Srimad Bhagwad Gita Sadhak Sanjivani Quotes
Srimad Bhagwad Gita Sadhak Sanjivani
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Srimad Bhagwad Gita Sadhak Sanjivani Quotes
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“सांसारिक लाभ-हानि, जय-पराजय, सुख-दुःख, आदर-निरादर, सिद्धि-असिद्धिमें सम रहनेका नाम ‘योग’ (समता) है।”
― Gita Sadhak Sanjeevani, Code 0006, Hindi, Gita Press Gorakhpur (Official)
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“मनुष्यके सामने कर्तव्यरूपसे जो कर्म आ जाय, उसको फल और आसक्तिका त्याग करके सावधानीके साथ तत्परतापूर्वक करना चाहिये—‘कर्तव्यानि।”
― Gita Sadhak Sanjeevani, Code 0006, Hindi, Gita Press Gorakhpur (Official)
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“बारह आदित्य, आठ वसु, ग्यारह रुद्र और दो अश्विनीकुमार—इन तैंतीस प्रकारके शास्त्रोक्त देवताओंका निष्कामभावसे पूजन करना भी ‘यजन्ते सात्त्विका देवान्’ के अन्तर्गत मानना चाहिये।”
― Gita Sadhak Sanjeevani, Code 0006, Hindi, Gita Press Gorakhpur (Official)
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“न द्वेष्टि सम्प्रवृत्तानि न निवृत्तानि काङ्क्षति’—सत्त्वगुणका कार्य ‘प्रकाश’, रजोगुणका कार्य ‘प्रवृत्ति’ और तमोगुणका कार्य ‘मोह’—इन तीनोंके अच्छी तरह प्रवृत्त होनेपर भी गुणातीत महापुरुष इनसे द्वेष नहीं करता और इनके निवृत्त होनेपर भी इनकी इच्छा नहीं करता। तात्पर्य है कि ऐसी वृत्तियाँ क्यों उत्पन्न हो रही हैं, इनमेंसे कोई-सी भी वृत्ति न रहे’—ऐसा द्वेष नहीं करता और ‘ये वृत्तियाँ पुनः आ जायँ; ये वृत्तियाँ बनी रहें’—ऐसा राग नहीं करता। गुणातीत होनेके कारण गुणोंकी वृत्तियोंके आने-जानेसे उसमें कुछ भी फरक नहीं पड़ता। वह इन वृत्तियोंसे स्वाभाविक ही निर्लिप्त रहता है।”
― Gita Sadhak Sanjeevani, Code 0006, Hindi, Gita Press Gorakhpur (Official)
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“लोभः’—निर्वाहकी चीजें पासमें होनेपर भी उनको अधिक बढ़ानेकी इच्छाका नाम ‘लोभ’ है। परन्तु उन चीजोंके स्वाभाविक बढ़नेका नाम लोभ नहीं है। जैसे, कोई खेती करता है और अनाज ज्यादा पैदा हो गया, व्यापार करता है और मुनाफा ज्यादा हो गया, तो इस तरह पदार्थ, धन आदिके स्वाभाविक बढ़नेका नाम लोभ नहीं है और यह बढ़ना दोषी भी नहीं है।”
― Gita Sadhak Sanjeevani, Code 0006, Hindi, Gita Press Gorakhpur (Official)
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“होना है। अपना सम्बन्ध केवल भगवान्के साथ ही हो, दूसरे किसीके साथ किंचिन्मात्र भी अपना सम्बन्ध न हो—यह भगवान्में ‘अव्यभिचारिणी भक्ति’ होना है।”
― Gita Sadhak Sanjeevani, Code 0006, Hindi, Gita Press Gorakhpur (Official)
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“उपाय—जिनके साथ अपना घनिष्ठ सम्बन्ध दीखे, उनकी सेवा करे, उनको सुख पहुँचाये, पर उनसे सुख लेनेका उद्देश्य न रखे। उद्देश्य तो उनसे अभिष्वंग (तादात्म्य) दूर करनेका ही रखे। अगर उनसे सेवा लेनेका उद्देश्य रखेंगे तो उनसे तादात्म्य हो जायगा। हाँ, उनकी प्रसन्नताके लिये कभी उनसे सेवा लेनी भी पड़े तो उसमें राजी न हो; क्योंकि राजी होनेसे अभिष्वंग हो जायगा। तात्पर्य है कि किसीके भी साथ अपनेको लिप्त न करे। इस बातकी बहुत सावधानी रखे।”
― Gita Sadhak Sanjeevani, Code 0006, Hindi, Gita Press Gorakhpur (Official)
