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September 5, 2020 - April 22, 2024
भगवान् बड़े हैं, सो उनके पास बड़ा होना चाहिए, हम इनसान छोटे लोग हैं, सो अपना छोटे या छुट्टे से काम चल जाता है। पाप भले ही उजाले में करो, लेकिन पुण्य का काम हमेशा अँधेरे में करना चाहिए। पुण्य की खबर किसी को कानोकान नहीं होनी चाहिए, पुण्य छोटा हो जाता है, इसलिए अँधेरा कर लिया था।”
भाईसाहब बोले, “महत्त्व इस बात का नहीं कि तुम्हारे पास काला है या सफेद, महत्त्व इस बात का है कि ऑल व्हाइट होते हुए भी यदि तुमने काले का जरा भी पक्ष लिया तो तुम भी काले कहे जाओगे और अभिशाप के भागी होगे, इसलिए भले ही तुम काला रखे रहो, किंतु अपना कंठ फाड़कर सफेद के पक्ष में सिंघनाद करो, उसकी पैरवी करो तो संसार तुम्हें सफेद मानकर सफेदी की चमकार ज्यादा देर तक जोरदार कहकर तुम्हारी जय-जय करेगा...”
लगा कि कोई कह रहा है, जो नीति से प्राप्त हो, वह लक्ष्मी है, जो अनीति से मिले, वह अलक्ष्मी है, व जिसे नीति और प्रीति से अर्जित किया जाए, वह महालक्ष्मी है। तुम महालक्ष्मी की उपासना करो, शुभम् भवतु। मैंने अचकचाकर देखा तो गर्भगृह में प्रतिष्ठित मायापति विष्णु एकटक मुझे देखकर मुसकरा रहे थे।
क्योंकि भगवान इस सत्य से भलीभाँति परिचित थे कि दुनिया का जितना नुकसान अनपढ़ आदमी नहीं करता, उससे कहीं अधिक नुकसान एक पढ़ा-लिखा आदमी कर सकता है और पढ़े-लिखे विद्वान को कंट्रोल में रखने का एकमात्र उपाय है, उसके अहम की तुष्टी। एंड-टू सेटिसफाय हिज ईगो।
अचानक नारदजी को होश आया कि वे माया में फँस चुके थे, उन्हें बहुत ग्लानि हुई कि हाउ कम आई गॉट स्टक इन दिस माया? भगवान विष्णु उनके सामने खड़े मुसकरा रहे थे, भगवान बोले कि नारद जो माया के आगे चले, वह ‘मायापति’ होता है और जो माया के पीछे चले, वह ‘मायावी’ कहलाता है।
दुनिया में फायदा जो है कि किसी भी आदमी खों न आगे चलने से गर्राहट होयगी और न पीछे चलने से ग्लानि, क्योंकि गोल घूमबे में कोई-कोई के आगे नई रहता और कोई-कोई के पीछे नई रहता। जो आगे चल रओ है, बोई पीछे चल रओ है और जो पीछे चल रओ है बोई आगे चल रओ है।
काय से दुनिया में हर चीज का उपचार है, मनो गर्राहट और ग्लानि का कोई उपचार नई है। तुम हमाय पीछे और हम तुमाए पीछे चलबो सीख लें, तो मायावी से अबढारे (अपने आप) मायापति कहलाने लगेंगे। गोल दुनिया बनाकर हमने आगे-पीछे का लफड़ा ही मिटा दिया, इसलिए सुख से क्षीरसागर में लेटे हैं।
कहा था...तुम लोग उसको भी भूल गए होगे?” मैंने जोर से कहा, “बिल्कुल नहीं, रिश्वत लेना ‘अन्य-आय’ है, इस कल्याणकारी मंत्र का हम अक्षरश: पालन करते हैं, आपको मुझ जैसे सामान्य जन पर विश्वास नहीं है, लेकिन जनतंत्र पर तो पूरा विश्वास है, जिसे लाने के लिए आपने अपनी जान लड़ा दी, तो जनतंत्र में बैठे हुए अपने किसी भी बच्चे से पूछ लीजिए।
“तुलसी बिरछा बाग के सिंचत से कुम्हलाएँ। राम भरोसे जो रहें वे पर्वत पे हरियाएँ॥”
“पैली बार दिखाने ए से पूँछी, पान खाबे आए हो?”
