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by
Tony Joseph
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August 25 - December 6, 2021
Civilization’ शब्द अपनी व्युत्पत्ति में ‘city’ से जुड़ा हुआ है, इसलिए हम कह सकते हैं कि सभ्यता में नगरीय दौर से गुज़रने या उस ‘नगरीय क्रान्ति’ की धारणा पहले से निहित है,
इसलिए जब हम कहते हैं कि भारतीय सभ्यता 5000 साल पुरानी है, तो हमारा अभिप्राय यह होता है कि हड़प्पा सभ्यता के प्रथम नगर इसी समय के आस-पास विकसित हुए थे।
सबसे ज़्यादा ध्यान खींचने वाली चीज़ इन खण्डहरों की विशालता और इसकी दीवारों तथा नींवों की अचूक बनावट तथा मज़बूती है, जो आज भी खड़ी हैं।
गुजरात के अन्य हड़प्पाई स्थलों की ही तरह, लेकिन दूसरी जगहों के स्थलों से भिन्न धोलावीरा के वास्तुशिल्प में कच्ची ईंटों के साथ-साथ रेतीले पत्थर का व्यापक इस्तेमाल किया गया था। इसके विपरीत, हड़प्पा के ज़्यादातर स्थल धुप या आग में पकाई गई ईंटों से बने हैं।
मन्दिर एकमात्र ऐसी संस्था थी, जो उत्पादकों को इस बात के लिए राज़ी कर सकती थी कि वे अपने उत्पादन का एक महत्त्वपूर्ण हिस्सा समुदाय और उसके प्रशासकों के हित में दान कर दें…।
एट्राहेसिस का मिथक। यह बताता है कि मानव-जाति की रचना उन छोटे देवताओं की जगह लेने के लिए की गई थी, जो खेती की कड़ी मेहनत से थक गए थे, ताकि बड़े देवताओं को ज़्यादा चढ़ावा मिल सके।
इसी के साथ यह भी संभव है कि मन्दिर या महल कैसा दिखता है, इसको लेकर हमारे मन में रूढ़ धारणाएँ बनी हों।
जब भाषाएँ लिखी जाने लगी थीं, जिसकी शुरुआत ईसापूर्व 3500 के बाद कभी हुई थी।
अध्याय 2 में हमने देखा था कि एक ऐसा पौधा था, जो हड़प्पा सभ्यता से मेसोपोटेमिया में लाया गया था : तिल।
इसकी सशक्त पुष्टि प्राचीन डीएनए पर आधरित आनुवांशिक अध्ययनों से हो चुकी है, जो संकेत करते हैं कि इंडो-यूरोपियन भाषाओं को यूरोप में लाने वाले घास के मैदान के चरवाहे हड़प्पा काल के आख़िरी दौर में ही हिन्दुस्तान पहुँचे थे और अपने साथ संस्कृत का आरम्भिक रूप और उससे संबंधित सांस्कृतिक अवधारणाएँ और बलि जैसे अनुष्ठानों की प्रथाएँ लेकर आए थे।
ये इंडो-यूरोपियन भाषाएँ बोलने वाले नवागन्तुक ख़ुद को ‘आर्य’ कहते थे।
“सिन्धु की धरोहर को द्रविड़ भाषा बोलने वाले भी साझा करते हैं, भारतीय-आर्य भाषाएँ बोलने वाले भी साझा करते हैं।
दूसरे शब्दों में, इंडो-यूरोपियन भाषा-भाषियों के दक्षिण एशिया पहुँचने के बाद, हड़प्पाइयों की भाषा दक्षिण भारत तक सीमित रह गई थी, जबकि हड़प्पाइयों की संस्कृति और मिथक भारतीय-आर्य-भाषा-भाषी नवागन्तुकों की संस्कृति और मिथकों में मिल गए, जिससे उस एक अनूठी, समन्वयात्मक परम्परा का निर्माण हुआ, जिसे आज भारतीय संस्कृति के सारभूत हिस्से के रूप में देखा जाता है।
मिस्र के प्राचीन शासकों की पदवी फ़ैरो का मतलब भी शब्दश: ‘विशाल मकान’ होता है।
पर्पोला के मुताबिक़, प्लीएडीज़ और सप्तऋषि, दोनों ही सिर्फ़ भारतीय मिथकों में ही नहीं, बल्कि भारत की उस पंचांग-संबंधी ज्योतिष-विद्या में भी महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं, जिसका उद्गम संभवतः हड़प्पा में है।
इससे यह संकेत मिलता है कि जिस समय उत्तर-पश्चिमी हिन्दुस्तान में हड़प्पा सभ्यता ढहना शुरू हो रही थी, उसी समय के आस-पास पूर्वी हिन्दुस्तान के रास्ते आ रहे लोगों का एक ताँता लगा हुआ था।