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“अपनेमें श्रेष्ठताकी भावनासे ही अभिमान पैदा होता है। अभिमान तभी होता है, जब मनुष्य दूसरोंकी तरफ देखकर यह सोचता है कि वे मेरी अपेक्षा तुच्छ हैं। जैसे, गाँवभरमें एक ही लखपति हो तो दूसरोंको देखकर उसको लखपति होनेका अभिमान होता है। परन्तु अगर दूसरे सभी करोड़पति हों तो उसको अपने लखपति होनेका अभिमान नहीं होता। अतः अभिमानरूप दोषको मिटानेके लिये साधकको चाहिये कि वह दूसरोंकी कमीकी तरफ कभी न देखे, प्रत्युत अपनी कमियोंको देखकर उनको दूर करे१।”
― Gita Sadhak Sanjeevani, Code 0006, Hindi, Gita Press Gorakhpur (Official)
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“परमात्मतत्त्व सदासे ही था, सदासे है और सदा ही रहेगा। वह कभी बनता-बिगड़ता नहीं, कम-ज्यादा भी नहीं होता, सदा ज्यों-का-त्यों रहता है—ऐसा बुद्धिके द्वारा विचार करके निर्विकल्प होकर स्थिर हो जानेसे साधकका बुद्धिसे सम्बन्ध-विच्छेद हो जाता है और उस सत्-तत्त्वमें अपनी वास्तविक स्थितिका अनुभव हो जाता है। ऐसा अनुभव होनेपर फिर अहंकार नहीं रहता।”
― Gita Sadhak Sanjeevani, Code 0006, Hindi, Gita Press Gorakhpur (Official)
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“इन्द्रियोंका विषयोंके साथ सम्बन्ध होनेपर भी तथा शास्त्रके अनुसार जीवन-निर्वाहके लिये इन्द्रियोंद्वारा विषयोंका सेवन करते हुए भी साधकको विषयोंमें राग, आसक्ति, प्रियता नहीं होनी”
― Gita Sadhak Sanjeevani, Code 0006, Hindi, Gita Press Gorakhpur (Official)
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“इन्द्रियोंका विषयोंके साथ सम्बन्ध होनेपर भी तथा शास्त्रके अनुसार जीवन-निर्वाहके लिये इन्द्रियोंद्वारा विषयोंका सेवन करते हुए भी साधकको विषयोंमें राग, आसक्ति, प्रियता नहीं होनी चाहिये। उपाय—(१) विषयोंमें राग होनेसे ही विषयोंकी महत्ता”
― Gita Sadhak Sanjeevani, Code 0006, Hindi, Gita Press Gorakhpur (Official)
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“इस प्रकार साधन करनेपर वे महापुरुष उसकी उन सूक्ष्म कमियोंको, जिनको वह खुद भी नहीं जानता, दूर करके उसको सुगमतासे परमात्मतत्त्वका अनुभव करा सकते हैं।”
― Gita Sadhak Sanjeevani, Code 0006, Hindi, Gita Press Gorakhpur (Official)
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“आर्जवम्’—सरल-सीधेपनके भावको ‘आर्जव’ कहते हैं। साधकके शरीर, मन और वाणीमें सरल-सीधापन होना चाहिये। शरीरकी सजावटका भाव न होना, रहन-सहनमें सादगी तथा चाल-ढालमें स्वाभाविक सीधापन होना, ऐंठ-अकड़ न होना—यह ‘शरीरकी सरलता’ है। छल, कपट, ईर्ष्या, द्वेष आदिका न होना तथा निष्कपटता, सौम्यता, हितैषिता, दया आदिका होना—यह ‘मनकी सरलता’ है। व्यंग्य, निन्दा, चुगली आदि न करना, चुभनेवाले एवं अपमानजनक वचन न बोलना तथा सरल, प्रिय और हितकारक वचन बोलना—यह ‘वाणीकी सरलता’ है।”
― Gita Sadhak Sanjeevani, Code 0006, Hindi, Gita Press Gorakhpur (Official)
