Bolna Hi Hai : Loktantra, Sanskriti Aur Rashtra Ke Bare Mein (Hindi Edition)
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पुलिसवाले की हिम्मत दरअसल इसलिए बढ़ी हुई है क्योंकि उसे मालूम है कि इस डर के नेशनल प्रोजेक्ट की जो अथॉरिटी है, जो उसका पॉलिटिकल मास्टर है, वह हवा में नहीं है। सच में है। वह उसे बचाएगा। इसलिए वह एक विचारधारा विशेष की ख़बर करने से पत्रकारों को रोक रहा है।
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हम सिर्फ़ लोकतांत्रिक बहसों का गला घोट दिए जाने के ख़िलाफ़ नहीं लड़ रहे हैं। हमारे लिए अब मुश्किल यह हो गया है कि हम अपने मोहल्ले में भी नहीं निकल पाएँगे। इसकी इन्होंने तैयारी कर दी
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प्रोजेक्ट ज़रूर पूरा हो गया है! हमें अब हर हफ़्ते का कैलेंडर निकाल लेना चाहिए। अभी तो हम ऐसी घटनाओं की निंदा करने की मीटिंग कर रहे हैं, जल्दी ही हम श्रद्धांजलि सभाओं में मिलेंगे।
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उन्होंने नरेंद्र दाभोलकर और गोविंद पंसारे के मामले में बहुत अच्छा काम किया है। वहाँ बीजेपी की सरकार है, कर्नाटक में कांग्रेस की। दोनों जगह रवैया वही है। तो समझ लीजिए कि हम पार्टियों के हिसाब से चाहे जितना बँट जाएँ, सरकारें हमारे ही ख़िलाफ़ हैं। आप चाहे महाराष्ट्र के उदाहरण से देख लीजिए या फिर कर्नाटक के उदाहरण से देख लीजिए।
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वह व्यक्ति ऐसे लोगों को फॉलो करता है जो किसी के मरने पर उसे कुतिया लिखता है। मुझे दुख है अपने प्रधानमंत्री पर, क्योंकि हमारे प्रधानमंत्री चाहे जितनी शिकायत कर लें इस देश से, वह यह शिकायत नहीं कर सकते कि जनता ने उन्हें सत्ता सौंपने में कोई कमी की है।
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तब प्रधानमंत्री बताएँ कि उनके पास ऐसा ख़ाली वक़्त कहाँ से कैसे आया, जबकि देश सेवा करने के चलते उनको सोने तक का
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समय नहीं होता; जैसा कि उनकी प्रोपेगैंडा टीम बताती है! वो यह बताएँ कि उनके पास यह वक़्त कब मिला कि वह दधीचि जैसे लड़कों को फॉलो कर रहे थे जो गौरी लंकेश को उनकी हत्या के बाद कुतिया लिख रहे
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नागरिक के तौर पर अपने प्रधानमंत्री से यह पूछना चाहिए कि आप दधीचि जैसों को ट्वीटर पर क्यों फॉलो करते हैं। वह ऐसा क्या कंट्रीब्यूट करता है जो हिंदुस्तान की 30 फीसदी आबादी, जो आपको वोट देती है, वह नहीं करती है?
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यह डर का कैसा राष्ट्रीय वातावरण है भाई कि पत्रकार को भी एसपीजी सुरक्षा या किसी भी तरह की सुरक्षा व्यवस्था की ज़रूरत पड़ जाए?
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आप किसी महिला आयोग के अध्यक्ष का नाम जानते हैं जिन्होंने उन दोनों महिलाओं को सपोर्ट किया हो। किसी मंत्री-संत्री, महासचिव, अध्यक्ष इत्यादि का नाम बता सकते हैं, जिन्होंने उन दोनों महिलाओं के बारे में ट्वीट किया हो? जिनकी लड़ाई की बदौलत इतने बड़े बाबा का साम्राज्य ध्वस्त हुआ है, लेकिन हमारा समाज और इसके जो
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महिला पत्रकार की हत्या हुई है। यह भी एक सवाल है कि इस देश में बहुत मुश्किल से कुछ महिलाएँ उस स्तर पर पहुँच पाती हैं, जहाँ वह अपनी प्रखरता से, सवालों से सरकार को और समाज को आईना दिखाती हैं। यह एक प्रतिभा का नुकसान है।
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लगातार आम लोगों की आकांक्षाओं की हत्या हो रही है। उनको डराया जा रहा है, उनके बीच भय का एक माहौल पैदा किया जा रहा है। इस पैटर्न को समझिए। इसी की शिकार हुई हैं हमारी गौरी लंकेश, एक साहसिक पत्रकार!
