बाणभट्ट की आत्मकथा Quotes
बाणभट्ट की आत्मकथा
by
Hazari Prasad Dwivedi199 ratings, 4.24 average rating, 22 reviews
बाणभट्ट की आत्मकथा Quotes
Showing 1-30 of 219
“चिन्ता में निमग्न मनुष्य अन्धा होता है।”
― Banbhatt Ki Aatmakatha
― Banbhatt Ki Aatmakatha
“कांचनार-पुष्पों से नगरप्रान्त की वनस्थली लहक उठी थी”
― Banbhatt Ki Aatmakatha
― Banbhatt Ki Aatmakatha
“यह प्रमाद है आर्य, कि यह शरीर नरक का साधन है। यही बैकुंठ है। इसी को आश्रय करके नारायण अपनी आनन्दलीला प्रकट कर रहे हैं। आनन्द से ही यह भुवन-मंडल उद्भासित है। आनन्द से ही विधाता ने सृष्टि उत्पन्न की है। आनन्द ही उसका उद्गम है, आनन्द ही उसका लक्ष्य है। लीला के सिवा इस सृष्टि का और क्या प्रयोजन हो सकता”
― Banbhatt Ki Aatmakatha
― Banbhatt Ki Aatmakatha
“मामूली वस्त्र की पृष्ठभूमि में उनकी शोभा-सम्पत्ति शतगुण समृद्धिशालिनी दिख रही थी।”
― Banbhatt Ki Aatmakatha
― Banbhatt Ki Aatmakatha
“एक जाति दूसरी को म्लेच्छ समझती है, एक मनुष्य दूसरे को नीच समझता है, इससे बढ़कर अशान्ति का कारण और क्या हो सकता है,”
― Banbhatt Ki Aatmakatha
― Banbhatt Ki Aatmakatha
“भेड़ियों के समान निर्घृण और चींटियों से भी अधिक संघबद्ध प्रत्यन्त-दस्यु सीमान्त पर फिर एकत्र हो रहे हैं।”
― Banbhatt Ki Aatmakatha
― Banbhatt Ki Aatmakatha
“आर्य, नारायण मनुष्य के बाहर तो नहीं रहते हैं न? तुम प्रसन्न हो, तो निश्चय ही नारायण प्रसन्न हैं। तुम नारायण के ही तो रूप हो, आर्य!”
― Banbhatt Ki Aatmakatha
― Banbhatt Ki Aatmakatha
“कल्प-लता के किसलयों से अभिलषित फल जब च्यवित होता होगा, तो कुछ ऐसा ही मनोहर होता होगा।”
― Banbhatt Ki Aatmakatha
― Banbhatt Ki Aatmakatha
“यह प्रमाद है आर्य, कि यह शरीर नरक का साधन है। यही बैकुंठ है। इसी को आश्रय करके नारायण अपनी आनन्दलीला प्रकट कर रहे हैं। आनन्द से ही यह भुवन-मंडल उद्भासित है। आनन्द से ही विधाता ने सृष्टि उत्पन्न की है। आनन्द ही उसका उद्गम है, आनन्द ही उसका लक्ष्य है। लीला के सिवा इस सृष्टि का और क्या प्रयोजन हो सकता”
― Banbhatt Ki Aatmakatha
― Banbhatt Ki Aatmakatha
“मानव-देह केवल दंड भोगने के लिए नहीं बनी है, आर्य! यह विधाता की सर्वोत्तम सृष्टि है। यह नारायण का पवित्र मन्दिर है। पहले इस बात को समझ गई होती, तो इतना परिताप नहीं भोगना पड़ता। गुरु ने मुझे अब यह रहस्य समझा दिया है। मैं जिसे अपने जीवन का सबसे बड़ा कलुष समझती थी, वही मेरा सबसे बड़ा सत्य है। क्यों नहीं मनुष्य अपने सत्य को अपना देवता समझ लेता, आर्य?”
