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अगर आप यह सोच रहे हैं कि यह सब सरकार के इस दौर में हुआ है तो ग़लती कर रहे हैं। समय को ठीक से समझ नहीं रहे हैं। यह पच्चीस-तीस सालों से लगातार होता चला आ रहा है, जिसमें संवैधानिक संस्थाओं को लगातार कुचला जा रहा है। आज शायद आपको यह इसलिए दिखने लगा है, क्योंकि ऐसे लोगों का प्रतिशत बढ़ा है जो इस भ्रम-निर्माण के खेल के प्रति सचेत हैं।
मज़बूत नेता एक मिथक है जो खड़ा किया जा रहा है और उसके समानान्तर सैनिक शासन का मिथक भी ले रहा
क्योंकि अभी तक जो लोकतांत्रिक संस्थाएँ हैं, वह अपने बेहतर रूप में जनता की आकांक्षाओं को ठीक तरह से पूरी करने में असफल रही
देंगे। मरने की भी एक सीमा होती है, मारने की भी एक सीमा होती है; वरना मारने वाले तो दुनिया के इतिहास में कितने हुए! पलट कर देखिए। फिर भी इनसान ख़त्म नहीं हुए, मारने वाले ही ख़त्म हो गए। जो भी पावर में बैठता है, उसे यह डर सताता है। आप में से भी कोई सत्ता में बैठेगा तो आपको भी यह डर सताएगा। उनका डर वाजिब है, क्योंकि उनके पास अब कोई ऐसा फ़ॉर्मूला नहीं बचा है, प्रोपगैंडा और इवेंट के अलावा।
इसलिए यह ध्यान रखिए कि मज़बूत नेता हमेशा रंगीन बंडियों में लकदक करता हुआ कैमरों की चकाचौंध में ही नहीं आता है। एक हफ़्ता आप गॉड को लेकर झगड़ते
अनगिनत लोगों ने अपने लोक होने के अधिकार को लड़कर हासिल किया। हम स्वतंत्रता सेनानियों को पेंशन देते हैं। क्या हमें पता है कि वे स्वतंत्रता सेनानी जब देश को आज़ाद करने के लिए वर्षों जेल में रहे—जिनका नाम भी हम नहीं जानते—तो उनके पीछे उनके बच्चे बर्बाद हो गए! उनके परिवारों की आर्थिक स्थिति उसी पेंशन पर निर्भर रही और वो लगातार कमज़ोर होते चले गए। उन्होंने अपनी कई पीढ़ियों की ज़िंदगी दाँव पर लगाकर देश के लिए लोक होने का, नागरिक होने का बोध हासिल किया। आप उस देश के लिए, कम से कम उन स्वतंत्रता सेनानियों की इज़्ज़त रखने के लिए अपने लोकपन को, अपने जनता होने के अधिकार को कमज़ोर मत कीजिए।
एक नेता हावी होगा तो सिर्फ़ तंत्र ही तंत्र रह जाएगा। झूठ का मंत्र रह जाएगा। इसलिए आप लोक का निर्माण कीजिए। फिर से जनता होने का अधिकार हासिल कीजिए।
इसलिए पूरे साल में आपके साथ ऐसी कोई घटना हुई है तो उसके पाप-बोध से बचने के लिए ये एक दिन होता है ऋषि पंचमी का...
मुमकिन है कि किसी को ऋषि पंचमी की पूजा से ‘पाप-बोध’ से मुक्ति का विधि-विधान न मालूम हो। टीवी चैनलों पर आने वाले ये रंगीन बाबा आधुनिक स्पेस में किस तरह से रूढ़ियों और परंपराओं की पुनर्खोज कर रहे हैं और फिर से उन्हें कायम कर रहे हैं, यह दिख रहा है।
किसी की कृपा से दिल्ली में ट्रैफ़िक जाम कम हो जाता तो मैं इसी एक बात से उनकी शरण में चला जाता!