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की तमाम रातों में 9 और 10 नवंबर, 1938 की रात ऐसी रही है जो आज तक नहीं बीती है। न वहाँ बीती है और न ही दुनिया में कहीं और। उस रात को ‘क्रिस्टल नाइट’ या ‘नाइट ऑफ़ ब्रोकेन ग्लास’ कहा जाता
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छीन
Abhishek Ghongade
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हिटलर का शातिर ख़ूनी प्रोपेगैंडा मैनेजर गोएबल्स यहूदियों के ख़िलाफ़ हो रही हिंसा की ख़बरें उस तक पहुँचा रहा था।
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हम इतिहास की क्रूरताओं को फासीवाद और सांप्रदायिकता जैसे शब्दों में समेट देते हैं, मगर
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7 नवंबर, 1938 की रात पेरिस में एक हत्या होती है, जिसके बहाने जर्मनी भर के यहूदियों के घर जला दिए जाते हैं। इस घटना से हिटलर और गोएबल्स के तैयार मानस-भक्तों को बहाना मिल जाता है, जैसे भारत में नवंबर 1984 में दिल्ली में बहाना मिला था, जैसे 2002 में गोधरा के बाद गुजरात में बहाना मिला था।
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जर्मनी में लोग ख़ुद भीड़ बनकर गोएबल्स और हिटलर का काम करने लगे थे। जो नहीं कहा गया, वो भी किया गया और जो किया गया उसके बारे में कुछ नहीं कहा गया। एक चुप्पी थी जो आदेश के तौर पर पसरी हुई थी। इसके लिए प्रेस को मैनेज किया गया।
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1933 की शुरुआत में जर्मनी में 50,000 यहूदी बिज़नेसमैन थे। जुलाई 1938 तक आते-आते सिर्फ़ 9000 ही बचे थे। 1938 के बसंत और सर्दी के बीच इन्हें एकदम से धकेलकर निकालने की योजना पर काम होने लगा। म्यूनिख शहर में फ़रवरी 1938 तक 1690 यहूदी बिज़नेसमैन थे, अब सिर्फ़ 660 ही बचे रह गए। यहूदियों के बनाए बैंकों पर क़ब्ज़ा हो गया।
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आग बुझाने वाली पुलिस को आदेश दिया गया कि यहूदियों की जिस इमारत में आग लगी है, उस पर पानी की बौछारें नहीं डालनी हैं; बल्कि उसके पड़ोस की इमारत पर डालनी है ताकि किसी आर्यन मूल के जर्मन का
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घर न जले। आग किसी के घर में और बुझाने की कोशिश वहाँ जहाँ आग ही न लगी हो। यही तर्क अब दूसरे रूप में देखने को मिलता है। आप जुनैद की हत्या के विरोध में प्रदर्शन कीजिए तो पूछा जाएगा कि कश्मीरी पंडितों की हत्या के विरोध में प्रदर्शन कब करेंगे। जबकि जो पूछ रहे हैं, वही कश्मीरी पंडितों की राजनीति करते रहे हैं और अब सरकार में
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लोग उस प्रोपेगैंडा के साँचे में ढलते चले गए। लोगों को भी पता नहीं चला कि वे एक राजनीतिक प्रोपेगैंडा के लिए हथियार में बदल दिए गए हैं। आज भी बदले जा रहे हैं। जर्मनी में पुलिस ने गोली नहीं चलाई, बल्कि लोग हत्यारे बन गए। जो इतिहास से सबक नहीं लेते हैं, वो आने वाले इतिहास के लिए हत्यारे बन जाते हैं। प्रोपेगैंडा का एक ही काम है, भीड़ का निर्माण करना, ताकि ख़ून वो करे, तो दाग़ भी उसी के दामन पर आए। सरकार और महान नेता निर्दोष नज़र आएँ। भारत
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जब भीड़ का साम्राज्य बन जाता है तब कुतर्क हमारे दिलो-दिमाग़ पर राज करने लगता है।
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उसी इज़राइल पर फ़िलिस्तीन क्रूरता बरतने और नरसंहार करने के आरोप लगाता है। क्या हिंसा का शिकार समाज अपने भोगे हुए की तरह या उससे भी ज़्यादा हिंसा करने की ख़्वाहिश रखता है? गांधी ने तभी अंहिसा पर इतना ज़ोर दिया। अहिंसा नफ़रतों के कुचक्र से मुक्ति का मार्ग है। हम कब तक फँसे रहेंगे?
