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by
Tony Joseph
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August 25 - December 6, 2021
“टोनी जोसेफ़ की पुस्तक प्राचीन भारतीय इतिहास के आरम्भिक चरणों का अद्भुत रूप से सुगम्य सारसंक्षेप उपलब्ध कराती है, उन आरम्भिक चरणों का, जिनकी शुरुआत अफ़्रीका के सामयिक मनुष्यों के आगमन से हुई थी और जो वेदों के युग तक जारी रहे थे।
इस निष्क्रमण को ‘कामयाब’ इसलिए कहा गया था, क्योंकि ये प्रवासी ही आज की समस्त ग़ैर-अफ़्रीकी आबादियों के पूर्वज हैं।
अफ़्रीका से बाहर निकले प्रवासी भारत पहुँचते हैं और उनका सामना आदि मानवों की बलशाली आबादी से होता है।
〜 40,000 साल पहले : यूरोप से निएंडरथल विलुप्त हो जाते हैं।
दक्षिण एशिया वह जगह बन जाती है, जहाँ ‘मानव-जाति का अधिकांश हिस्सा’ रहता है। आधुनिक मनुष्य उस जगह पहुँचते हैं, जो शायद दक्षिण और मध्य भारत में अन्य होमो प्रजातियों का लम्बे समय से स्थापित शरण-स्थल रहा था।
इस समय के आस-पास ज़ेग्रॉस क्षेत्र के ईरानी कृषकों का एक समूह दक्षिण एशिया पहुँचता है, जिसके नतीजे में प्रथम भारतीयों के वंशजों के साथ उनका मिश्रण होता है।
बीएमएसी के हड़प्पा सभ्यता के साथ क़रीबी व्यापारिक और सांस्कृतिक संबंघ हुआ करते थे।
यह बात हम इसलिए जानते हैं, क्योंकि आज सारे ग़ैर-अफ़्रीकी होमो सेपियन्स अपने डीएनए में निएंडरथलस के 2 प्रतिशत जीन्स धारण किए हुए हैं।
कुछ का ख़याल था कि वे किसी विशेष ईश्वर की सन्तानें हैं, कुछ का ख़याल था कि वे ईश्वर द्वारा चुने गए लोग हैं, और कुछ का ख़याल था कि उन्हें हर किसी पर शासन करने का दैवीय आदेश मिला हुआ है।
लोगों का यह भी ख़याल था कि पृथ्वी के जिस हिस्से पर उनका अधिकार है, वह सब कुछ का केन्द्र है
इतिहास की शुरुआत तब होती है, जब लेखन की शुरुआत होती है और जब व्यक्ति स्वयं अपने नामों के साथ और कभी-कभी पहचान सकने योग्य क़िस्सों के साथ, हमारे सामने साकार हो उठते हैं।
इसी तरह, आज हम जानते हैं कि यूरोपीयों के आगमन के पहले अमेरिका की स्थानीय अमेरिकी आबादियाँ अपनी वंशावली के लिए एशिया से हुए एक नहीं, बल्कि कम-से-कम तीन स्थानान्तरणों (माइग्रेशन्स) की ऋणी हुआ करती थीं।
परिकल्पना यह थी कि हिन्दुस्तान में पिछले लगभग 40,000 सालों के दौरान किसी बड़े पैमाने पर बाहर के लोगों का आगमन नहीं हुआ था।
इसने इस परिकल्पना को मज़बूत सहारा दिया होता कि अपने को आर्य कहने वाले इंडो-यूरोपियन भाषा बोलने वाले लोग पिछले लगभग 4000 सालों के दौरान, हड़प्पा की सभ्यता के पतन की शुरुआत के बाद हिन्दुस्तान आए थे।
अगर हिन्दुस्तान पर अमिट छाप छोड़ने वाली यह बलशाली सभ्यता ‘आर्यों के आगमन’ से पहले की थी, तो यह चीज़ इस दक्षिणपन्थी दृष्टिकोण की जड़ पर कुठाराघात करती है कि ‘आर्य’, संस्कृत और वेद हिन्दुस्तानी संस्कृति के मूलभूत स्रोत हैं।
बल्कि वह यह सच्चा विश्वास भी हो सकता है कि सच्चाई नुक़सानदेह दुष्प्रभावों (साइड इफ़ैक्ट) का कारण भी बन सकती है और, इसलिए उसको सावधानीपूर्वक देखा जाना ज़रूरी है।
डीएनए साक्ष्य इस बारे में निर्णयात्मक रहा है कि अफ़्रीका के बाहर के सारे मनुष्य अफ़्रीका से आए उन प्रवासियों की एकल आबादी के वंशज हैं, जो 70,000 साल पहले कभी एशिया आए थे और उसके बाद सारी दुनिया में फैल गए थे, जिस दौरान वे होमो निएंडरथलेन्सिस जैसे अपने आनुवांशिक चचेरों की जगह लेते गए थे।
