Maun Muskaan Ki Maar (Hindi Edition)
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को जगाना नहीं, बच्चे को सुलाना कला है, इसलिए माताएँ बच्चे को सुलाने के लिए लोरी गाती हैं, उसे जगाने के लिए नहीं। सुख मीठी नींद में है गुरु, सो मेरे काम को तुम माँ की लोरी मानो, क्योंकि अच्छी नींद लेनेवाला बच्चा जब अपने आप जागता है तो वह आनंद और ऊर्जा से भरा होता है, फिर उसको अपना अभाव भी प्रभाव नजर आता
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आज तुम्हारे नाम का सही अर्थ समझ में आया, जो स्वयं के ही नहीं, संसार के भी तपते हुए भाग्य को चाँद की शीतलता के एहसास से भर दे, वह भागचंद।
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मैंने हँसते हुए कहा, “अब सफलता सिद्ध मंत्र से नहीं, शुद्ध षड्यंत्र से मिलती है भग्गू।”
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यह गुरुमंत्र नहीं, भविष्यवाणी है, किसी भी भविष्यवक्ता से मुफ्त में भविष्य नहीं सुना जाता, इसलिए दस्तूर के मुताबिक मुझे दक्षिणा दो, जिससे तुम्हारा सोचित व मेरे द्वारा घोषित भविष्य फलित हो।”
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मनोविज्ञान का नियम है कि उत्सुक व्यक्ति की उत्सुकता को तुरंत निस्तार नहीं देना चाहिए, यह बिल्कुल अधपके फल को तोड़ लेने के जैसा होता है।
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वे कन्फ्यूज हो गए थे, क्योंकि उनकी रुचि मुझमें थी ही नहीं, वे मेरे बारे में जानने से अधिक स्वयं के बारे में बताने को अधिक उत्सुक थे, उन्होंने मुझसे संबं‌धित कुछ उड़ते हुए सवाल मात्र इसलिए किए थे, जिससे उन्हें स्वयं के बारे में बताने का वैध लाइसेंस मिल जाए।
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“अकेला व्यक्ति यदि बात करने लगे तो लोग उसे पागल कहेंगे, चुप रहना मेरा स्वभाव नहीं, मेरे सामान्य प्राणी होने का प्रमाण है।”
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आत्माएँ तो अपनी अतृप्त इच्छा की पूर्ति के लिए किसी जीवित व्यक्ति को अपना साधन बनाती हैं, उनकी एक निश्चित माँग होती है, इसलिए उनसे निपटना आसान है। किंतु ये! अतृप्त नहीं अशांत आत्माएँ हैं। जिनकी कोई माँग ही नहीं होती, सिवाय अशांति के। जो व्यक्ति इनके रडार में है, उसे पीड़ा पहुँचाना ही इनका प्रमुख धर्म है। मृत आत्माएँ तो बेचारी स्वपीड़ा से ग्रसित होती हैं, किंतु ये परपीड़ा के उन्माद से भरे होते हैं। इसलिए मैं इनको परपीड़क संघ के नाम से पुकारता
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पहले निरक्षरता थी तो मरने के बाद भी आत्माएँ भोंदू ही रहती थीं, भूत बनने के लिए उनको मरना पड़ता था। अब साक्षरता का परचम चारों ओर फहरा रहा है, अब भूत बनने के लिए मरने की जरूरत नहीं है। साक्षरता के कारण अब जीवित होते हुए भूत बनने की कला में ये पारंगत हैं। जिंदा भूत मरे हुए भूत से ज्यादा खतरनाक होता है, साहब। पहले मरने के बाद कब्र खोदी जाती थी, अब ये जिंदा भूत आपके जीते जी ही आपकी कब्र खोद देते हैं। गड़े मुरदे उखाड़ने में तो ये एक्सपर्ट होते हैं। ये जादू भी जानते हैं, अच्छे-भले मनुष्य को गधा और उल्लू बनाने में तो महारथ हासिल है इनको। अब