गड़बड़ी भले ही जीभ की हो, लेकिन टूटते अपने दाँत ही हैं। सो अपनी जीभ को साध लो। फास्ट बालिंग के चक्कर में मत पड़ना। ठीक है, फास्ट बालर पिटत कम हैं, लेकिन उनका कॅरियर लंबा नहीं होता। गुगली सीखो गुगली। पिटोगे, लेकिन लंबे चलोगे और सबसे ज्यादा विकेट भी मिलेंगे बो अलग। हर टुच्चा बड़ा आदमी नहीं होता, लेकिन बड़ा आदमी होने के लिए तुमको टुच्च्याई आनी जरूरी है। ज्यादा चौंको मत, टुच्चा मतलब? ऐसे चचा, जो सामनेवाले को टोंचने में महारथी हों। सो टुच्चा होना कोई बुरी बात नहीं है।”
एक मुँह से नहीं, हजारों हजार मुँह से बोल रहे हैं। अंतर सिर्फ इतना है कि पहले वे एक मुँह से बोलते थे और हजारों कान उनको सुनते थे। अब वे हजारों मुँह से बोल रहे हैं, लेकिन सुनने वाला एक भी कान मौजूद नहीं है।
है। मेरे
“बोलो चालो, बको मत। देखो भालो, तको मत। खाओ पीओ, छको मत। खेलो कूदो, थको मत।”
चिल्लाए, “पड़ोसी वह तुम्हारा था, मेरा अड़ोसी था। पड़ोसी का कर्तव्य है, दुःख में साथ देना और अड़ोसी का कर्तव्य है सलाह देना, मैं अपने कर्तव्य का पालन कर रहा हूँ।”
देखा कि मेरे पड़ोसी की एकदम ताजा मरी हुई आत्मा मेरी बीमार पड़ी अंतरात्मा के सामने खड़ी है। पड़ोसी की आत्मा ने मुझसे कहा कि तुम आश्चर्य में पड़ गए न, मरे हुए शरीर की जिंदा आत्मा को देखकर? मैंने कहा कि हाँ, लेकिन उससे ज्यादा आश्चर्य मुझे अपने जिंदा शरीर की मरी हुई आत्मा को देखकर हो रहा है।
अपने को इग्नोर होता देख, मैंने जब-जब विद्रोह किया, इसने तब-तब मुझे मारा। शरीरों की एक अच्छी आदत होती है कि वे संगठित होना जानते हैं, क्योंकि शरीर को यह पता है कि वह अगर अकेला आत्मा से लड़ा तो परास्त हो जाएगा, इसलिए जैसे ही कोई आत्मा जगी या उसने विद्रोह किया तो बहुत से शरीर मिलकर उस आत्मा का गला घोंट देते हैं, उसको मारने का काम करते हैं, सो हम हार जाते हैं। इस मामले में हम आत्माएँ बहुत कमजोर
क्योंकि शरीर को यह पता है कि वह अगर अकेला आत्मा से लड़ा तो परास्त हो जाएगा, इसलिए जैसे ही कोई आत्मा जगी या उसने विद्रोह किया तो बहुत से शरीर मिलकर उस आत्मा का गला घोंट देते हैं, उसको मारने का काम करते हैं, सो हम हार जाते हैं। इस मामले में हम आत्माएँ बहुत कमजोर हैं, ये निजता को महत्त्व देती हैं, इसलिए कभी कोई आत्मा किसी दूसरी आत्मा का साथ नहीं देती।
हम सुप्त पड़े हुए शरीर के कमजोर होने का इंतजार करते हैं, क्योंकि हमें शरीर के इस दुर्गुण की भी जानकारी है कि कमजोर शरीर की कोई भी दूसरा शरीर सहायता नहीं करता। सो पहली फुरसत में ही हम शरीर को चित्त कर निकल लेते हैं। शरीर एक नंबर का गधा और अहंकारी होता है, वह यह भूल जाता है कि उसकी एक सीमा होती है, इसलिए वह हारता है और अंत में मरता भी है। हम जो आत्मा हैं, असीम होते हैं, हमको आप सुप्त कर सकते हैं, सुला सकते हैं, कमजोर और बीमार कर सकते हैं, लेकिन मार नहीं सकते। हमारा अंत नहीं कर सकते, हमें मिला अमरता का यही वरदान हमारे लिए अभिशाप हो जाता है। हम आत्माए...