(पिता भी अपनी माँ द्वारा प्रदत्त एमटी-डीएनए को धारण करता है, लेकिन वह उसे अपने, नर या मादा, किसी भी बच्चे को नहीं सौंपता)।
जब आप सारी दुनिया में अफ़्रीका से बाहर के लोगों के एमटी-डीएनए पर नज़र डालेंगे, तो आप पाएँगे कि वे सब L3 नामक उस एक हैप्लोसमूह से आते हैं, जिसकी वंशावली अफ़्रीका में गहराई तक फैली है।
वर्तमान में हम एमआईएस-1 में हैं, जो एक गर्म और नम कालखण्ड है, जिसकी शुरुआत लगभग 14,000 साल पहले हुई थी और जो अभी भी जारी है।
इसलिए अगर अफ़्रीका से स्थानान्तरण किसी गर्म, नम काल-खण्ड में हुआ था, तो हम कह सकते हैं कि यह मोटे तौर पर 60,000 और 50,000 वर्ष पूर्व हुआ था।
(मानसून उस हिमालय के वजूद का एक साइड इफ़ैक्ट है, जिसकी रचना पृथ्वी की सतह की इंडियन परत के यूरेशियाई परत से टकराने से हुई थी, जिसकी शुरुआत लगभग पाँच करोड़ वर्ष पहले हुए थी।)
चूँकि ऑस्ट्रेलिया कभी भी होमो सेपियन्स के अलावा अन्य किसी होमो प्रजाति द्वारा आबाद नहीं रहा,
बहुत सारे उत्परिवर्तनों के उत्पन्न होने के पहले ही एम ऑस्ट्रेलिया के सारे रास्ते फैल चुका था। और हर क्षेत्र के एम के अपने स्वयं के सीधे उपहैप्लोसमूह हैं।
और जिन्होंने लगभग 16,000 वर्ष पूर्व अमेरिकी महाद्वीपों में पहली बार जाने वालों के लिए पड़ाव-स्थल की भूमिका निभाई होगी।
ज़्यादातर संस्कृतियों की ब्रह्माण्ड-विद्या अपने आवास-स्थल को सृष्टि के केन्द्र के रूप में चित्रित करती है।
अधिक ऊँचाइयों पर जीवित बने रहने की क्षमता (तिब्बती) या लम्बे समय तक पानी के नीचे बने रहने की क्षमता (दक्षिण एशिया की बजाऊ जाति) उत्परिवर्तनों के ही रूप हैं।
दूसरे शब्दों में, समय के गुज़रने के साथ छोटी आबादियों में अपनी विविधता को काफ़ी कुछ खो देने और एक-जैसी होते जाने की या एकरूपता की ओर खिसकते जाने की संभावना होती है।
हिन्दुस्तान में पुरापाषाण युगीन औज़ारों का प्राचीनतम साक्ष्य तमिलनाडु में चेन्नई से उन्हत्तर किलोमीटर दूर अत्तिरमपक्कम में मिलता है और इसको लगभग 15 लाख वर्ष पहले का (यानी, आधुनिक मनुष्यों के आविर्भाव के 12 लाख वर्ष पहले का) माना गया है।
मोटे तौर पर इसका मतलब है कि हमारे पूर्वज इस उपमहाद्वीप के विभिन्न हिस्सों में विभिन्न समय पर पहुँचे थे और इस पर एक ही बार में नहीं फैल गए थे। वे सब एक ही, अफ़्रीका से बाहर हुए निष्क्रमण से आए हैं, लेकिन संभव है कि वे हिन्दुस्तान के विभिन्न इलाक़ों में अलग-अलग समय पर पहुँचे हों, ठीक उसी तरह जिस तरह वे दुनिया के विभिन्न हिस्सों में अलग-अलग समय पर पहुँचे थे।
सूक्ष्म-पुरापाषाण-युगीन औज़ारों को लगभग 38000 वर्ष पूर्व भी इसी तरह हम श्रीलंका में प्रकट होते देखते हैं और उसके बाद वे लगभग 3000 वर्ष पूर्व तक क़ायम रहते हैं, लगभग उस समय तक जब लोहा, हिन्दुस्तान और श्रीलंका, दोनों ही जगहों पर अपनी उपस्थिति दर्ज़ कराता है।
इसकी आनुवांशिक विविधता के एक बड़े हिस्से के पीछे वजह यह है कि दक्षिण एशिया, अफ़्रीका के बाद संभवतः दूसरी ऐसी जगह है, जहाँ आधुनिक मनुष्यों की बहुत बड़ी आबादी यहाँ लम्बे समय तक रही है।
लेकिन इससे भी ज़्यादा प्रभावशाली एक और खोज थी। लगभग 6000 ईसापूर्व की एक खोदी गई सतह पर पुरातत्तत्वविदों को वहाँ की दो में से एक क़ब्र में पाए गए ताँबे के मनकों के छेदों के भीतर कपास के रेशे मिले। यह दुनिया में कहीं भी कपास के इस्तेमाल का पहला साक्ष्य था और इस उपमहाद्वीप में ताँबे के इस्तेमाल का भी पहला साक्ष्य था।