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आप सोचें कि मैं मनुष्य हूँ, इसलिए मनुष्य जाति को आप अपनी बात से सहमत कर लेंगे, तो आप गलतफहमी में हैं, क्योंकि अब आप मनुष्य बचे ही नहीं, इन्होंने आपको गधा या उल्लू बना दिया है और यह संसार का नियम है कि कोई भी मनुष्य किसी गधे या उल्लू की बात से सहमत नहीं होता, चूँकि आप गधा और उल्लू बना दिए गए हैं, इसलिए आपकी बात से सहमत होनेवाला ऑटोमैटिक गधा और उल्लू की बिरादरी में शामिल हो जाएगा। इसलिए लोग आपसे कहकर रहेंगे और आप संसार में अकेले पड़ जाएँगे।
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आप महाभारत के अश्वत्थामा के जैसे अपने घाव को लेकर भटकते रहेंगे। ये आपको मरने देंगे नहीं और जिंदा आप रह नहीं पाएँगे।
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मनुष्य एक सामाजिक प्राणी है, सो आप सोशल होने की चाह से सोशल मीडिया की तरफ लपलपाते हुए चले आते हैं, किंतु इन जिंदा भूतों ने इस सोशल मीडिया को सबसे ज्यादा अनसोशल बनाकर रख दिया है।
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बिल्कुल भगवान् के जैसा व्यवहार करते हैं, पल भर में किसी का निर्माण कर दें और क्षण भर में किसी को मिटा कर रख दें। जैसे ईश्वर सब जगह है, लेकिन किसी को दिखाई नहीं देता, बिल्कुल वैसे ही ये हैं। इनके कई रूप होते हैं, इसलिए इनका कोई रूप नहीं होता।”
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हुए को मौत की धमकी से डर नहीं लगता, साहब। यदि कोई हो तो सजा मिलेगी न! जब वहाँ कोई है ही नहीं, तो उसका क्या उखाड़ लेंगे आप? किस पर मुकदमा करेंगे? एक जगह से उसे ब्लॉक कर दो, वह दूसरी जगह से घर में घुस जाएगा।
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कानून बनाकर आप मनुष्य पर नियंत्रण कर सकते हैं, हवा पर नहीं। विज्ञान सबसे शक्तिशाली होता है, वह भी सिर्फ साकार को ही कंट्रोल कर सकता है, निराकार को साधने की ताकत उसमें भी नहीं है। फिर कानून तो सिर्फ एक मान्यता है। माननेवालों के लिए वह भगवान् है और न माननेवालों के लिए कल्पना।
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“जैसे अभेद किला बनाने से पहले वास्तुशास्त्री उसमें चोर दरवाजे का निर्माण कर लेते हैं, जिससे जरूरत पड़ने पर बचने के लिए उस दरवाजे से बाहर निकला जा सके। वैसा ही कुछ आप यहाँ भी समझें।”
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साधारण लोगों को तो आजकल मरे हुए भूत भी घास नहीं डालते, फिर जिंदा की बात तो आप भूल ही जाएँ। उनके आकर्षण का केंद्र बनने के लिए पहले आपको प्रसिद्ध होना पड़ेगा। वे सिर्फ उन्हीं को दिखाई देते हैं, जो कुछ हों, आखिर उनकी भी कुछ इज्जत है। डाका वहाँ डाला जाता है, जहाँ कोई खजाना हो। भिखारियों के घर में चोर नहीं घुसते, लूट वहाँ होती है, जहाँ लूटने के लिए कुछ हो, आपके पास है ही क्या? जो वे आपको दिखाई दें? पहले उनके दर्शन की पात्रता प्राप्त कीजिए, फिर उनके अस्तित्व पर प्रश्नचिंह लगाइए। आपने रेल का टिकट खुद लिया या किसी ने आपको स्पोंसर किया है?”