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सफलताएँ तुम्हें तृष्णा देती हैं और उपलब्धियाँ तुम्हें तृप्ति से भरती हैं। जिंदा शरीर और मरी हुई आत्मा या जिंदा आत्मा और मरा हुआ शरीर दोनों ही अतृप्त रहते हैं। सिर्फ किसी एक को ही महत्त्व देना हमारे असंतोष का कारण होता है। शरीर की रुचि सफलता में होती है और आत्मा की उपलब्धि में। अब देखो न, मेरा शरीर भी असंतुष्ट ही समाप्त हो गया और मैं भी स्वतंत्र होने के बाद भी अतृप्त ही हूँ।
बच्चों जैसी हरकतें, बुजुर्गों जैसी सोच और जवानों जैसी अभिव्यक्ति, ऐसा लगता जैसे तीनों कालों को उन्होंने अपनी काया में समेट लिया हो।
क्योंकि जिस व्यक्ति के अंदर बचपना, बुढ़ापा, जवानी के लक्षण एक साथ नजर आएँ, जो सभी के पक्ष में दिखाई दे, जो कभी कुछ बोलता न हो, जो हमेशा, हर स्थिति में मुसकराता रहे, जो सभी की पीठ ठोके, जो निर्विवाद हो, वह मूर्ख से अधिक कुछ और नहीं समझा जा सकता।
सभी गुट धप्पू महाराज के चतुर्वेदी होने को लेकर इस सिद्धांत पर भी एकमत थे कि वह वेदना के कारण चतुर नहीं हुआ, बल्कि वह वेदना रहित होते हुए भी बड़ी चतुरता से अपनी वेदना का बखान करता है, इसलिए वह चतुर्वेदी
चारों तरफ पसरा हुआ कोलाहल उनके लिए एक नीरव शांति था। उनके बहरेपन से उपजी शांति ही उनके अबाधित आनंद का स्रोत थी और वे बोल भी नहीं सकते थे, क्योंकि वे सिर्फ बहरे ही नहीं गूँगे
गुरु का मानना था कि दृष्टि ही हमारे दुःख का कारण होती है। हमें दिखता है, इसलिए दुःख होता है। उनके अनुसार, दुःख से मुक्ति पाने का सबसे सरल उपाय है, देखना बंद कर दो। गुरु बोले कि अब हम अपने हाथ से तो अपनी आँखें फोड़ नहीं सकते, लेकिन आँखें बंद तो कर सकते
में धप्पू महाराज वहाँ आ पहुँचे, मुझे अपने मित्र पंचायती गुरु के साथ बैठा देखकर बोले कि मैं बहरा नहीं हूँ। सुनने लायक कुछ बचा नहीं, इसलिए मैं बहरेपन का नाटक करता हूँ और मैं गूँगा भी नहीं हूँ। बोलना वहाँ चाहिए, जहाँ कोई सुननेवाला हो, आजकल सुनने में किसी को रुचि नहीं है, इसलिए गूँगे होने का नाटक करता हूँ।
कष्ट में मैं नहीं, तुम जैसे गुटबाज होते हैं। तुम्हारा देखना, सुनना, बोलना ही कष्ट का कारण होता है। अब तुम मेरे रहस्य को जान गए हो, जो मेरे सुख के साथ-साथ तुम्हारे सुख के लिए भी घातक है, इसलिए तुम्हें धप्पू बनाना अत्यावश्यक है, और मंद मुसकराहट लिये उन्होंने मेरे गले को पतली छुरी से रेत दिया।