दरअसल, राई की खेती के संकेत ईसापूर्व 10,700 से ही मिलने लगे थे। वैज्ञानिकों में इसको लेकर अभी भी कुछ बहस है और इस मसले का हल नहीं हुआ है, लेकिन अगर यह खोज सही है, तो यह किसी भी अनाज की खेती की प्राचीनतम घटना होगी।
उदाहरण के लिए, हम जानते हैं कि एमटी-डीएनए हैप्लोसमूह एम-2 भारतीय उपमहाद्वीप का प्राचीनतम हैप्लोसमूह है, इसका उद्भव लगभग 60,200 वर्ष पहले हुआ था और यह दक्षिण एशिया के बाहर विरले ही पाया जाता है।
मेहरगढ़़ के जिन बाशिन्दों ने कच्ची ईंटों के दो या तीन कमरों के घर खड़े किए थे तब उन्होंने इसे भले न महसूस किया हो, लेकिन वे दक्षिण एशिया में उस पहली विकसित सभ्यता की बुनियाद रख रहे थे, जिसे हड़प्पा सभ्यता या सिन्धु घाटी की सभ्यता के नाम से जाना जाता है।
ऐसा नहीं होता कि सारे कृषिपरक समाज सभ्यताओं में बदल जाते हैं, लेकिन कोई भी सभ्यता कृषि के दौर से गुज़रे बिना सभ्यता नहीं बन सकती।
लोगों की बड़ी संख्या को दूसरी गतिविधियों में संलग्न रहने के लिए छोड़ा जा सकता है,
प्राचीन दुनिया में इसके लिए ऐसी नई विचारधाराओं और नई व्यवस्थाओं या शक्ति-संरचनाओं को गढ़ना ज़रूरी होता था, जो लोगों के बड़े समूहों को बहुत कम मेहनताने के बदले नए उद्यमों में अपना समय लगाने को विवश या तैयार कर सकती। मज़हब और इसी तरह हिंसा इस काम में काफ़ी मददगार साबित होते थे।
उदाहरण के लिए, ऐसी मेसोपोटामियाई मुहरें हैं, जिन पर वे भैंसे चित्रित हैं, जो मेसोपोटेमिया के नहीं बल्कि सिन्धु घाटी के कुदरती निवासी थे।
इस सूरमा के भयानक जानवरों से इस तरह निपटने का क़िस्सा एक मिथक है, जो दोनों सभ्यताओं से पहले का है और यह शिकारी-संग्रहकर्ताओं के युग तक पीछे जाता है, और मेसोपोटेमियाई तथा हड़प्पावासी, दोनों ही अपनी शिल्पकृतियों में इसकी अपने-अपने ढंग से व्याख्या कर रहे थे।
नहीं, हड़प्पा सभ्यता में किसी के भी भड़कीले और विस्तृत अन्तिम संस्कार का कोई निशान नहीं है, और न ही दिवंगत मुखिया के कोई पिरामिड हैं,
हड़प्पा की सभ्यता को उसकी समकालीन सभ्यताओं से अलग करने वाला एक असामान्य लक्षण उसमें ऐसी चीज़ों का अभाव है, जो मनुष्यों के बीच हिंसा को दर्शाती हों।
उनके पास जल-प्रबन्धन की अत्यन्त विकसित प्रौद्योगिकी थी, जो प्राचीन दुनिया में कहीं भी नहीं देखी गई थी, और गुजरात का धोलावीरा इसका एक सर्वश्रेष्ठ उदाहरण था।
इस सबसे बड़ी सभ्यता के एक सिरे से दूसरे सिरे तक हर कहीं सामान को तौलने का एक ही ढंग थाः चेर्त (एक क़िस्म की चट्टान) से बने घनाकार बाट।
अगर आप सोचते हैं कि कंगनों में ऐसा अनोखा क्या है, तो आप ग़लत हैं।
संभवतः हड़प्पा सभ्यता की सबसे महत्त्वपूर्ण ख़ासियत इसके विस्तार में थी - अपने शिखर के दौर में इसने संभवतः दस लाख वर्ग किलोमीटर को घेर रखा होगा, जो मेसोपोटेमिया और मिस्र की सभ्यताओं दोनों को जोड़ लें, तो उससे भी ज़्यादा थी।
दक्षिण एशिया का आधुनिक इंसानी आबादी का केन्द्र होना कोई नई बात नहीं है - यह एक प्राचीन कीर्ति है, जिसको हम बरकरार रखे हैं।
आज के ज़्यादातर इतिहासकारों का मानना है कि हड़प्पा की सभ्यता को विभिन्न ‘नगर राज्यों’ को नियन्त्रित करने वाले किसी एक शक्तिशाली राजा की बजाय एक ‘उच्चवर्गीय समूह’ ने आपस में संगठित कर रखा था।