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इन्होंने अशक्त के पक्ष में नहीं, सशक्त के विरुद्ध मोरचा खोला हुआ है।
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आजकल जली जलाई बीड़ी से बीड़ी जलाने का जमाना है। अपनी माचिस लेकर कोई नहीं घूमता।
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मैं बहुत बड़े तंत्र का एक छोटा या यंत्र हूँ, यंत्र कितना ही बड़ा हो जाए, किंतु तंत्र से बड़ा नहीं हो सकता। इसलिए तंत्र तो यंत्र को देख सकता है, किंतु यंत्र में तंत्र तक पहुँचने की हैसियत नहीं है।”
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मैंने कहा, “यानी यह बिल्कुल भगवान की माया के जैसा है, जिसमें हम माया को तो प्राप्त कर सकते हैं, किंतु मायापति को नहीं।”
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जब हम सभी ब्रह्म‍ हैं, तब आप क्यों चाहते हैं कि हम मिथ्या के पक्ष में खड़े होकर ब्रह्म‍ होते हुए भी मिथ्या के नाम से जाने जाएँ? जो अंतर तंत्र और तांत्रिक में होता है, वही अंतर ब्रह्म‍ और ब्रह्मा में है। ब्रह्म‍ एक धारणा है, जो असीमित है और ब्रह्मा एक व्यक्ति है, जो सीमित है।
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हम जैसे आमजन विशेष होने में नहीं, शेष होने में विश्वास रखते हैं, क्योंकि विशेष सीमित होता है और शेष असीमित। हम तंत्र के उपासक हैं, तांत्रिक के नहीं। हम साधारण लोग व्यवस्था और विचार के पक्षधर होते हैं, व्यक्ति के नहीं, क्योंकि व्यक्ति आते-जाते रहते हैं, किंतु व्यवस्था सदैव वर्तमान होती है। इसलिए हम आम लोग व्यवस्था के लिए व्यक्ति को बदलते हैं, व्यक्ति के लिए व्यवस्था को नहीं बदलते।
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“हम जैसों के लिए व्यक्ति की विशेषता प्राप्त करने से कहीं अधिक कल्याणकारी विचार की विलक्षणता को प्राप्त करना है, क्योंकि कोई भी व्यवस्था व्यक्ति से नहीं, विचार से संचालित होती है। हम सामान्य लोग किसी की बदनामी पर अपने नाम की इमारत नहीं खड़ी करते। किसी को मिटाकर स्वयं को बनाने में हमारा विश्वास नहीं है। किसी की अप्रतिष्ठा पर हम अपनी प्रतिष्ठा का महल खड़ा नहीं करते। हम समाज को सुधारने में नहीं, स्वयं को सुधारने में विश्वास रखते हैं, क्योंकि हमें हमारे संत मनीषियों ने सिखाया है कि ‘हम सुधरेंगे, तो जग सुधरेगा।’
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आपके जैसा तांत्रिक, यांत्रिक नहीं हूँ, लेकिन मांत्रिक जरूर हूँ। इसलिए आपको प्रसिद्धि का नहीं, सिद्धि का मंत्र बताता हूँ। आम होना ही खास होने की प्रक्रिया है महाराज। यदि आप खास होना चाहते हैं तो स्वयं को आम बना लीजिए। आ...