― Banbhatt Ki Aatmakatha
― Banbhatt Ki Aatmakatha
“आँखें एक विचित्र आनन्द-ज्योति से प्रदीप्त हो उठीं।”
― Banbhatt Ki Aatmakatha
― Banbhatt Ki Aatmakatha
“वासुदेव उस नीलकमल-माला की-सी दृष्टि से बँधकर प्रसन्न हुए।”
― Banbhatt Ki Aatmakatha
― Banbhatt Ki Aatmakatha
“सपुष्पा चन्द्रमल्लिका”
― Banbhatt Ki Aatmakatha
― Banbhatt Ki Aatmakatha
“वह मूर्तिमती भक्ति की भाँति, विग्रहवती शोभा की भाँति, प्रत्यक्ष आविर्भूत लक्ष्मी की भाँति और अनुरागवती सन्ध्या की भाँति हृदय को एक अपूर्व रस से सिक्त कर रही थी।”
― Banbhatt Ki Aatmakatha
― Banbhatt Ki Aatmakatha
“प्रत्यग्रस्नान ने उसकी कान्ति निखार दी थी। उसने घनमेचक केशपाश कपोलदेश को घेरकर सुशोभित हो रहे थे। पीत कौशेय वस्त्र से लिपटी हुई उसकी अंगयष्टि सुवर्ण शलाका के समान मनोहर दिख रही थी।”
― Banbhatt Ki Aatmakatha
― Banbhatt Ki Aatmakatha
“विष्णुमूर्ति और काम-गायत्री—ओं कामदेवाय विद्महे पुष्प-बाणाय धीमहि तन्नोऽनंगः प्रचोदयात्!1 मैं कुछ समझ नहीं सका। ध्यान से वासुदेव की मूर्ति को देखने लगा।”
― Banbhatt Ki Aatmakatha
― Banbhatt Ki Aatmakatha
“विष्णु-मूर्ति का यह बिलकुल नवीन विधान था; क्योंकि त्रिभंगीरूप-शृंगार-रस का व्यंजक है।”
― Banbhatt Ki Aatmakatha
― Banbhatt Ki Aatmakatha
“एक छोटे-से गृह में दो तृणास्तरण बिछे हुए थे। पूर्वप्रान्त में गोपाल वासुदेव की मनोहारी मूर्ति थी और उसके एक पार्श्व में धूपवर्त्तिका जल रही थी! घर में एक दासी थी, जिसने प्रदीप आदि जला रखे थे।”
― Banbhatt Ki Aatmakatha
― Banbhatt Ki Aatmakatha
“फाटक से राजमार्ग तक गोमय से उपलिप्त भूमि खटिकचूर्ण की अभिराम मंडलिकाओं से सुशोभित थी। चौखट के ऊपर क्षीर-सागरशायी नारायण की मूर्ति उत्कीर्ण थी और उसे घेरकर एक मनोहर मालतीमाला सुन्दर ढंग से टँगी हुई थी। पार्श्वों में छोटी-छोटी वेदिकाओं पर मंगल-कलश सुसज्जित थे और मकान के ऊपर सौभाग्यपताका लहरा रही थी।”
― Banbhatt Ki Aatmakatha
― Banbhatt Ki Aatmakatha
“सारा शरीर ही छन्दों से बना था। उसके वस्त्र, उसके पदविक्षेप, उसका कंठस्वर, उसकी दृष्टि—सबकुछ छन्दोमय थे। उसके इस वाक्य में भी वीणा का-सा झंकार था। मैं मन्त्रमुग्ध की भाँति सुनता रहा।”
― Banbhatt Ki Aatmakatha
― Banbhatt Ki Aatmakatha
“अन्त तक निवात-निष्कम्प दीपशिखा की भाँति हाथ जोड़े बैठी रही। बड़ी देर तक यह भजन चलता रहा। अन्तिम कार्य सुचरिता का गान था। आहा, संगीत की ऐसी शीतल मन्दाकिनी भी इस मर्त्यलोक में है! समस्त जनमंडली जड़ की भाँति, स्तब्ध की भाँति चुपचाप उस मधुर धारा में स्नान कर रही थी।”
― Banbhatt Ki Aatmakatha
― Banbhatt Ki Aatmakatha
“लम्बा भरा हुआ सुगठित शरीर, कपाट की भाँति विपुल वक्षःस्थल, आजानुलम्बित बाहु, मृदंग-मन्द्र स्वर।”
― Banbhatt Ki Aatmakatha
― Banbhatt Ki Aatmakatha
“देखते-देखते संयवक वाद्य गम-गम करने लगा; कांस्य, कोशी और करताल झनझना उठे। नारायण की स्तुति सहस्र-सहस्र नर-नारियों के कंठों से उमड़ पड़ी। मुझे ऐसा लगा कि मैं किसी दूसरे लोक में पहुँच गया हूँ। संगीत और वाद्य का ऐसा मधुर मिश्रण मैंने पहले कभी नहीं देखा था।”