अपने ही हाथों को अपने ही हाथ से मिलाकर ‘हाथ जोड़ना’ व्यक्ति के स्वार्थी होने की घोषणा है, किंतु अपने हाथ को दूसरे के हाथ से मिलाकर ‘हाथ मिलाना’ व्यक्ति के परमार्थी स्वभाव को चिति करता है। तुम स्वार्थ से प्रेरित थे और मैं परमार्थ से। इसलिए तुम दुःख भोग रहे हो और मैं सुख।
रामलाल बोले, “पड़ोसी बुलाएगा तभी तुम जाओगे, यह तुम्हारे अहंकारी होने का प्रमाण है और पड़ोसी के उत्सव में मेरा बिना बुलाए पहुँचना मेरे निरहंकारी चित्त की घोषणा
कुतर्क की प्रवृत्ति ‘कथ्य’ परक होती है, जिसमें तथ्य और सत्य का कोई स्थान नहीं होता। कथ्य सुनने-समझने में नहीं सिर्फ कहने में विश्वास रखता है। इसलिए दुनिया का श्रेष्ठतम तर्क भी कुतर्क की भूमि पर परास्त हो जाता है। कुतर्क की विशेषता होती है कि वह अपने चेहरे पर तर्क का मुखौटा लगाकर बहस की भूमि पर खड़ा होता है, तर्क के ऊपर अपनी विजय के कारण यह लोगों को तर्क का परिष्कृत रूप दिखाई देता है, जिससे कुतर्क को सु-तर्क की प्रतिष्ठा भी मिलती। कुतर्क शोर प्रधान होता है, इसमें तर्क की संवाद स्थापित करनेवाली प्रवृत्ति नहीं होती। कुतर्क की शक्ति ही कथ्य में होती है, इसलिए लगातार बोलते रहना इसका स्वभाव है।
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मुखर व्यक्ति जब मौन होता है, तब भी और मौन व्यक्ति जब मुखर होता, तब भी, वे समाज के आकर्षण और बदलाव का केंद्र होते हैं।
उन्होंने विचार किया कि लालरामजी के विषाद और खिन्नता से उपजे इस मौन को आमरण अनशन की तर्ज पर मृत्युपर्यंत मौन में बदलने के लिए प्रेरित करना चाहिए, जिससे वे शीघ्र ही स्वयं के लिए खुदे हुए खड्ड में प्रतिष्ठित हों।
सब्र का फल हर कोई चाहता है, किंतु कब्र का फल कोई भी नहीं चाहता। 2. जिसने सब्र किया है, वही उसके फल का आनंद उठाए यह आवश्यक नहीं, किंतु सब्र करनेवाले के परिजन अवश्य ही उसके फल का आनंद उठाते हैं। 3. आज का प्रेरणास्रोत कल की प्रतारणा का स्रोत होता है। 4. लाल को राम बनाने में नहीं, बल्कि राम के लाल होने में ही भलाई है। 5. हम अपनी कब्र अपने ही खोदते हैं। 6. कब्र खुदने और कब्र में दफनाए जाने के बीच का समय ही नर्क है। इसलिए अपनों को साधकर रखिए, ताकि वे आपके जीते जी ही आपकी कब्र न खोद दें। 7. कुछ लोगों के जीते जी हाथ जोड़ें या मरने के बाद वे दोनों ही सूरतों में आपके अकल्याण का कारण होते हैं। 8. अतीत और