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आतंक से ज्यादा खतरनाक अराजकता होती है। भ्रष्टाचार से ज्यादा घातक तुम जैसों का मिथ्याचार है। मैं विशुद्ध देहाती भारतीय हूँ, विशिष्टता की चाह में अशिष्टता करनेवालों की नकेल कसना हमें खूब आता है। अपने छोटे से स्वार्थ के लिए इस बड़े देश की अस्मिता और आन के साथ मत खेलो। किसी देश की प्रगति को जितना खतरा युद्ध से नहीं होता, उससे ज्यादा गृहयुद्ध से होता है। अपने लोग हुज्जत करने के लिए और इज्जत करवाने के लिए होते
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“गहइ छाहँ सक सो न उड़ाई। एहि बिधि सदा गगनचर खाई॥ सोइ छल हनुमान कहँ कीन्हा। तासु कपटु कपि तुरतहिं चीन्हा॥”
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क्योंकि जहाँ रामभक्त हनुमान हैं, वहाँ प्रभु श्रीराम का होना निश्चित है। श्रीराम तो अयोध्यापति हैं, इसलिए हमारा पूरा देश ही नहीं, हमारी देह भी अयोध्या है। अयोध्या अर्थात्, जहाँ युद्ध नहीं होता। अब धड़धड़ाती हुई ट्रेन में अपने गंतव्य की ओर पीठ किए हुए मैं निश्चिंत होकर बढ़ रहा था।
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पिता का पुत्र को घर से निकालना तो फिर भी समझ में आता है, किंतु भक्तों के द्वारा भगवान को बेघर करना उन्हें मर्मांतक पीड़ा देता था।
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अरे एक लाख पूत और सवा लाख नाती वाले महाप्रतापी रावण जैसे आदमी की ईंट-से-ईंट बजा दी।”
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“आप सत्य कह रहे हैं, रामजी का सुख ही हमारा सुख है, उन्हें दुखी रखकर एक राष्ट्र के रूप में हम कभी सुखी नहीं हो सकते, क्योंकि राम मात्र कोई व्यक्ति या पूज्य अवतार ही नहीं हैं, ये हमारी चेतना का आधार-स्तंभ हैं और कोई भी सभ्यता, संस्कृति, सौहार्द, शांति, शिक्षा, विकास को पुष्पित, सुरभित, पल्लवित व फलित होने के लिए आधार की आवश्यकता होती है, ये निराधार खड़े नहीं हो सकते।
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समस्या यह है कि हम राम को तो मानते हैं, लेकिन राम की नहीं मानते। हम गीता को तो मानते हैं, लेकिन गीता की नहीं मानते।
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“अतुलितबलधामं हेमशैलाभदेहं दनुजवनकृशानुं ज्ञानिनामग्रगण्यम्। सकलगुणनिधानं वानराणामधीशं रघुपतिप्रियभक्तं वातजातमनमामी॥”
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शास्त्रों में स्पष्ट कहा गया है कि अन्न ही साकार ब्रह्म‍ है। अन्न रूपी ब्रह्म‍ जब साकार से निराकार की बिरादरी में जाता है, गैस फॉर्म में, तब आप उसे देख नहीं सकते, सिर्फ अनुभूत कर सकते हैं, तब वह आँख का नहीं, नाक का विषय हो जाता है और यह संसार का नियम है कि हर आदमी को दूसरे का ब्रह्म‍ बेहूदा, बदबूदार ही लगता है। इसलिए तुम गौर करना, इनसान को दूसरे का पाद और दूसरे की सफलता फूटी आँखों नहीं सुहाती, लेकिन अपना पाद और अपनी सफलता के गुणगान गाते हुए इनसान दिव्यानुभूति से भरा होता है। अपना ब्रह्म‍ ब्रह्म‍ और दूसरे का ब्रह्म‍‍‍ बदबू...यह कोई बात हुई! तुम
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मैंने कहा कि जब कोई बलात् हमारी ईमानदारी पर हमला करता है, जब न चाहते हुए भी हम लूट लिये जाते हैं, जब जबरदस्ती हमारे सच को झूठ करार दिया जाता है, जब चार लोग मिलकर हमें देखते ही मरीज या पागल कहने लगते हैं, तब अच्छा-भला आदमी टूट ही जाता है। अनपढ़ आदमी की मार शरीर पर होती है, लेकिन पढ़े-लिखे लोग मन-मस्तिष्क पर चोट करते हैं, क्योंकि वे जानते हैं कि तन को खंडित करने से कहीं अधिक लाभ मन को खंडित करने में होता है। किसी को नष्ट करना है तो उसको नहीं, उसके विश्वास को नष्ट कर दो, उसका विवेक स्वयमेव समाप्त हो जाएगा। फिर वह परिवार में रहते हुए भी परिवार का व्यक्ति नहीं, भीड़ का हिस्सा हो जाएगा।
