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जा सके? अगर आप में करुणा नहीं है तो आप नहीं समझ सकेंगे हिंदू होने को, बौद्ध होने को या मुसलमान होने को। करुणा के बिना कोई धार्मिक नहीं हो सकता। जिसमें करुणा नहीं होती, वह धार्मिक होने के नाम पर वहशी हो जाता है। उसके लिए धर्म वर्चस्व कायम करने का ज़रिया बन जाता है। दरअसल, धर्म अंतत: आपको सहनशील होना सिखाता
पूछा जाता है कि पंद्रह अगस्त क्यों मनाएँ, कुछ ऐसा हुआ तो नहीं है; तब मैं यही जवाब देता हूँ कि अगर आपने अपने भीतर किसी भी प्रकार की नफ़रत पर काबू पाया है, सहनशीलता बढ़ाई है तो आप पंद्रह अगस्त मनाने के पूर्ण हक़दार हैं। अगर आपको किसी दूसरे धर्म या समुदाय से नफ़रत नहीं होती तो आप पंद्रह अगस्त मना सकते हैं। अगर आपने नफ़रत के ख़िलाफ़ आवाज़ उठाई है या उससे अपने भीतर लड़ाई की है तो यह समझिए कि भगत सिंह आपके लिए शहीद हुए, खुदीराम बोस आपके लिए फाँसी पर चढ़े, महात्मा गांधी ने आपके लिए सीने पर गोली खाई। आपको पंद्रह अगस्त ज़रूर मनाना चाहिए।
देश सही सूचनाओं से बनता है। फ़ेक न्यूज़, प्रोपगैंडा और झूठे इतिहास से हमेशा भीड़ बनती है।
नफ़रत के माहौल और सूचनाओं के सूखे में कोई है जो इस रेगिस्तान में कैक्टस के फूल की तरह खिला हुआ
है। रेत में खड़ा पेड़ कभी यह नहीं सोचता कि उसके यहाँ होने का मतलब क्या है। वह दूसरों के लिए खड़ा होता है, ताकि पता चले कि रेत में भी हरियाली होती है। जहाँ कहीं भी लोकतंत्र को हरे-भरे मैदान से रेगिस्तान में तब्दील किया जा रहा है, वहाँ आज नागरिक होने और सूचना पर उसके अधिकार की लड़ाई थोड़ी मुश्किल ज़रूर हो गई है, मगर असंभव नहीं
मीडिया की भाषा में दो तरह के नागरिक हैं—एक तो नेशनल और दूसरे, एंटी-नेशनल। एंटी-नेशनल वह है जो सवाल करता है, असहमति रखता है। असहमति लोकतंत्र और नागरिकता की आत्मा है। उस आत्मा पर रोज़ हमला होता है। जब नागरिकता ख़तरे में हो या उसका मतलब ही बदल दिया जाए, तब उस नागरिक की पत्रकारिता कैसी होगी?
महात्मा गांधी ने 1 जनवरी, 1948 को कहा था—‘फ़ुजूल की बेएतबारी जहालत और बुज़दिली की निशानी है।’
वह अंधविश्वास से घिरे नागरिकों को सचेत और समर्थ नागरिक बनाने का प्रयास छोड़ चुका है। अंध-राष्ट्रवाद और सांप्रदायिकता उसके सिलेबस का हिस्सा हैं।
जिसमें हर दिन नागरिकों को डराया जाता है, उनके बीच असुरक्षा पैदा की जाती है कि बोलने पर आपके अधिकार ले लिए जाएँगे। इस मीडिया के लिए ‘विपक्ष’ एक गंदा शब्द
मेनस्ट्रीम मीडिया उनकी परवाह नहीं करता है। भारत में शाम तो सूरज डूबने से होती है, लेकिन रात का अँधेरा न्यूज़ चैनलों पर प्रसारित होने वाली ख़बरों से फैलता है।
बग़ैर डिमॉन्स्ट्रेशन के कोई भी डिमोक्रेसी, डिमोक्रेसी नहीं हो सकती है। इन प्रदर्शनों में शामिल लाखों लोग अब खुद वीडियो बनाने लगे हैं। फ़ोन से बनाए गए उस वीडियो में ख़ुद ही रिपोर्टर
हर दूसरे मैसेज में लोग अपनी समस्या के साथ पत्रकारिता का मतलब भी लिखते हैं। मेनस्ट्रीम न्यूज़ मीडिया भले ही पत्रकारिता की परिभाषा को भूल गया है, लेकिन जनता को याद है कि पत्रकारिता की परिभाषा कैसी होनी
मेरा प्राइम टाइम शो अब अक्सर लोगों के भेजे गए मैसेज के आधार पर बनने लगा है। यह व्हॉट्सएप्प का रिवर्स इस्तेमाल था। एक तरफ़ राजनीतिक दल का आईटी सेल लाखों की संख्या में सांप्रदायिकता, ज़ेनोफोबिया, अंधराष्ट्रवाद फैलाने वाले मैसेज भेज रहा है, तो दूसरी तरफ असली ख़बरों के मैसेज भी मुझ तक पहुँच रहे हैं। मेरा न्यूज़रूम NDTV इंडिया के न्यूज़रूम से शिफ़्ट होकर लोगों के बीच चला गया
होगा। जो बड़ा भाई छोटे भाई को टीवी नहीं देखने दे रहा है, जो पिता अपनी बेटी को प्राइम टाइम देखने से रोक रहे हैं, वह घर में स्टेट की तरह बर्ताव करने वाला नागरिक पैदा हो गया है। यही डरने वाली बात है। चुनौती सिर्फ़ स्टेट नहीं है, स्टेट जैसे हो चुके लोग
बनाए। स्टेट से सवाल कर सकने का माहौल बनाने की ज़िम्मेदारी भी सरकार की है। एक सरकार का मूल्यांकन आप तभी कर सकते हैं, जब उसके दौर में मीडिया स्वतंत्र हो। सूचना के बाद अब अगला हमला इतिहास पर हो रहा है, जिससे हमें ताक़त मिलती है, प्रेरणा मिलती है। अब उस इतिहास को छीना जा रहा है।