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हिटलर की जर्मनी में पुलिस तो भीड़ की ही साथी बन गई थी। भारत में भी भीड़ लोगों की हत्या कर रही है। अभी इन घटनाओं को इक्का-दुक्का ही पेश किया जा रहा है। जर्मनी में भी पहले-दूसरे चरण में यही हुआ। जब तीसरा चरण आया तब उसका विकराल रूप नज़र आया। तब तक लोग छोटी-मोटी घटनाओं के प्रति सामान्य हो चुके थे। इसीलिए ऐसी किसी भीड़ को लेकर आशंकित रहना चाहिए। सतर्क भी।
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इतिहास-लेखन की प्रक्रिया किसी एक रेखा की सीध में एकदम नहीं चलती। वह किसी एक बिंदु विशेष पर ख़त्म नहीं होती। वह लगातार चलती रहती है। एक किताब के समानांतर 10 किताबें आती रहती हैं। एक शोध को दूसरे शोध ख़ारिज़ करते रहते हैं।
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जो आज हैं, लेकिन जिनका उस इतिहास से कोई लेना-देना नहीं है, जो जैसा हुआ, वैसा होने में जिनका कोई क़सूर नहीं है, उनसे भी उसका बदला लिया जाना है।
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कोई भीड़ है जो पहलू ख़ान को मारती है, जो मुहम्मद अख़लाक़ को मारती है, जुनैद ख़ान को मारती है या केरल में किसी और को मारती है। आपके घर का नौजवान उस भीड़ में बदल जाता है।
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सिंडलर्स लिस्ट
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हमारे देश में, ख़ास तौर पर इन टीवी चैनलों के ज़रिये एक तरह से हमें अमानवीय और वहशी बनाने की एक ‘परंपरा’ को आगे बढ़ाया जा रहा है। इसी तरह के नैरेटिव रोज़ गढ़े जा रहे हैं। आप अभी अगर सावधान नहीं होना चाहते तो कोई बात नहीं। लेकिन किसी वक़्त में जब यह बात आपको याद आएगी, तब आप बहुत परेशान होंगे। अपने लिए नहीं, अपने बच्चों के लिए; क्योंकि
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इतिहास का ऐसा ग़लत इस्तेमाल नहीं होना चाहिए। आप लाइब्रेरी में जाइए और पढ़िये कि नेहरू और बोस के बीच आपसी संबंध कैसे थे। उन संबंधों में कैसा उतार-चढ़ाव था, उस बारे में ज़रूर पढ़िए, लेकिन अगर आप टीवी चैनलों पर होने वाली बहसों को सुनकर इस बारे में अपनी कोई राय बनाएँगे तो गड्ढे में ही गिरेंगे। जिस एंकर को दिन में दो अख़बार पढ़ने का वक़्त नहीं होता, वह रोज़ रात को इतिहासकार बनकर आपकी बुद्धि भ्रष्ट कर रहा होता है।
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अगर आप नेहरू और सरदार के रिश्तों को पढ़ेंगे तो आपकी आँखें भर आएँगी। ऐसे दो दोस्त, दो हमसफ़र ज़िंदगी में मिल जाएँ तो आपकी ज़िंदगी धन्य हो जाए। अपनी ज़िंदगी में आप किसी के लिए नेहरू बन सकें और कोई आपके लिए सरदार बन सके तो सोचिए कि आपने ज़िंदगी में बहुत कमाया है।
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नेहरू और पटेल के बीच जो परस्पर आदर-सम्मान का भाव था, जैसी उनकी दोस्ती थी, उसका पाठ तो राजनीति की टेक्स्ट बुक में पढ़ाया जाना चाहिए। कैसे नेहरू और पटेल एक-दूसरे से असहमत होते हुए भी एक-दूसरे का इतना सम्मान करते थे, नई
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पीढ़ी को यह पाठ पढ़ाया जाना चाहिए, न कि यह बताया जाना चाहिए कि दोनों ने एक-दूसरे की ज़िंदगी बर्बाद की। दोनों ने एक-दूसरे की महत्त्वाकांक्षाओं पर पानी फेर दिया। नहीं, ऐसा नहीं था। असहमतियों के बीच सहमति का रास्ता बनाने का सबसे बड़ा राष्ट्रीय उदाहरण अगर हिंदुस्तान की राजनीति में है तो वह सरदार पटेल और नेहरू का है।