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“अनुमोदित हिंसा होती है। इस तरह हिंसा नौ प्रकारकी हो जाती है। उपर्युक्त नौ प्रकारकी हिंसामें तीन मात्राएँ होती हैं—मृदुमात्रा, मध्यमात्रा और अधिमात्रा। किसीको थोड़ा दुःख देना मृदुमात्रामें हिंसा है, मृदुमात्रासे अधिक दुःख देना मध्यमात्रामें हिंसा है और बहुत अधिक घायल कर देना अथवा खत्म कर देना अधिमात्रामें हिंसा है। इस तरह मृदु, मध्य और अधिमात्राके भेदसे हिंसा सत्ताईस प्रकारकी हो जाती है। उपर्युक्त सत्ताईस प्रकारकी हिंसा तीन करणोंसे होती है—शरीरसे, वाणीसे और मनसे। इस तरह हिंसा इक्यासी प्रकारकी हो जाती है। इनमेंसे किसी भी प्रकारकी हिंसा न करनेका नाम ‘अहिंसा’ है।”
― Gita Sadhak Sanjeevani, Code 0006, Hindi, Gita Press Gorakhpur (Official)
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“करना)। उपर्युक्त तीन प्रकारकी हिंसा तीन भावोंसे होती है—क्रोधसे, लोभसे और मोहसे। तात्पर्य है कि क्रोधसे भी कृत, कारित और अनुमोदित हिंसा होती है; लोभसे भी कृत, कारित और अनुमोदित हिंसा होती है तथा मोहसे भी कृत, कारित और अनुमोदित हिंसा होती है। इस तरह हिंसा नौ प्रकारकी हो जाती है।”
― Gita Sadhak Sanjeevani, Code 0006, Hindi, Gita Press Gorakhpur (Official)
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“अपनेमें कल्याणकी इच्छा हो, स्वभावमें उदारता हो और हृदयमें करुणा हो अर्थात् दूसरेके सुखसे सुखी (प्रसन्न) और दुःखसे दुःखी (करुणित) हो जाय—ये तीन बातें होनेपर मनुष्य कर्मयोगका अधिकारी हो जाता है।”
― Gita Sadhak Sanjeevani, Code 0006, Hindi, Gita Press Gorakhpur (Official)
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“(६) ध्यान करते समय कभी संकल्प-विकल्प आ जायँ, तो ‘अड़ंग बड़ंग स्वाहा’—ऐसा कहकर उनको दूर कर दे अर्थात् ‘स्वाहा’ कहकर संकल्प-विकल्प (अड़ंग-बड़ंग) की आहुति दे दे। (७) सामने देखते हुए पलकोंको कुछ देर बार-बार शीघ्रतासे झपकाये और फिर नेत्र बंद कर ले। पलकें झपकानेसे जैसे बाहरका दृश्य कटता है, ऐसे ही भीतरके संकल्प-विकल्प भी कट जाते हैं। (८) पहले नासिकासे श्वासको दो-तीन बार जोरसे बाहर निकाले और फिर अन्तमें जोरसे (फुंकारके साथ) पूरे श्वासको बाहर निकालकर बाहर ही रोक दे। जितनी देर श्वास रोक सके, उतनी देर रोककर फिर धीरे-धीरे श्वास लेते हुए स्वाभाविक श्वास लेनेकी स्थितिमें आ जाय। इससे सभी संकल्प-विकल्प मिट जाते हैं। परिशिष्ट भाव—यदि पूर्वश्लोकके अनुसार चुप-साधन न कर सके तो मन जहाँ-जहाँ जाय, वहाँ-वहाँसे हटाकर उसको एक परमात्मामें लगाये। मनको परमात्मामें लगानेका एक बहुत श्रेष्ठ साधन है कि मन जहाँ-जहाँ जाय, वहाँ-वहाँ परमात्माको ही देखे अथवा मनमें जो-जो चिन्तन आये, उसको परमात्माका ही स्वरूप समझे। एक मार्मिक बात है कि जबतक साधक एक परमात्माकी सत्ताके सिवाय दूसरी सत्ता मानेगा, तबतक उसका मन सर्वथा निरुद्ध नहीं हो सकता। कारण कि जबतक अपनेमें दूसरी सत्ताकी मान्यता है, तबतक रागका सर्वथा नाश नहीं हो सकता और रागका सर्वथा नाश हुए बिना मन सर्वथा निर्विषय नहीं हो सकता।”
― Gita Sadhak Sanjeevani, Code 0006, Hindi, Gita Press Gorakhpur (Official)
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“परमात्मामें मन लगानेकी युक्तियाँ (१) मन जिस किसी इन्द्रियके विषयमें, जिस किसी व्यक्ति, वस्तु, घटना, परिस्थिति आदिमें चला जाय अर्थात् उसका चिन्तन करने लग जाय, उसी समय उस विषय आदिसे मनको हटाकर अपने ध्येय—परमात्मामें लगाये। फिर चला जाय तो फिर लाकर परमात्मामें लगाये। इस प्रकार मनको बार-बार अपने ध्येयमें लगाता रहे। (२) जहाँ-जहाँ मन जाय, वहाँ-वहाँ ही परमात्माको देखे। जैसे गंगाजी याद आ जायँ, तो गंगाजीके रूपमें परमात्मा ही हैं, गाय