उत्तप्त, भूकम्प से भी अधिक विदारक है…उसे क्या रोकोगे!”
सच्चिदानंद हीरानंद वात्स्यायन 'अज्ञेय', Ageya Ki Sampurna Kahaniyan
“वह फिर बोली, “तुम भी अपने-आपको क्रान्तिवादी कहते हो, हम भी। किन्तु हमारे आदर्शों में कितना भेद है! तुम चाहते हो, स्वातन्त्र्य के नाम पर विश्व जीत कर उस पर शासन करना, और हम!—हम इसी की चेष्टा में लगे हैं कि अपने हृदय इतने विशाल बना सकें कि विश्व उनमें समा जाए!”
सच्चिदानंद हीरानंद वात्स्यायन 'अज्ञेय', Ageya Ki Sampurna Kahaniyan
“उसके शरीर में एक लचक, और साथ ही एक खिंचाव का आभास स्पष्ट होता था, मानो कपड़ों से ढँककर एक तने हुए धनुष की प्रत्यंचा सामने रख दी गई हो। आँखें नहीं दिखती थीं, किन्तु उन होंठों की पतली रेखा देखने से भावना होती थी कि उसके पीछे विद्युत की चपलता के साथ ही वज्र की कठोरता दबी हुई है…”
सच्चिदानंद हीरानंद वात्स्यायन 'अज्ञेय', Ageya Ki Sampurna Kahaniyan
“जो एक बार अपनी इच्छा से पतित होता है, उसका उत्थान होना असम्भव है। कोई उसका मित्र नहीं होता, कोई उसकी सहायता नहीं करता। मेरे लिए यही जीवन है—यही जिसे एक दिन मैंने इतनी व्यग्रता से अपनाया था, और जिसने आज साँप की तरह मुझे अपने पाश में बाँध लिया है!”
सच्चिदानंद हीरानंद वात्स्यायन 'अज्ञेय', Ageya Ki Sampurna Kahaniyan
“कमला’! विवेक कहता है, ‘यह प्रेम नहीं है, मोह है।’ कमला, कमला, कमला! तुम्हें नहीं छोड़ सकूँगा…प्रेम न सही, आसक्ति सही, मोह सही, वासना सही, पर कितनी सुखद आसक्ति, कितना मनोरम मोह, कितनी मीठी, कितनी सुरभित, कितनी प्रकांड वासना है यह!”
सच्चिदानंद हीरानंद वात्स्यायन 'अज्ञेय', Ageya Ki Sampurna Kahaniyan
“नदी भी बढ़ी चली जा रही थी। उसके प्रवाह में दर्प था, अवमानना थी, सिंह का गर्जन था, और थी प्रकांड प्रलय-कामना। घोड़ों के उस क्षुद्र प्रयत्न को कितनी उपेक्षा से देख रही थी वह, और मानो हँसकर कह रही थी—प्रकृति के प्रवाह को ललकारोगे, जीतोगे, तुम!”
सच्चिदानंद हीरानंद वात्स्यायन 'अज्ञेय', Ageya Ki Sampurna Kahaniyan
“जिस देश में पुरुष भी गुलाम हो, उसमें स्त्री होने से मर जाना अच्छा है।” उसकी बात शायद सच भी थी। चीन की दशा उन दिनों बहुत बुरी थी”
सच्चिदानंद हीरानंद वात्स्यायन 'अज्ञेय', Ageya Ki Sampurna Kahaniyan
“अमरवल्लरी के स्पर्श में एक साथ ही वसन्त के उल्लास का, ग्रीष्म के ताप का, पावस की तरलता, शरद् की स्निग्धता का, हेमन्त की शुभ्रता का और शिशिर के शैथिल्य का अनुभव हुआ है, न जाने कितनी बार इसके बन्धनों में बँधकर और पीड़ित होकर मुझे अपने स्वातन्त्र्य का ज्ञान हुआ है! एक व्यथा, एक जलन, मेरे अन्तस्तल में रमती गई है कि मैं मूक ही रह गया, मेरी प्रार्थना अव्यक्त ही रह गई—पर मुझे इस ध्यान में सान्त्वना मिलती है कि मैं ही नहीं, सारा संसार ही मूक है…”
सच्चिदानंद हीरानंद वात्स्यायन 'अज्ञेय', Ageya Ki Sampurna Kahaniyan
“कहने लगी : “यह उचित ही हुआ। और क्या हो सकता था? अगर कर्तव्य भूलकर सुख ही खोजने का नाम प्रेम होता, तो—! मैं जो-कुछ सोचती हूँ, समझती हूँ, अनुभव करती हूँ, उसका अणुमात्र भी व्यक्त नहीं कर सकी—पर इससे क्या? जो कुछ हृदय में था—है—उससे मेरा जीवन तो आलोकित हो गया है। प्रेम में दुःख-सुख, शान्ति और व्यथा, मिलन और विच्छेद, सभी हैं, बिना वैचित्र्य के प्रेमी जी नहीं सकता…नहीं तो जिसे हम प्रेम कहते हैं, उसमें सार क्या है?”
सच्चिदानंद हीरानंद वात्स्यायन 'अज्ञेय', Ageya Ki Sampurna Kahaniyan
“प्रेम आईने की तरह स्वच्छ रहता है, प्रत्येक व्यक्ति उसमें अपना ही प्रतिबिम्ब पाता है, और एक बार जब वह खंडित हो जाता है, तब जुड़ता नहीं। अगर किसी प्रकार निरन्तर प्रयत्न से हम उसके भग्नावशिष्ट खंडों को जोड़कर रख भी लें तो उसमें पुरानी कान्ति नहीं आती। वह सदा के लिए कलंकित हो जाता है। स्नेह अनेकों चोटें सहता है, कुचला जाकर भी पुनः उठ खड़ा होता है; किन्तु प्रेम में अभिमान बहुत अधिक होता है, वह एक बार तिरस्कृत होकर सदा के लिए विमुख हो जाता है। आज इस वल्लरी के प्रति मेरा अनुराग बहुत है, पर उसमें प्रेम का नाम भी नहीं है—वह स्नेह का ही प्रतिरूप है। वह विह्वलता प्रेम नहीं है, वह केवल प्रेम की स्मृति की कसक ही है।”
सच्चिदानंद हीरानंद वात्स्यायन 'अज्ञेय', Ageya Ki Sampurna Kahaniyan
“विश्वकर्मा से मूक प्रार्थना करने लगता—विश्वकर्मा मूक प्रार्थना भी सुन लेते हैं—कि उस स्त्री को भी कोई वैसी ही दारुण वेदना हो! वह मुझे देवता मानकर पुष्पों से पूजा करती थी और मैं उसके प्रति इतनी नीच कामना करता था—किन्तु प्रेम के प्रमाद में बुद्धि भ्रष्ट हो जाती है!”
सच्चिदानंद हीरानंद वात्स्यायन 'अज्ञेय', Ageya Ki Sampurna Kahaniyan
“वसन्त! न जाने उसके ध्यान में ही कौन-सा जादू है, उसकी स्मृतिमात्र में कौन-सी शक्ति है कि मेरी इन सिकुड़ी हुई धमनियों में भी नये संजीवन का संचार होने लगता है और साथ ही एक लालसामय अनुताप मेरी नस-नस में फैल जाता है… वसन्त…उसकी स्मृतियों में सुख है और कसक भी।”
सच्चिदानंद हीरानंद वात्स्यायन 'अज्ञेय', Ageya Ki Sampurna Kahaniyan