लेकिन फुलर का मानना है कि जेपोनिका का आगमन उत्तर-पूर्व के रास्ते हुए स्थानान्तरण की बजाय संभवतः हिन्दुस्तान के उत्तर-पश्चिमी क्षेत्र के रास्ते व्यापार की मार्फ़त हुआ होगा।
आप इसे जिस किसी भी ढंग से देखें, हिन्दुस्तान की आबादी को उसकी मौजूदा शक्ल देने वाले कुछ महत्त्वपूर्ण तत्त्व ईसापूर्व 2000 के आस-पास अपनी सही जगह बना चुके थे : अफ़्रीका से बाहर आए प्रवासियों के वंशज, ज़ेग्रॉस के खेतिहर, ऑस्ट्रो-एशियाई भाषा बोलने वाले लोग और तिब्बती-बर्मी भाषा बोलने वाले लोग, लेकिन एक घटक की तब भी कमी थी : उन लोगों की जो ख़ुद को ‘आर्य’ कहते थे।
“ख़ुद को आर्य कहने वाले इंडो-यूरोपियन भाषा-भाषी लोग भारतीय उपमहाद्वीप में कब और कैसे पहुंचे?”
कभी-कभार इसके पीछे आक्रमण भी रहे हो सकते हैं, लेकिन ज़्यादातर इसके पीछे बौद्ध धर्म-प्रचारकों के अपने धर्म के प्रचार के अन्तहीन उद्यम रहे थे,
इसका एक अपवाद ज़रूर है, लेकिन उससे सच्चाई पर कोई प्रभाव नहीं पड़ता - यह अपवाद है रोमा,
यह चीज़ इस लम्बे अरसे से चली आ रही धारणा से मेल खाती है कि यमनाया बाद के समय की मूल-इंडो यूरोपियन भाषा बोलते थे और इन्हीं ने यूरोप तथा एशिया, दोनों जगहों पर इंडो-यूरोपियन भाषाओं का प्रसार किया था।
इसके अलावा भी बहुत कुछ है। क्या याद है कि हमने कहा था कि आज के समय की भारतीय आबादी एएनआई हड़प्पाई (प्रथम भारतीय + ज़ेग्रॉस खेतिहर) + स्टेपी के चरवाहे, और एएसआई (हड़प्पाई + प्रथम भारतीय) के बीच हुए मिश्रण का उत्पाद है?
उन्नत स्टेपी वंशावली के सबसे ज़्यादा सशक्त संकेत उन दो समूहों में थे, जो पारम्परिक तौर पर उन पुराहितों की हैसियत रखते थे, जिनसे संस्कृत में लिखे गए पाठों का संरक्षक होने की उम्मीद की गई थी।
स्टेपी घास और झाड़ियों के मैदानों का एक विशाल क्षेत्र है, जो मध्य यूरोप से चीन तक 8000 किलोमीटर से ज़्यादा के उस विस्तार में फैला हुआ है।
उस समय जिन लोगों ने स्टेपी को आबाद किया था, उनको आज स्टेपी क्षेत्र के ईस्टर्न हंटर-गैदरर्स (ईएचजी -पूर्वी शिकारी-संग्रहकर्ताओं) के रूप में और साइबेरिया क्षेत्र के एंशिएंट नॉर्थ यूरेशियन्स (एएनई-प्राचीन उत्तरी यूरेशियाइयों) के रूप में वर्गीकृत किया गया है।
यह तर्क दिया गया है कि मूल-इंडो यूरोपियन भाषा यमनाया की भाषा बनने से पहले शायद कॉकेसॅस में बोली जाती रही होगी।
गाड़ियाँ और घोड़े यमनाया के जीवन के लिए कितने महत्त्वपूर्ण थे, यह बात इस तथ्य से ज़ाहिर होती है कि उनको उनके मालिकों के साथ दफ़नाया जाता था, जैसा कि उस युग के कुर्गन में देखा गया है।
उनकी वजह से यमनाया ने धातु शोधन की उस विद्या में भी महारथ हासिल कर ली थी, जो टकराव की उस दुनिया में एक महत्त्वपूर्ण दक्षता थी। और टकराव शुरू होने को ही था।
ब्रिटेन में बेल बीकर संस्कृति से संबंधित इन आगन्तुक इंडो-यूरोपियन भाषा-भाषी लोगों ने इस द्वीप के उन शुरुआती लोगों की जगह ले ली थी, जिन्होंने स्टोनहैंज का निर्माण किया था।
आनुवांशिकी इस सवाल का जवाब नहीं दे सकती कि वह किस तरह का बल-प्रयोग रहा होगा, जिसने इस बात को सुनिश्चित किया होगा कि इबेरियाई पुरुष नवागन्तुक यमनाया पुरुषों की तुलना में अपने पीछे बहुत थोड़े-से बच्चों को छोड़कर जाते। क्या उनको मार डाला गया था, खदेड़ दिया गया था या महज़ हाशिए पर धकेल दिया गया था?