याद आ जाय, तो गायरूपसे परमात्मा ही हैं—इस तरह मनको परमात्मामें लगाये। दूसरी दृष्टिसे, गंगाजी आदिमें सत्तारूपसे परमात्मा-ही-परमात्मा हैं; क्योंकि इनसे पहले भी परमात्मा ही थे, इनके मिटनेपर भी परमात्मा ही रहेंगे और इनके रहते हुए भी परमात्मा ही हैं—इस तरह मनको परमात्मामें लगाये। (३) साधक जब परमात्मामें मन लगानेका अभ्यास करता है, तब संसारकी बातें याद आती हैं। इससे साधक घबरा जाता है कि जब मैं संसारका काम करता हूँ, तब इतनी बातें याद नहीं आतीं, इतना चिन्तन नहीं होता; परन्तु जब परमात्मामें मन लगानेका अभ्यास करता हूँ, तब मनमें तरह-तरहकी बातें याद आने लगती हैं! पर ऐसा समझकर साधकको घबराना नहीं चाहिये; क्योंकि जब साधकका उद्देश्य परमात्माका बन गया, तो अब संसारके चिन्तनके रूपमें भीतरसे कूड़ा-कचरा निकल रहा है, भीतरसे सफाई हो रही है। तात्पर्य है कि सांसारिक कार्य करते समय भीतर जमा हुए पुराने संस्कारोंको बाहर निकलनेका मौका नहीं मिलता। इसलिये सांसारिक कार्य छोड़कर एकान्तमें बैठनेसे उनको बाहर निकलनेका मौका मिलता है और वे बाहर निकलने लगते हैं। (४) साधकको भगवान्का चिन्तन करनेमें कठिनता इसलिये पड़ती है कि वह अपनेको संसारका मानकर भगवान्का चिन्तन करता है। अतः संसारका चिन्तन स्वतः होता है और भगवान्का चिन्तन करना पड़ता है, फिर भी चिन्तन होता नहीं। इसलिये साधकको चाहिये कि वह भगवान्का होकर भगवान्का चिन्तन करे। तात्पर्य है कि ‘मैं तो केवल भगवान्का हूँ और केवल भगवान् ही मेरे हैं; मैं शरीर-संसारका नहीं हूँ और शरीर-संसार मेरे नहीं हैं’—इस तरह भगवान्के साथ सम्बन्ध होनेसे भगवान्का चिन्तन स्वाभाविक ही होने लगेगा, चिन्तन करना नहीं पड़ेगा। (५) ध्यान करते समय साधकको यह खयाल रखना चाहिये कि मनमें कोई कार्य जमा न रहे अर्थात् ‘अमुक कार्य करना है, अमुक स्थानपर जाना है, अमुक व्यक्तिसे मिलना है, अमुक व्यक्ति मिलनेके लिये आनेवाला है, तो उसके साथ बातचीत भी करनी है’ आदि कार्य जमा न रखे। इन कार्योंके संकल्प ध्यानको लगने नहीं देते। अतः ध्यानमें शान्तचित्त होकर बैठना चाहिये।”
― Gita Sadhak Sanjeevani, Code 0006, Hindi, Gita Press Gorakhpur (Official)
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“मस्तीमें, आनन्दमें होता है, तब उसके मुखसे स्वतः गीत निकलता है। भगवान्ने इसको मस्तीमें आकर गाया है, इसलिये इसका नाम ‘गीता’ है। यद्यपि संस्कृत व्याकरणके नियमानुसार इसका नाम ‘गीतम्’ होना चाहिये था, तथापि उपनिषद्-स्वरूप होनेसे”
― Gita Sadhak Sanjeevani, Code 0006, Hindi, Gita Press Gorakhpur (Official)
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“मनुष्यमात्रको चाहिये कि वह प्राणिमात्रके हितकी कामनासे ही सबके साथ यथायोग्य व्यवहार करे। इससे अपनी कामना मिट जायगी और कामना मिटनेपर मेरी प्राप्ति सुगमतासे हो जायगी। प्राणिमात्रके हितकी कामना रखनेवालेको मेरे सगुण स्वरूपकी प्राप्ति भी हो जाती है—‘ते प्राप्नुवन्ति मामेव सर्वभूतहिते रताः’ (गीता १२।४), और निर्गुण स्वरूपकी प्राप्ति भी हो जाती है—‘लभन्ते ब्रह्मनिर्वाणं ….. सर्वभूतहिते रताः’ (गीता ५।२५)।”
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“भगवान् कहाँ हैं? क्या करूँ? कहाँ जाऊँ?—इस प्रकार भक्त व्याकुल हो जाता है, तो यह व्याकुलता सब पापोंका नाश करके भगवान्को साकाररूपसे प्रकट कर देती है।”
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