ग़रीब जब अध्यात्म के नाम पर किसी की शरण में जाता है तो अंधविश्वास हो जाता है, अमीर जब अध्यात्म के नाम पर किसी की शरण में जाता है तो वह स्ट्रेस मैनेजमेंट का कोर्स हो जाता है।
तबका और मध्यवर्ग ने भी गुरमीत जैसे ही बाबा दिए हैं। अंतर यह है कि वे अंग्रेज़ी बोलते हैं और एलोवेरा का जूस बेचते हैं।
हमारा राजनीतिक वर्ग अंधविश्वास का सबसे बड़ा संरक्षक है। क्रिकेट और सिनेमा से लेकर सार्वजनिक जीवन का हर संभ्रांत प्रतीक अंधविश्वास का संरक्षक है। इसलिए सिरसा के डेरा समर्थकों को गँवारों की फ़ौज न कहें।
काश, भाग्यफल बताने वाले कभी यही बता देते कि उनका शो अगले हफ़्ते नंबर वन होगा कि नहीं!
बाबा सिंह राशि वालों को यह भी बताते हैं कि वे रोग-प्रतिरोध की क्षमता में सुधार के लिए विटामिन लें। बजरंग बली की क़सम, ख़ुद अपने कानों से सुना और उँगलियों से टाइप कर रहा हूँ। हमारा ज्योतिष शास्त्र एंटीबायोटिक और विटामिन भी देने लगा है, यह बात मुझे नहीं पता थी। मेडिकल कॉलेज बंद करो। सीज़ेरियन कब कराना है, इसका शुभ समय वे अपने हर शो के आरंभ में ही दे देते
बाबा तुला राशि वाले को बताते हैं कि आज आपकी शिफ़्ट चेंज हो सकती है, इससे परेशानी होगी। अरे भाई, थोक मात्रा में दफ़्तरों में लाखों लोगों की शिफ़्ट रोज़ चेंज होती है। इसमें भी लोगों ने ज्योतिष घुसा दिया है! दफ़्तर में पाखाना-पेशाब के लिए कब-कब जाना है, यह भी जल्दी ही बाबा लोग बताने लगेंगे।
असली अन्याय वो नहीं होता जिसके लिए वे मुक़दमा करते हैं, वह तो कब का पीछे छूट जाता है। मुक़दमा लड़ने और केस जीतने की प्रक्रिया से बड़ा भारत में कोई और अन्याय शायद ही है।
इंडिया है भाई, यहाँ जजों की संख्या बढ़ाने के लिए जजों के प्रधान को रोना पड़ता है। जब जज रो रहे हैं तो मुवक्किल कैसे नहीं रोएगा?
भारत एक ज्योतिष प्रधान देश
कोई इश्क़ में नहीं होता है और न हर किसी में इश्क़ करने का साहस होता है। हमारे देश में ज़्यादातर लोग कल्पनाओं में इश्क़ करते हैं।
मुझे बाक़ी मुल्कों का पता नहीं, लेकिन भारत में इश्क़ करना अनगिनत सामाजिक-धार्मिक धारणाओं से जंग लड़ना होता है।
। किसी दलित लड़की के लिए कोई हीरो अपने कपूर ख़ानदान को लात नहीं मारता। ओह, मैं भी फ़िल्मों से समाज-सुधार की उम्मीद करने लगा! कम ऑन, रवीश।
इश्क़ बिना दीवार के कर नहीं सकते। बिना महबूब/महबूबा के कर सकते हैं, लेकिन बिना दीवार के नहीं! तमाम तरह के झमेलों से गुज़रना होता है प्यार में। आप
‘इश्क़ कोई रोग नहीं’ टाइप के सिंड्रोम से निकलिए। इश्क़ के लिए स्पेस कहाँ है, डिमांड कीजिए। पैंतीस साल के साठ प्रतिशत नौजवानो, तुम सिर्फ़ मशीनों के कल-पुर्ज़े बनाने और दुकान खोलने नहीं आए हो। तुम्हारी जवानी तुमसे पूछेगी, बताओ, कितना इश्क़ किया, कितना काम किया? काम से ही इश्क़ किया तो फिर जीवन क्या जिया?
दहेज के सामान के साथ तौलकर महबूबा नहीं आती है। दहेज की इकोनॉमी पर सोसाइटी अपना कंट्रोल खोना नहीं चाहती, इसलिए वह लव मैरेज को आसानी से स्पेस नहीं देती। लड़की पहली कमोडिटी है जो लड़के के वैल्यू से तय होती है। पैसे के साथ दुल्हन! जबकि दुल्हन ही दहेज है! डूब मरो मेरे देश के युवाओ!