अपनी पुस्तक द हॉर्स, द ह्नील ऐंड लैंग्युएज में एन्थॅनी रूसी पुरातात्त्विक स्थल सिन्ताश्ता और अर्केम तथा ऋग्वेद में वर्णित स्थलों के उत्खनन के दौरान सामने आई प्रथाओं के बीच की समानताओं की विस्तार से छानबीन करते हैं
एन्थॅनी एक स्रबनाया स्थल का वर्णन करते हैं, जिसकी खुदाई उन्हीं ने की थी और जिसमें स्टेपी के पुरातात्त्विक साक्ष्यों तथा भारतीय और ईरानी मिथकों के बीच के रिश्ते के आश्चर्यजनक साक्ष्य मौजूद थे।4
अन्तिम संस्कार की नई शैली के ऐसे अनुष्ठानों की रचना की थी, जिनमें समृद्धि और उदारता का भव्य प्रदर्शन किया जाता था और धातुओं के उत्खनन तथा उत्पादन की एक ऐसे पैमाने पर शुरुआत की थी,
पश्चिमी यूरोप में कृषि प्रौद्योगिकी ईसापूर्व 7000 और ईसापूर्व 5000 के दरम्यान पश्चिम एशिया से आए अनातोलियाई खेतिहरों द्वारा लाई गई थी। लगभग इसी समय दक्षिण एशिया में भी ज़ेग्रॉस के चरवाहों का आगमन हुआ था,
यूरोप में स्टेपी से आए लागों के प्राचीन डीएनए साक्ष्यों ने बहुत-से पुरातत्त्वविदों को आश्चर्य में डाल दिया था, क्योंकि दूसरे विश्व युद्ध के बाद इनके मन में नाज़ियों और उनके सिद्धान्तों और उन विश्वासों के प्रति नफ़रत पैदा हो गई थी, जिनमें एक उनकी यह धारणा भी शामिल थी कि वे पूर्वी यूरोपीयों या यहूदियों से भिन्न ‘आर्यों’ की एक श्रेष्ठ और ‘शुद्ध नस्ल’ से संबंध रखते थे;
और नाज़ियों के विश्वास के विपरीत, स्टेपी के जिन चरवाहों को वे ‘आर्य’ कहते थे, वे स्वयं किसी भी सूरत में ‘शुद्ध नस्ल’ नहीं, बल्कि मिश्रित वंशावली के लोग थे। और भी मार्मिक तथ्य यह है कि वे पूर्वी यूरोप के उसी क्षेत्र से आए थे, जिसके प्रति नाज़ियों के मन में गहरी घृणा का भाव था।
अमेरिकी महाद्वीपों में यूरोपीयों द्वारा लाई गई बीमारियों ने उन महाद्वीपों की मूल आबादी को तबाह करने में ख़ासी बड़ी भूमिका निभाई थी। क्या उन्होंने उस हड़प्पा सभ्यता के लुप्त होने में भी कोई भूमिका निभाई थी, जिसका पतन लगभग उसी समय शुरू हो गया था, जब स्टेपी से निकले शुरुआती लोग हिन्दुस्तान पहुँचे थे?