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यह जो मानहानि का क़ानून है, बहुत सामंती चीज़ है। ताक़तवर और अमीर लोग इसका मनमाना इस्तेमाल करते हैं। कभी किसी ग़रीब को आपने यह कहते सुना कि ‘मेरी मानहानि हो गई है। आपने मुझे फ़सल का न्यूनतम समर्थन मूल्य नहीं दिया है। क़र्ज़ न चुका पाने की ग्लानि से आपने मुझे आत्महत्या करने की हालत में ला दिया है और अब रस्सी पर लटकने जा रहा हूँ। मेरी जो मानहानि हुई है, उसके लिए मैं आप पर अदालत में दावा ठोकूँगा।’
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राजस्थान में एक क़ानून आते-आते रह गया—प्रस्तावित आपराधिक क़ानून (राजस्थान संशोधन) अध्यादेश, 2017—यह विधेयक राज्य के सेवानिवृत्त एवं सेवारत न्यायाधीशों, मजिस्ट्रेटों और लोकसेवकों के ख़िलाफ़ सरकार की पूर्व अनुमति के बिना भ्रष्टाचार के किसी भी आरोप की रिपोर्टिंग पर रोक लगाने वाला था। यहाँ के सक्रिय नागरिकों और पत्रकारों को बधाई! अगर वो अब नहीं बोलते तो कभी नहीं बोल पाते। राजस्थान पत्रिका ने बहुत साहसिक क़दम उठाया कि जो बोलना ज़रूरी था, वह बात उसी वक़्त अख़बार के पहले पन्ने पर गुलाब कोठारी जी ने अपने संपादकीय में कह दी। उसके बाद फिर उन्होंने संपादकीय पेज पर जो ख़ाली स्पेस छोड़कर प्रतीकात्मक संदेश ...more
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आप अगर सत्ता से सवाल पूछते हैं तो आपको देशद्रोही कहा जाता है। सोशल मीडिया पर आपके ख़िलाफ़ अभियान चलाया जाता है। घेर कर नारेबाजी की जाती है और इस प्रक्रिया में आप डरने लगते हैं। डरते-डरते आप अपने बच्चों को कहने लगते हैं कि फेसबुक पर बहुत लिख रहे हो, कम लिखा करो। बहुत सारे लोग बताते हैं कि ‘मैं लिख रहा था, लेकिन मेरी माँ ने बहुत मना किया कि ज़माना बहुत ख़राब है। तुम मत लिखा करो। अब मैं नहीं लिखूँगा।’
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अव्वल तो राजनीति में सबको एक दल का समर्थक होना नहीं चाहिए। कई तरह के दल और कई तरह की विचारधाराएँ समाज में होनी चाहिएँ। इतना भरोसा होना चाहिए कि हम इससे डील कर सकते हैं।
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न्याय की लड़ाई लड़ने वालों को संविधान पर भरोसा रखना चाहिए। राजनीति में अपना इस्तेमाल नहीं होने देना चाहिए, ताकि जनता को संविधान और अपनी नागरिकता की शक्ति पर भरोसा रहे।
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जब आप अनुरोध करते हैं, तब आप लोकतंत्र के लोक नहीं रह जाते। अपने जनता होने का अधिकार आप छोड़ देते हैं। सूरत के व्यापारी साईं भजन की तर्ज़ पर अपनी माँगों को भजन की तरह गाने लगे।
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जब हम जनता होकर जनता का साथ नहीं देते हैं, उसकी तकलीफ़ से हमें फ़र्क़ नहीं पड़ता तो हमारे बोलने का असर किसी पर कैसे होगा? जिस तरह आप किसी और के वक़्त चुप थीं, उसी तरह कोई और आपके वक़्त चुप है। इसीलिए कहता हूँ कि आवाज़ उठाने का अभ्यास कीजिए। कोई दूसरा भी बोले तो उसके लिए बोलिए और उसके बोलने के अधिकार की रक्षा कीजिए। वह जनता बनता है आवाज़ उठाने से, और जब भी कोई व्यक्ति जनता बने, उसका हौसला बढ़ाइए। भले ही उसके प्रयास से आपकी असहमति हो, मगर इस हद तक तो उसका साथ दीजिए कि उसे बोलने दिया जाए, उसे सुना जाए। नहीं सुनना भी एक तरह से नहीं बोलने देना
