Maun Muskaan Ki Maar (Hindi Edition)
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इसके पहले मैंने उनकी ‘सीता-परित्याग’ जैसी गंभीर लेख-शृंखला आद्यंत पढ़ी।
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व्यंग्य कोई विधा नहीं है, वह चेतना है, स्प्रिट है। परसाईजी ने इसे खासतौर पर स्वीकारा
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परसाईजी ने ‘वैष्णव की फिसलन’ की भूमिका में लिखा था—‘व्यंग्य की प्रतिष्ठा इस बीच साहित्य में काफी बढ़ी है। वह शूद्र से क्षत्रिय मान लिया गया है।’ व्यंग्य साहित्य में ब्राह्म‍ण बनना भी नहीं चाहता, क्योंकि वह कीर्तन करता
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‘दुखिया दास कबीर है जागै अरु रोवै। सुखिया सब संसार है खावै अरु सोवै।’
Prateek Singh
Nice quote
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हर आदमी में होते हैं दस बीस आदमी।
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जिसको भी देखना हो कई बार देखना।।
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किंतु उन उलझे हुओं को सुलझाना उतना ही मुश्किल था, जितना गीले उलझे हुए लंबे बालों को सुलझाना।
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फुर्तीले फूफा ने अपने पुत्र को फटे-चिथे कपड़ों में और ‘धूरि भरे अति शोभित श्याम जू, कैसी बनी सिर सुंदर चोटी’ की अवस्था में देख उन्होंने सबसे पहले मेरे मित्र को एक झन्नाटेदार चाँटा रसीद किया, फिर पूछा, कहाँ कीचड़ में लोट के आ
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भारतीय पिताओं की सत्य उगलवाने की कला का पूरे विश्व में तोड़ नहीं है, वे थप्पड़ों से शुरुआत करते हैं, जिससे पुत्र बाहर के साथ-साथ अंदर से भी हिल जाता है, उसकी सोचकर बोलनेवाली मशीन में एरर आ जाता है। परिणामस्वरूप वे ऑटोमोड पर रोते, सिसकते, लप्पड़ से बचने के प्रयास में डाज देते हुए घटना का पूरा ब्योरा जस-का-तस प्रस्तुत कर देता है—
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“कनवा से कनवा कहो तो तुरतई जे है रूठ, अरे धीरे-धीरे पूछ लो कि कैसे गई थी फूट?” यदि किसी व्यक्ति की एक आँख है तो उसे काणा कहने की जगह आप उसे ‘समदर्शी’ कह सकते हैं, बिना भेदभाववाला, जो सभी को एक दृष्टि से देखता है, इससे उसकी वास्तविकता भी प्रकट हो जाएगी और उसे बुरा भी नहीं लगेगा। यदि कोई अंधा है तो उसे अंधा कहने की जगह आप ‘लुप्तलोचन’ कह सकते हैं। किसी को बहरा कहने की जगह आप उसे ‘अल्पश्रुत’ कह सकते हैं, कमसुनने वाला। किसी गूँगे को आप आत्मभाषी, स्वभाषी कह सकते हैं।
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बड़े और समझदार होने के बाद पता चला कि व्यक्ति या व्यवस्था के विकृत अंग को समाज के सामने कुछ इस तरह से पेश करना, जिससे किसी व्यक्ति या व्यवस्था को बुरा भी न लगे और उसकी वास्तविकता भी समाज के सामने स्पष्ट हो जाए, इस कला को साहित्य में व्यंग्य कहा जाता है।
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विद्या का उद्देश्य सृजन नहीं, विसर्जन होता है,
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ashutosh.ramnarayan@gmail.com
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शहर अहिल्या के जैसा पाषाणवत् हो गया था, तब लामचंद ने श्रीरामचंद्र का रोल अदा किया और करीब पाँच हजार किसानों का एक जंगी मोरचा निकाला, जिससे सारा शहर हरहराकर जाग गया।
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क्योंकि लामचंद के लिए लालबत्ती लैला के जैसी थी, वे फरहाद थे और लालबत्ती उनकी शीरी, वे राँझा थे और लालबत्ती उनकी हीर, वे चकोर थे और लालबत्ती उनका चंद्रमा।
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जलासंध महाप्लतापी (महाप्रतापी) था, उसने मथुला (मथुरा) जीतने के लिए सोला बाल आकल्मन (आक्रमण) किया, लेकिन कभी जीत नहीं पाया।”
