“गहरे चिंतन में रहा और फिर बोला, “मैं परमेश्वर के जीवों के बीच रहकर भी उसकी इबादत कर सकता था, क्योंकि इबादत के लिए एकांत की जरूरत नहीं होती। मैंने परमेश्वर को देखने के लिए लोगों को नहीं छोड़ा, क्योंकि उसको तो मैंने अपने पिता और माँ के घर में हमेशा ही देखा है। मैंने तो लोगों को इसलिए छोड़ा, क्योंकि उनके स्वभाव मेरे स्वभाव से टकराते थे। उनके सपने मेरे सपनों से मेल नहीं खाते थे। मैंने मनुष्य को छोड़ दिया, क्योेंकि मेरी आत्मा का चक्र एक ओर घूम रहा था और दूसरी आत्माओं के चक्रों से रगड़ खा रहा था, जो विपरीत दिशा में घूम रहे थे। मैंने सभ्यता को इसलिए छोड़ दिया, क्योंकि मुझे यदि एक पुराना और विकृत पेड़ लगा, जो मजबूत और भयंकर है और जिसकी जड़ें धरती की गुमनामी में बंद हैं तथा उसकी शाखाएँ बादलों के पार पहुँच रही हैं; लेकिन इसके फूल लालच, दुष्टता और गुनाह के हैं। मुजाहिदों ने इसमें भलाई घोलने की और इसकी फितरत बदलने की कोशिश की, लेकिन उन्हें कामयाबी नहीं मिली। वे निराश, प्रताड़ित और आहत होकर मर गए।”
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Khalil Zibran Ki Lokpriya Kahaniyan
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