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बड़ी समस्या से निपटने का सबसे सरल उपाय है, किसी छोटी समस्या को उससे बड़ा और खतरनाक सिद्ध कर दीजिए। इससे हमारा ध्यान उस बड़ी समस्या से हटकर कहीं और केंद्रित हो जाएगा, जिससे वह हमें दिखाई नहीं देगी। किसी चीज का दिखाई न देना अमूमन उसके न होने का प्रमाण होता है, भगवान् और भूत को छोड़कर। इस सूत्र को मनोविज्ञान की भाषा में डायवर्टिंग अटेंशन (भटक-भटका) कहा जाता है।
यदि अच्छे शिकारी किसी कारणवश शेर का शिकार नहीं कर पाते, तो पहले वे गीदड़ को शेर बनाकर प्रतिष्ठित करते हैं। फिर गीदड़ को शेर की मौत मारते हैं। इससे उनकी श्रेष्ठतम शिकारी होने की प्रतिष्ठा बची रहती है, क्योंकि वे इस सत्य से भलीभाँति परिचित होते हैं कि संसार यह देखकर प्रभावित नहीं होता कि शिकारी ने कैसे शिकार किया? बल्कि संसार इस बात को स्मरण रखता है कि शिकारी ने किसका शिकार किया? शेर को गीदड़ की मौत मारना यदि उन्हें महानतम शिकारी की प्रतिष्ठा देता है, तो गीदड़ को गीदड़ की मौत मारना, उनकी प्रतिष्ठा को धूमिल कर उन्हें गीदड़ के स्तर पर खड़ा कर देता है।
यदि आप शेर हैं तो गीदड़ से मत उलझिए, इससे आपकी प्रतिष्ठा को खतरा है। 2. यदि आप शेर हैं, तब भी शेर से मत उलझिए, इससे आपकी जान को खतरा है।
किसी को तुष्ट कर हम स्वयं पुष्ट होते हैं। तुष्टीकरण सुप्त को जाग्रत् करने के लिए नहीं, बल्कि जाग्रत् को सुप्त करनेवाला सुवासित इंजेक्शन है। यह औषधि के नाम पर बेचा जानेवाला मादक द्रव्य है।”
को न चाहते हुए भी अपने हृदय के टुकड़े करने पड़ते हैं, क्योंकि वे इस व्यावहारिक सत्य को जानती हैं कि यदि वे बच्चों में बँटेगी नहीं तो फिर कटेगी या पिटेगी। और कटने-पिटने से कहीं बहुत अच्छा है बँटना।
“आधी मम्मी आपकी, और आधी मम्मी बाप की। दाँव लगाना सीख लो तो सारी मम्मी आपकी॥”
दोनों भाई समवेत स्वर में बोले, “हम दोनों एक ही सिक्के के दो पहलू हैं। इस सिक्के को सँभालकर रखना माँ की जिम्मेदारी ही नहीं मजबूरी भी है, क्योंकि बाजार में मम्मी नहीं, सिक्का ही चलता है।”
अपने द्वारा अनजाने में हुई अशिष्टता के अपराध-बोध से भर गया, क्योंकि पच्चीस-पचास लोग होने के बाद भी सभी उनकी अनुपम छटा के अनुशासन से बँधे, बिल्कुल शांत सम्मोहित से बैठे थे, माहौल में सुई पटक सन्नाटा था।
लोग सभी बातों से ध्यान हटाकर मात्र ‘G’ पर ध्यान लगाओ। G बड़ा चमत्कारी शब्द है, यह ‘ॐ’ से भी ज्यादा पावरफुल है। G फॉर जिगर, G फॉर गॉड, G फॉर गुड्ज। अपना G यानी जिगर लगाओगे तो G यानी गॉड मिलेंगे, गॉड मिले तो गुड्ज अपने आप मिल जाएँगे। G फॉर गॉड को पाना इतना आसान नहीं है, इसके लिए तुम्हें ‘S’ फॉर साइलेंट होना पड़ेगा, तुम्हारा S फॉर साइलेंट होना ही ‘T’ फॉर तपस्या