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“देखा, लालबत्ती में चिकित्सकीय गुण भी हैं। यह देवताओं के सोमरस से भी ज्यादा असरकारी औषधि है, यह व्यक्ति की जन्मजात समस्या का भी निदान करती है। इसे प्राप्त करते ही व्यक्ति के सारे दोष दूर हो जाते हैं, लालबत्ती के प्रकाश में व्यक्ति के अवगुण भी गुण दिखाई देते हैं।”
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सच्ची भविष्यवाणी को नहीं, अच्छी भविष्यवाणी को पसंद करते हैं।” मैंने कहा, “जी स्मरण रखूँगा।”
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जनप्रतिनिधियों की विशिष्टता को नष्ट करना जनतंत्र को नष्ट करना है, लोकतंत्र आम आदमी को खास बनाता है, खास को आम बना देना लोकतंत्र के विरुद्ध चलने जैसा है। देश व्यवस्था से चलता है, और व्यवस्था बत्ती से बनती है। इसका प्रत्यक्ष उदाहरण हमारे चौराहों पर लगी लाल, पीली, हरी बत्तियाँ हैं। जहाँ पर लालबत्ती नहीं होती और ट्रैफिक को बत्ती विहीन आदमी के जरिए कंट्रोल करवाया जाता है, वहाँ पर ट्रैफिक जाम हो जाता है। एक किस्म की अराजकता फैल जाती है, लोग एक-दूसरे पर चढ़ पड़ते हैं। हम बढ़ नहीं पाते, चारों तरफ शोर-शराबा होता है और इन्होंने...पूरे देश से बत्ती गुल कर दी, जिससे हम एक-दूसरे पर चढ़ जाएँ?
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साथियो, लोकतंत्र राजा है और लालबत्ती इसका ताज, हम किसी भी कीमत पर अपने राजा के ताज की रक्षा करेंगे। सफेद सरकारी गाड़ी की छत पर लपलपाती हुई लालबत्ती उसके सौभाग्य की, उसके सुहाग की निशानी थी, हम हर कीमत पर उसके सुहाग की रक्षा करेंगे। वे अपने साथ हुए विश्वासघात से बुरी तरह आहत थे, उनके मुँह से झाग निकलने लगा। अपनी बात को न्याय और नीतिसंगत सिद्ध करने के लिए लामचंद ने अब अपने भाषण को एक नया मोड़ दिया।
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संसार सभी ग्रहों से मिलकर चलता है, लेकिन इनमें सूर्य का सबसे विशेष स्थान है। आप लोग ध्यान दीजिएगा, सूरज जब घर से निकलता है तो लाल होता है, यह लाल क्या है? सूरज को राजा इंद्र से मिली हुई यह लालबत्ती की चमक है। उसी लालबत्ती के कारण आपको सूरज को प्रणाम करना पड़ता है, उसका स्वागत करना पड़ता है, उसे जल चढ़ाना पड़ता है। सूरज को देखते ही आपको काम पर जाना पड़ता है। यह सब क्यों? क्योंकि वह लालबत्तीवाला है। ऐसे तो चंद्रमा भी रोज निकलता है, सबको शीतलता देता है, लेकिन हम घंटों ध्यान नहीं देते उस पर, कब निकला, कब चला गया, पता भी नहीं चलता। एकाध दिन करवाचौथ या शरद पूर्णिमा को छोड़कर हम उसको महत्त्व नहीं ...more
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वे संज्ञाशून्य हो गए थे कि तभी लालबत्तीवाली एंबुलेंस सायरन बजाती हुई आई, सायरन सुनकर अचानक भाईसाहब की पुतलियों में हरकत हुई।
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(प्रेरणा) की समाप्ति ही प्लतालना (प्रतारणा) है।”
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“मनचाही में खलल है, प्रभु चाही तत्काल। बलि चाही आकाश को, और भेज दियो पाताल॥’’
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गप्पी गुरु के जजमान यदि भ्रम से उकताकर थोड़ा विरोध करते तो गप्पी उनको भ्रम की वैज्ञानिकता का महत्त्व समझाते हुए उन्हें संतुष्ट करते कि यह भ्रम ही है, जो हमारे समस्त श्रम का कारण है, यदि मनुष्य को भ्रम न हो तो वह श्रम करना बंद कर दे। इसलिए भ्रम को ही भगवान मानो।
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और दूसरी तरफ पप्पी के भक्त यदि बेचैन हो जाते तो पप्पी भ्रम के धर्म की व्याख्या करते कि हमारा श्रम ही हमारे सभी भ्रमों का कारण है, भ्रम का भूत ही हमारे श्रम को कुंठित करता है। इसलिए अपने श्रम रूपी भगवान को भ्रम रूपी भूत की चपेट में मत आने दो।