सारे प्रेमी आदर्श नहीं होते और अच्छे भी नहीं होते, मगर जो प्रेम में होता है वह एक बेहतर दुनिया की कल्पना ज़रूर करता
हमें अपने शहर को इको-फ्रेंडली के साथ इश्क़-फ्रेंडली बनाना है। एक स्पेस बनानी है, जहाँ हम सुकून के पल गुज़ार सकें। जहाँ किसी को देखते ही पुलिस की लाठी ठक-ठक न करे और किसी से बात शुरू करते ही बीच में बादाम वाला न आ जाए। ठीक है कि प्रेम के लिए स्पेस की कमी कल्पनाओं में नहीं है, फ़िल्मों में नहीं है। फिर शहरों में क्यों है? यह तो ठीक बात नहीं
वह मुल्क कितना मायूस होगा, जहाँ प्रेम करने पर तलवारों और चाकुओं से प्रेमी को काट दिया जाता है।
आज भी लड़कियाँ अपने प्यार के लिए भाग रही हैं। उनके पीछे-पीछे जाति और धर्म की तलवार लिए उनके माँ-बाप भाग रहे हैं।
प्रेमिका पर क्या बीत रही होगी, जिसने अपने अंकित को पाने के लिए अपने घर को हमेशा के लिए छोड़ दिया। उस मेट्रो की तरफ़ भाग निकली, जिसके आने से आधुनिक भारत की आहट सुनाई देती है। दूसरे छोर पर अंकित की माँ की चीख़ती तस्वीरें रुला रही हैं। दोनों तरफ़ स्त्रियाँ हैं जो तड़प रही हैं। बेटा और प्रेमी मार दिया गया है।
धर्म और जाति ने हम सबको हमेशा के लिए डरा दिया है। हम प्रेम के मामूली क्षणों में गीत तो गाते हैं परिंदों की तरह उड़ जाने के, मगर पाँव जाति और धर्म के पिंजड़े में फड़फड़ा रहे होते हैं। भारत के प्रेमियों के हिस्से में प्रेम कम, नफ़रत ही अधिक आती है। उन्हें सलाम कि इसके बाद भी वे प्रेम कर गुज़रते
कि के.के. वेणुगोपाल से पहले मुकुल रोहतगी ने अटाॅर्नी जनरल की हैसियत से आधार से संबंधित एक मामले में इसी सुप्रीम कोर्ट में क्यों कहा कि निजता एक ‘बोगस’ बात है।
राजनीतिक अधिकार ज़रूरी नहीं है। सरकार किसी ग़रीब को सब्सिडी के नाम पर ख़ैरात नहीं देती है। सभी नागरिक या जनता सरकार की जवाबदेही हैं, इसलिए सब्सिडी देती है। इसके बदले में सरकार ग़रीब जनता से उसके अन्य अधिकार छीन नहीं सकती है। वह भूखी रहे या उसका पेट भोजन से भरा रहे, हर हाल में वह जनता सरकार के ख़िलाफ़ राय बना सकती
संविधान पीठ ने प्रोफ़ेसर अमर्त्य सेन के एक शोध का सहारा लेते हुए कहा कि सरकार जब निरंकुश हो जाती है तब अकाल या भुखमरी की स्थिति में भी लापरवाह हो जाती है। ब्रिटिश काल में बंगाल में जब अकाल पड़ा था, तब
धान पीठ ने कहा कि ठीक है कि इनमें निजता का अधिकार नहीं लिखा है, मगर यह कहना सही नहीं है कि इनमें निजता का अधिकार शामिल नहीं है। इन सब अधिकारों से निजता के अधिकार की ही ख़ुशबू आती
नियंत्रण रखे। निजता हमारी संस्कृति की विविधता और बहुलता को भी संरक्षण देती है। यह नोट करना भी ज़रूरी है कि कोई व्यक्ति पब्लिक स्पेस में है, इस वजह से उसकी निजता ख़त्म नहीं हो सकती है।
जो पतित था, उसे गौरवान्वित किया है। आख़िरकार इन्होंने साबित कर दिया है कि मर्यादा एक ढोंग है, दोहरापन है। अमर्यादा ही असलियत है, ईमानदारी है।
डरपोकों की जमात ही अपने डर को बचाने के लिए हमला करती है।