“भास्करस्य यथा तेजो मकरस्थस्य वर्धते। तथैव भवतां तेजो वर्धतामिति कामये॥” ...भाईसाहब
“जी सूर्य देव आज धनु राशि से मकर राशि में प्रवेश कर रहे हैं, व दक्षिणायन से उत्तरायण हो रहे हैं, जगत् एवं प्राणीमात्र के कल्याण के लिए, इस पवित्र संक्रमण काल को मकर संक्रांति कहा जाता है।”
यह भारत है, हम स्वार्थ नहीं परमार्थ की संस्कृति के पोषक हैं, यहाँ अपना नहीं दूसरे का दर्द, दौलत और दबदबा महत्त्वपूर्ण होता है। हम ‘उधार ही उद्धार है’ के मंत्र पर चलनेवाले उद्धारक हैं, हमारी इसी उद्धारक वृत्ति के कारण ही संसार हमें विश्व गुरु कहता है। तुम अपनी भाषा के प्रति आग्रही होकर हमारी छवि को विश्व में कलंकित मत करो। उदारता ही धार है, यही तो उधार है। इसलिए यह देश उधार पर चलता है, चाहे भाषा हो या पैसा, प्यार हो या व्यापार, संस्कृति हो या संपत्ति, सारे विश्व में जो भी श्रेष्ठ था, नियम-कानून से लेकर शिक्षा पद्धति तक, हमने सबका गटर्रा बना लिया है। संसार के कल्याण के लिए यदि हमें स्वयं का,
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बड्डे सूर्य के प्रकाश में गाँव के किसी भी व्यक्ति को दृश्यमान नहीं होते थे, किंतु जैसे ही सूर्य अमरीका को प्रकाशित करने के लिए चला जाता, वैसे ही बड्डे भारतभूमि पर दृष्टिगोचर होने लगते। प्रतिदिन शाम को ही घर से बाहर निकलने या गाँव की गलियों में विहार करने के कारण गाँव के लोग उनको शामबिहारी कहने लगे, यानी जो सिर्फ शाम को ही विहार करे वह शामबिहारी।
-ना वे मेरे सगे भाई नहीं हैं और ना ही सौतेले हैं, ये वे भाईसाहब थे, जिन्होंने अपने सद् आचरण से नहीं, बल्कि सर्वत्र विचरण से हमारे पूरे मुहल्ले पर जबरदस्ती अपना भाईसाहबपन लादा हुआ था।
उद्देश्यहीनता से प्रेरित इस भटकती हुई आत्मा का किसी भी उद्देश्य प्रधान व्यक्ति को स्वयं में अटका लेना ही प्रमुख उद्देश्य होता था।
भाईसाहब निश्चित मानसिकता वाले व्यक्ति को अनिश्चित मानसिकता वाले व्यक्ति में रूपांतरित करने में महारथी थे। इस उद्देश्यहीन दिव्यात्मा का एकमात्र उद्देश्य था कि लोगों के उद्देश्य में शामिल होकर उन्हें निरुद्देश्य कर देना और स्वयं को उनके काउंसलर, उनके पथप्रदर्शक के रूप में प्रचारित करना।
मुझे आज समझ में आया, कि क्यों लीलापुरुषोत्तम श्रीकृष्ण भीषण परिस्थितियों में भी अपने अधरों पर सदैव मुस्कान को धारण किए रहते थे, मुस्कान वह अद्भुत अस्त्र है, जो मुखर, वाचाल और वाचिक प्रदूषण पैदा करने वाले व्यक्ति को नष्ट ही नहीं, ध्वस्त भी करता है।