― Banbhatt Ki Aatmakatha
― Banbhatt Ki Aatmakatha
“वराहमिहिर की बात याद आती रही और मैं उनकी सहृदयता पर मुग्ध हुए बिना नहीं रहा। उन्होंने ठीक ही कहा है, स्त्रियाँ ही रत्नों को भूषित करती हैं, रत्न स्त्रियों को क्या भूषित करेंगे! स्त्रियाँ तो रत्न के बिना भी मनोहारिणी होती हैं; परन्तु स्त्री का अंग-संग पाए बिना रत्न किसी का मन हरण नहीं करते।1 आज यदि आचार्य वराहमिहिर यहाँ उपस्थित होते, तो और भी आगे बढ़कर कहते—धर्म-कर्म, भक्ति-ज्ञान, शान्ति-सौमनस्य कुछ भी नारी का संस्पर्श पाए बिना मनोहर नहीं होते—नारी-देह वह स्पर्श-मणि है, जो प्रत्येक ईंट-पत्थर को सोना बना देती है।”
― Banbhatt Ki Aatmakatha
― Banbhatt Ki Aatmakatha
“इधर की स्त्रियों में प्रक्षेप्य और आवेध्य अलंकारों का बड़ा प्रचलन है। परन्तु सुचरिता के कानों में एक चक्राकृति कुंडल के सिवा और कोई भी आवेध्य अलंकार नहीं था और प्रक्षेप्य अलंकार तो उसने पहने ही नहीं थे—मंजीर, नूपुर या कनकमेखला, कुछ भी नहीं। आरोप्य अलंकारों पर उसकी विशेष रुचि जान पड़ती थी; परन्तु उनमें भी एक सुवर्ण-हार और एक मालतीमाला के सिवा कुछ नहीं दिखते थे।”
― Banbhatt Ki Aatmakatha
― Banbhatt Ki Aatmakatha
“रंग मैला था; परन्तु आँखों में अपूर्व माधुर्य था। अधरों पर स्वाभाविक हँसी खिलानेवाला वह धर्म, जिसे सौन्दर्यशास्त्री ‘राग’ कहते हैं, इस गम्भीर मुख-श्री में भी प्रत्यक्ष हो रहा था। उसकी प्रत्येक अंग-भंगिमा से भक्ति की लहर तरंगित हो रही थी; पर अनाड़ी भी समझ सकता था कि वह ‘छायावती’ रही होगी, क्योंकि उसकी प्रत्येक गति से वक्रिमता और परिपाटी-विहित शिष्टाचार प्रकट हो रहे थे। सहृदय लोग जिस रंजक गुण को ‘सौभाग्य’ कहते हैं, जो पुष्प-स्थित परिमल के समान रसिक भ्रमरों का आन्तरिक और प्राकृतिक वशीकरण धर्म है, वह सुचरिता के अपने हिस्से पड़ा था। शोभा और कान्ति उसके प्रत्येक अंग से निखर रही थी और प्रत्येक पदविक्षेप में औदार्य बिखर रहा था।”
― Banbhatt Ki Aatmakatha
― Banbhatt Ki Aatmakatha
“मन्त्ररुद्ध पददलित भुजंग की भाँति मैं जैसे-का-तैसा रह गया।”
― Banbhatt Ki Aatmakatha
― Banbhatt Ki Aatmakatha
“ऐश्वर्यमद और तेजोभ्रष्टता का यह बीभत्स प्रदर्शन था।”
― Banbhatt Ki Aatmakatha
― Banbhatt Ki Aatmakatha
“अगर विशाल ऐश्वर्य देखकर मैं अभिभूत न हो गया होता, तो निश्चय ही इसका उपयुक्त उत्तर देता। वस्तुतः जब मैं बाहर निकल आया, तो मेरे मन में हजार-हजार उत्तर उद्भूत और विलीन होने लगे। मैं अपने विष से आप ही दीर्घकाल तक जलता रहा। मुझे उस समय अपने प्राणों की कोई परवा नहीं थी; परन्तु फिर भी ऐसा उत्तर नहीं दे सका, जो उचित कहा जा सकता है; जो महाराजाधिराज को यह अनुभव करा देता कि महाराजा होने मात्र से किसी को किसी के विषय में अनर्गल विचार रखने का अधिकार नहीं हो जाता।”
― Banbhatt Ki Aatmakatha
― Banbhatt Ki Aatmakatha
“इस बार मेरा आवारा मन मुँहजोर घोड़े की तरह लगाम से विद्रोह कर उठा।”
― Banbhatt Ki Aatmakatha
― Banbhatt Ki Aatmakatha
