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सच्चिदानंद हीरानंद वात्स्यायन 'अज्ञेय'

“कहने लगी : “यह उचित ही हुआ। और क्या हो सकता था? अगर कर्तव्य भूलकर सुख ही खोजने का नाम प्रेम होता, तो—! मैं जो-कुछ सोचती हूँ, समझती हूँ, अनुभव करती हूँ, उसका अणुमात्र भी व्यक्त नहीं कर सकी—पर इससे क्या? जो कुछ हृदय में था—है—उससे मेरा जीवन तो आलोकित हो गया है। प्रेम में दुःख-सुख, शान्ति और व्यथा, मिलन और विच्छेद, सभी हैं, बिना वैचित्र्य के प्रेमी जी नहीं सकता…नहीं तो जिसे हम प्रेम कहते हैं, उसमें सार क्या है?”

सच्चिदानंद हीरानंद वात्स्यायन 'अज्ञेय', Ageya Ki Sampurna Kahaniyan
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