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पप्पी को भूलुंठित करने के लिहाज से गरजते हुए बोले, अर्थ की बात करना अब व्यर्थ है, इसलिए व्यर्थ की बात का अर्थ मत समझाओ पप्पी।
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परमात्मा का मतलब ‘पर + आत्मा’ = परमात्मा, ‘पर’ यानी पराई, ‘मा’ मतलब मम्मी, यानी पराई मम्मी से पैदा होनेवाली आत्मा। सरल शब्दों में दूसरे की आत्मा।
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किसी दूसरे के दोषों को दुनिया के सामने उघाड़कर रख देना ही परमात्मा का साक्षात्कार है।
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सो गुग्गलगीता के अनुसार ‘आत्मा अजर-अमर है’ यानी ‘ऐन ऐंग्री सोल हू इन्वाइट्स इलनेस ऐंड कॉलिंग फॉर डेथ।’
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बड़े आए आत्मा को कोई जला नहीं सकता वाले...नजर उठा के देख पोंगे, चारों तरफ जली-भुनी आत्माओं की रेलमपेल है। एक आदमी ढूँढ़ के बता दे, जो जला हुआ न हो? आजकल सड़ी सी बात पे आदमी की आत्मा फट जाती है, दूसरे की तरक्की देखकर आत्मा फक्क से जल जाती है। हर कोई कहता हुआ मिल जाएगा, हमारी आत्मा जल गई, आत्मा फट गई, आत्मा मर गई—खुद जली, भुनी, मरी हुई आत्मा लेकर घूम रहे हो, और कहते हो आत्मा को कोई मार नई सकता! अपने आपको जिंदा कहते हुए शर्म नहीं आती तुमको?
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इसका सिंपल अर्थ है कि अपनी रिटर्न सही-सही और समय पे फाइल करो...तुमसे हिसाब माँगा जा रहा है कि बताओ क्या लेकर आए थे 31 मार्च तक और क्या ले के जानेवाले हो 31 मार्च के बाद? कभी सोचा है कि 1 अप्रैल को ही मूर्ख दिवस क्यों कहा जाता है? बिकोज आफ्टर फाइलिंग अवर रिटर्न, देट इज द वेरी फर्स्ट डे जब या तो हम इन्कम टैक्स डिपार्टमेंट को मूर्ख बनाते हैं या डिपार्टमेंट हमको मूर्ख बनाता है। वी ऑल प्ले गेम ऑफ फूल्स। हमारा वित्तीय वर्ष 1 अप्रैल, यानी मूर्ख दिवस से शुरू होकर 31 मार्च, अर्थात् धूर्त दिवस पर समाप्त होता है।
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अब गप्पी गुरु ने अपनी मुख मुद्रा बदली, एक गहरी दृष्टि पप्पी गुरु पर डाली, अचानक पप्पी को लगा कि वे कुरुक्षेत्र के मैदान में घुटनों के बल हाथ जोड़कर बैठे गिड़गिड़ाते हुए अर्जुन हैं और उनके भाईसाहब गप्पी गुरु ‘एकोहम द्वितियो नास्ति’ वाले श्रीकृष्ण।
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संसार अब गोविंद की चुटकी से नहीं, गुग्गी की क्लिक से चलता है, अब गोविंद के ‘माउथ’ की नहीं, गुग्गी के ‘माउस’ की कीमत है।” अब द्रौपदी कितना ही ‘स्क्रीम’ कर ले कि, सेव मी-सेव मी, दुशासन इज पुलिंग माई सारी! कोई फर्क नहीं पड़ता, चिल्लाती रहो, क्योंकि अब स्क्रीम नहीं ‘स्क्रीन’ का महत्त्व है। बड़ी-से-बड़ी स्क्रीम भी अब तब ही सुनी जाएगी, जब वह स्क्रीन पर दिखाई दे। बड़ी स्क्रीन से अधिक महत्त्व छोटी स्क्रीन का है, क्योंकि स्क्रीम अब सुनने की नहीं, देखने की चीज है।
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भाईसाहब मुझे पसंद करते थे, मुझे देख मुसकराकर बोले कि महाबली भीम हो या दुर्योधन, कंस हो या दस हजार हाथियों की ताकतवाला दु:शासन, यहाँ तक कि हनुमानजी को भी मैंने धराशायी होते देखा है, किंतु यह गंधी पेड़ है कि गिरता ही नहीं। पिछले कई सालों से लगातार इसपर चोट की जा रही है। इसे काटा गया, पीटा गया, यहाँ तक कि जलाकर राख भी कर दिया गया, लेकिन यह खत्म होने की जगह और लहलहाने लगा।
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हत्या से अधिक घातक चरित्र हत्या होती है, इसलिए इसके गुणों को ही इसका दोष बताया जाए, ताकि लोग इसकी छाया से भी दूर रहें।
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मैंने उन्हें आश्वस्त करते हुए कहा, “आप निश्चिंत रहें भाईसाहब, हम सामान्य जन हैं, बदलाव नहीं, बरदाश्त ही हमारा भाग्य