दरसअल, उनके बचाव का यह जो अंतिम बिंदु है कि आप मोदी का विरोध क्यों करते हैं, यही लोकतंत्र में लोकव्यवस्था की समाप्ति का आरंभिक बिंदु भी है।
इस प्रक्रिया में एक पूरे समुदाय को अपराधी की तरह पेश कर दिया गया है। उन्हें क़ानून-व्यवस्था के विरोधी की तरह पेश किया गया है। अंग्रेज़ों ने कुछ घुमंतू जनजातियों को ‘अपराधी’ घोषित कर दिया था। उन्हें उस तमगे से आज तक मुक्ति नहीं मिली। भारत के मीडिया ने भारत के मुसलमानों का अपराधीकरण किया है। उन्हें क्रिमिनल कास्ट में बदला है। तभी
क्राफ्ट का, ड्राफ़्ट का, यहाँ तक कि क्लास का भी फ़र्क़ मिट गया है।
। भारत के इतिहास में नेशनलिज़्म अंग्रेज़ों के ख़िलाफ़ आया, पहली बार इसका इस्तेमाल भारत के लोगों के ही ख़िलाफ़ हो रहा
ट्यूब चैनलों के ज़रिये सरकार से सवाल कर रहे हैं। एक नए तरह का मीडिया जन्म ले रहा है, खड़ा हो रहा है; जैसे कि वायर है, स्क्रोल है, कैरवान है। अख़बारों में अभी भी टेलिग्राफ़ है। न्यूज़ चैनलों की दुनिया में अभी भी हम लोग टिके हुए
आपमें ऐसी फ़क़ीरी कहाँ से आती है? इस दीन-दुनिया से बेपरवाह कोई फ़क़ीर ही ऐसे मीडिया को मान्यता दे सकता है।
आगाह करती हैं कि साठ लाख यहूदियों के साथ ही नाज़ी शासन ने पचास लाख अन्य लोगों को भी मार डाला था। ये वो लोग थे जो नस्ली तौर पर अशुद्ध, अस्वस्थ, अनुत्पादक या अनैतिक क़रार दिए गए थे। इनमें जिप्सी, अश्वेत, यहोवा के साक्षी, शारीरिक-मानसिक रूप से विकलांग, कम्यूनिस्ट, सोशल डेमोक्रेट और ना ज़ियों के अन्य राजनीतिक विरोधी, उनसे असहमत क्लर्जी, समलैंगिक, ट्रांसजेंडर, युद्धबंदी, मिरगी के मरीज़, शराबी, स्लाव लोग, चित्रकार, लेखक, संगीतकार और अन्य कलाकार जो हिटलर के विचारों और कार्यों से असहमत थे, सब शामिल थे।
लाती हैं कि हिटलर और ना ज़ियों का शुद्ध ‘श्रेष्ठ नस्ल’ में भरोसा रखना कोई ख़ास बात नहीं थी। ख़ास बात तो यह थी कि ‘अवांछित समूहों’ की पहचान करने की प्रक्रिया में जर्मन समाज के विभिन्न तबकों में से वैज्ञानिक, डॉक्टर, नृतत्त्वशास्त्री, इंजीनियर, छात्र आदि भी जोश-ओ-ख़रोश से शामिल थे। वे अपने देश से ‘राष्ट्रद्रोहियों’ का सफ़ाया कर रहे थे।
‘कुछ नहीं हुआ’ की जगह बस ‘क्या कुछ हो सकता है’—यह पूछना शुरू कर दीजिए। ‘बहुत कुछ’ करने की जगह ‘थोड़ा बहुत’ ही करना शुरू कर दीजिए।
क्या हम उन आर्थिक-राजनीतिक व्यवस्थाओं पर विचार करने का परिश्रम कर पाते हैं जो सबकी भलाई करने का दावा करती रही हैं। मुझे नहीं मालूम कि दूसरा सिस्टम क्या हो सकता है, क्योंकि
। दोनों तरफ़ से किसी भी घटना को पूरे-के-पूरे समुदाय पर थोप दिया जाता है और फिर नफ़रत की राजनीति उस एक समुदाय को चिह्नित करने लगती है। हिसाब या संतुलन को आधार बनाकर सुनियोजित ढंग से नफ़रत फैलाया जा रहा है।
जो नफ़रत फैलाता है, वही किसी आपराधिक घटना को किसी मज़हब विशेष की आड़ में उचित बताता है; और किसी अन्य आपराधिक घटना को उसी मज़हब के नाम पर ज़हरीला भी बनाता है।