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जनता का साथ दीजिए। राजनीति का कोई भी अतिवादी रूप अंत में जनता को कमज़ोर करता है। उसके लोकपन और जनबोध को छीन लेता है। यही वजह है कि आपकी कोशिश भले ईमानदार है, मै’म, मगर असरदार नहीं है।
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क्यों लगता है? इस देश में डर इसलिए भी लगता है कि सबको, किसी को भी, झूठे मुक़दमों में फँसाना बहुत आसान है। जब आप सरकार के ख़िलाफ़ बोलते हैं, तब आपके दिमाग़ में यह बात अनायास आती है कि सरकार किसी झूठे मुक़दमे में फँसा देगी और जेल में बंद कर देगी। जैसे ही यह बात आपके दिमाग़ में आती है, आपको यह ज़रूर सोचना चाहिए कि आपने सरकार चुना है या अपने लिए डर चुना
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आज़ादी की लड़ाई में गांधीजी का सबसे बड़ा एक योगदान यह था कि निरीह-से-निरीह जनता के मन से भी उन्होंने अंग्रेज़ों की जेल का भय समाप्त कर दिया था। अंग्रेज़ों ने जेल का भय कायम करने के लिए अंडमान में सेल्यूलर जेल बनाया था, वहाँ भेजे जाने की सज़ा का मतलब कालेपानी की सज़ा! उसका जनता में बड़ा डर था। गांधीजी ने जेल के डर को इस कदर मिटा दिया कि लोग वहाँ भी चले गए। जो लोग माफ़ी माँगकर आ गए, मैं उनकी बात नहीं करता।
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लिए एंटीसेपेटरी बेल की व्यवस्था थी, अब क़ायदे से एंटीसेपेटरी जेल की भी व्यवस्था होनी चाहिए। तब हम ख़ुद अदालत को अर्ज़ी लिख दिया करेंगे कि जल्द ही गर्मी की छुट्टियाँ आ रही हैं। उस दौरान दो महीने मैं जेल में रहना चाहता हूँ, ताकि बाद में सरकार अगर मुझे किसी फ़र्ज़ी मुक़दमे में फँसा दे तो उसमें इसे एडजस्ट कर लिया जाए।
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यदि हम अपने आपको गांधी का सच्चा सेवक कहते हैं, तो ज़रूरी है कि हम इस जेल जाने के डर से मुक्ति के लिए अग्रिम जेल व्यवस्था की माँग करें।
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मैं एक बात बता रहा हूँ कि जनता, जनता क्यों नहीं है। दरअसल, आपके लोकतांत्रिक होने की प्रक्रिया को बहुत साहस की ज़रूरत होती है। ऐसे नहीं कि आप फ़्री-फंड में लोकतांत्रिक हो जाते हैं, रोज़ प्रैक्टिस करना पड़ता है लोकतांत्रिक होने के लिए। एक दिन आप नेट प्रैक्टिस नहीं करेंगे तो आपका
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भरोसा करना अच्छी बात है, लेकिन भरोसे की बुनियाद तथ्यों पर आधारित होनी चाहिए, भावनाओं पर नहीं।
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जो लोग इस सर्वे को ट्वीट कर रहे थे या इसका जश्न मना रहे थे, मुझे लगा, थोड़ा पढ़ भी लेते हैं। इनमें 50-55 फ़ीसदी लोग ऐसे हैं जो मानते हैं कि सैनिक शासन होना चाहिए।
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चिए, अगर उनसे एक ही सवाल पूछा गया हो कि क्या आप मिलिट्री रूल को बेहतर मानते हैं तो कह दिया होगा—हाँ। लेकिन अगर दूसरा सवाल उनसे मैं पूछता कि क्या आप चाहते हैं कि मिलिट्री रूल में अगर कोई दो बजे आए और आपको, आपके बाप को उठाकर थाने में, तहख़ाने में 10 साल के लिए बंद कर दे; जिसमें न वकील, न दलील, न मुक़दमा, न तारीख़, कुछ न हो—उस मिलिट्री रूल का समर्थन करेंगे? करता वो? नहीं करता। मिलिट्री रूल का सवाल उनसे भला क्यों पूछा गया था? इसका कारण बताता हूँ।