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“जहि विधि राखे राम तहि विधि रहिए। बड़ा आदमी जो भी बोले हाँ जू-हाँ जू कहिए॥”
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बदलाव कोई ठेले पर बिकनेवाली मूँगफली नहीं है कि अठन्नी दी और उठा लिया, बदलाव के लिए ऐसी-तैसी करनी पड़ती है और करवानी पड़ती
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“देश चलता नहीं, मचलता है मुद्दा हल नहीं होता, उछलता है जंग मैदान पर नहीं मीडिया पर जारी है आज तेरी तो कल मेरी बारी है।’’ अध्याय समाप्त
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बोलना भी एक किसम का विरोध माना जाता है। इसलिए बो मत बोलो, जो तुमको अच्छा लगता है, वो बोलो जो उसको अच्छा लगता है, क्योंकि जबर आदमी को तुम सामने से नहीं जीत सकते, इसलिए जबर के आगे नहीं उसके पीछे चवन्नी चिपका दो, बो खुदई दिबाल से मूँड़ मार लेगा।”
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उसकी वजह है, वे पेशे से यांत्रिक (टेक्निकल मैन) हैं, तंत्र (सिस्टम) के नौकर हैं (बहुत बड़े अधिकारी हैं) और कई किस्म के मंत्रों का उन्हें अखंड ज्ञान है।
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तांत्रिक मुसकराते हुए बोले कि मतलब जब आप परेशानी में हों, अपने को सेट करने की जुगाड़ में हों और दूसरे पक्ष को अप्सेट करने के लिए प्रयासरत हों। लेकिन जैसे ही अंतरात्मा सत्ता में आती है, बिलकुल चुप हो जाती है, और मान लीजिए कि सत्ता में रहते हुए कभी अगर अंतरात्मा बोले भी, तो समझिए कि आप पक्ष में होते हुए भी विपक्ष टाइप का फील कर रहे हैं, तब वह बोलती नहीं है सिर्फ भाषण देती है...
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अंतरात्मा जब तक आप विपक्ष में हैं तब तक जागती रहती है, लेकिन जैसे ही आप सत्ता में आए यह फटाक से सो जाती है फिर आपके कान पर नगाड़े भी बज रहे हों, बड़े-से-बड़े धमाके भी क्यों न हो जाएँ, यह नहीं उठती, गहरी नींद में सोती रहती है।
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डिप्लोमसी वाली कूटनीति नहीं बंधु, अपनी सागर यूनिवर्सिटी में जो चलती थी... किसी को कूटकर कचरा करने के लिए जो नीति अपनाई जाए वह कूटनीति।
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उन्हें विश्वास था कि अत्तरा, जहाँ के वे रहनेवाले थे, जहाँ अमूमन सभी ‘सड़क को शड़क’ और ‘शक्कर को सक्कर’ कहने पर राजी थे, के घुट्टी में पिलाए गए भाषायी संस्कार को, शर्मिला का आभिजात्य प्रेम निश्चित ही सुधार
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भग्गू की सरलता मुझसे लिपट जाना चाहती थी, किंतु प्रयत्नपूर्वक सिद्ध की गई संभ्रांतता ने उसका गला दबा दिया था, जिससे वे स्वयं घुटते हुए से दिखाई दिए।
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गर्व इस बात का कि ‘द फेमस’ आशुतोष राणा ‘उनको’ जानता है और भय यह था कि आशुतोष राणा उनको ‘क्लोजली’ जानता है।
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मैंने कहा, “यार भग्गू, तुमने तो कमाल कर दिया, लोग हीरा नहीं बेच पाते, तुमने पत्थर बेच दिए।” भग्गू बोले, “लोग हीरे को शक की नजर से देखते हैं गुरु, और पत्थर को विश्वास की। मैंने पत्थर नहीं, उनके विश्वास को बेचा है।”
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हमारी सफलताएँ अंधविश्वास पर ही खड़ी होती हैं। खुली आँखों का विश्वास विज्ञान कहलाता है, यह विज्ञान भी अंधविश्वास की ताकत से ही पैदा होता है। हवाई जहाज बनानेवाले को पहले अंधविश्वास ही होगा कि मैं पूरे कुनबे को हवा में उड़ा सकता हूँ, विश्वास परिणाम है और अंधविश्वास प्रक्रिया। बिना प्रक्रिया के परिणाम कैसे मिलेंगे? हम अंधविश्वास भी पूरी ईमानदारी से नहीं करते, इसलिए फेल हो जाते हैं।
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