इस अध्ययन के निष्कर्षों की सबसे प्रबल पुष्टि तब हुई, जब भूगर्भीय समय पर अधिकृत तौर पर नज़र रखने वाली संस्था इंटरनेशनल कमीशन ऑन स्टै्रटीग्राफ़ी (आईसीएस) ने जुलाई 2018 में ‘द मेघालयन’ नामक एक नए युग को प्रस्तुत किया, जो ईसापूर्व 2200 से आज तक जारी है और
लेकिन जैसा कि हम बाद में देखेंगे, हड़प्पा सभ्यता का भले ही ईसापूर्व 1900 के आस-पास पतन हो गया हो, लेकिन न तो इसके लोग लुप्त हुए, न भाषा लुप्त हुई और न ही अपने समय की इस सबसे बड़ी सभ्यता से जुड़े विश्वास और रीति-रिवाज़ लुप्त हुए।
‘आर्य’ अपने साथ एक चरवाहा जीवन-शैली, बलि के बड़े अनुष्ठानों जैसे नए धार्मिक रीति-रिवाज़, योद्धा परम्परा और घुड़सवारी तथा धातुकर्म लेकर लगभग इसी समय या इसके थोड़े समय बाद आए थे।
आनुवांशिकी की भाषा में हड़प्पा के लोगों ने दक्षिण जाकर और प्रायद्वीपीय भारत के प्रथम भारतीयों के साथ मिश्रित होकर पैतृक दक्षिण भारतीयों की उत्पत्ति में योगदान किया था और आगन्तुक ‘आर्यों’ के साथ मिश्रित होकर पैतृक उत्तर भारतीयों की उत्पत्ति में भी योगदान किया था।
हिन्दुस्तान को अपने ‘दूसरे नगरीकरण’, जिसकी शुरुआत ईसापूर्व 500 में हुई थी, के लिए हड़प्पा सभ्यता के बाद एक हज़ार साल से भी ज़्यादा समय तक इन्तज़ार करना पड़ा, तो इसकी आंशिक वजह यह हो सकती है कि स्टेपी से आया यह नया वर्चस्वशाली अभिजात वर्ग स्पष्ट तौर पर एक ग़ैर-नगरीय, घूमन्तू जीवन-शैली को प्राथमिकता देता था।
शुरुआती असंबंध के कुछ उदाहरण ये हैं। ऋग्वेद के देवी-देवताओं - इन्द्र, अग्नि, वरुण और अश्विन - हड़प्पा की छवियों के विशाल ख़ज़ाने में किसी भी तरह से निरूपित नहीं हैं।
ऋग्वेद शिश्न-देव (शाब्दिक अर्थ : लिंग-देवता या लिंग-उपासक) की निन्दा करता है, जबकि हड़प्पा के शिल्प किसी के भी मन में इस बात को लेकर सन्देह की गुंजाइश नहीं छोड़ते कि लिंग-पूजा उसके सांस्कृतिक ख़ज़ाने का हिस्सा थी।
लेकिन, वे यह भी स्वीकार करते हैं कि वेदों में ‘शिश्न-देवों’ की अवहेलना और हड़प्पा सभ्यता में घोड़े का अभाव इस सभ्यता को वैदिक सभ्यता के रूप में पहचानने में समस्या पैदा करते हैं। उनका ख़याल है कि जब तक हड़प्पा की लिपि पढ़ नहीं ली जाती, यह विवाद जारी रहेगा।
दूसरा यह है कि ऋग्वेद ‘अयस’ की भी बात करता है, जिसका अर्थ साफ़ तौर पर काँसा है, क्योंकि जब बाद में लोहे की खोज की गई, तो इसके लिए उनको एक नया शब्द गढ़ना पड़ा था, ‘कृष्ण अयस’ या काला काँसा।
और, निश्चय ही, वैदिक साहित्य की बजाय आम सामाजिक व्यवहारों में हड़प्पा सभ्यता की सांस्कृतिक निरन्तरता कहीं ज़्यादा प्रतिबिम्बित होती है।
मूर्धन्य व्यंजन (जिनका उच्चारण करने के लिए आपको अपनी ज़बान को मोड़कर तालू से टकराना होता है) इंडो-यूरोपियन भाषाओं में बहुत कम पाए जाते हैं, लेकिन वे आर्यों से पहले की भारतीय भाषाओं में, जैसे कि द्रविड़ भाषा-परिवार में बहुत आम हैं। इन्होंने स्वयं ऋग्वेद की संस्कृत में अपनी जगह बना ली थी।