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मैंने पत्नी की तरफ प्रेम भरी मायूसी से देखा और विवशता भरे स्वर में उससे कहा, “हे मेरी सबसे अच्छी मित्र, मुझे क्षमा करना। मैं अब व्यक्ति नहीं रहा, भीड़ हो गया हूँ और भीड़ के लिए सारा संसार सिर्फ एक ही बात कहता है कि भीड़ पागल होती
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“गीता में उन्ने साफ कहा था कि कलजुग में सिर्फ पाखंडियों की ही लिसेगी। तुमई लोग राज करना, पैसा कमाना, हम कुछ नई कहेंगे। मनो अभी इस जुग में, हमाए सामने नहीं। अभी तो भाई तुम्होरों खों मरना पड़ेगा और ये कहकर उन्ने सब अधर्मी, पाखंडी मार डाले। गीता की बात झूँटी नई हो सकती।”
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“त्रेता युग में दूध मिला था, और द्वापर में घी। ये कलयुग है प्यारे भैया, मूर्ख बनाकर
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“देखा, मैंने कहा था न, किसी व्यवधानी, समाधानी व्यक्ति के पास बिना समस्या के जाने से वह एक नई समस्या खड़ी कर देता है।”
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“सतयुग का धन सत्य था, और त्रेता का धीर। द्वापरयुग में वीरता, कलयुग का धन पीर॥”
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एक, रावण का विभीषण पर पद प्रहार। दूसरा, अंगद का रावण की सभा में पद स्तंभन (चरण जमा देना)। तीसरा, नील आर्मस्ट्रांग, जिसने चाँद पर सबसे पहले अपने चरण रखे थे।
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गंध व्यक्ति के विवेक का हरण कर लेती है, इसी सिद्धांत पर दुनिया भर में इत्र का, परफ्यूम का, डीओडरंट का और उससे जुड़ी विज्ञापन फिल्मों का अरबों-खरबों का व्यापार चल रहा है। भोजन की गंध ही भूख को बढ़ाने और पचानेवाले एंजाइम्ज शरीर में छोड़ती है। सो कानून की सिर्फ आँख बंद करने से काम नहीं चलेगा, उसकी नाक भी बंद करना आवश्यक है, जिससे विवेक भ्रमित न हो, क्योंकि विवेक सुनकर भले ही प्रभावित न हो, किंतु सूँघकर निश्चित ही प्रभावित होता है। इसका प्रत्यक्ष प्रमाण बिस्पाद जैसे साधारण से वकील का असाधारण जमानतवीर वकील के रूप में प्रतिष्ठित होना है। संसार में लोगों के व्यक्तित्व की खुशबू फैलती है, किंतु एडवोकेट ...more
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अब उन्हें आँसू भी नहीं निकलते, क्योंकि आँसू तो वेदना की उत्पत्ति होते हैं, विवेक की नहीं, चूँकि उनपर समाज को न्याय देने की जिम्मेदारी है, न्याय वेदना पर नहीं, विवेक पर आधारित होता है। कुछ लोगों का मानना है कि व्यक्ति का विवेक जागता ही तब है, जब उसकी वेदना मर जाती है।
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गद्य लिखे सो गधा होय, पद्य लिखे पद्माकर। चार लाइनें सीधी लिख दीं, तब मानें लिखो घुमाकर।
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के संबंध चलें-न-चलें, लेकिन वित्त के संबंध लंबे चलते हैं।’ किसी के चित्त में जगह बनानी है तो उसका वित्त फँसा लो। जरूरी नहीं कि किसी के चित्त में वित्त का स्थान हो, लेकिन यह अकाट्‍य सत्य है कि वित्त में चित्त का वास होता है।
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आदमी को खुशी वर्तमान की हकीकत में नहीं, भविष्य की सुखद कल्पना से मिलती है। तुम तुम्हारे हाथ में कितना है से नहीं, तुम्हारे खयाल में कितना है, से सुखी रहते हो।
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सुख पल में नहीं कल में है। और कल शब्द बड़ा चमत्कारी है, इसको भविष्य के लिए भी इस्तेमाल किया जाता है और अतीत के लिए भी। जिस युग में आज के लिए नहीं कल के लिए जिया जाए, वही तो कलयुग है। अध्याय समाप्त
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हमारी सनातन फिलॉसफी में भी यही है आइदर (either) स्वर्ग ऑर (or) नर्क बट नो (but no) वर्ग।”
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इजहार करो, चीखो-चिल्लाओ...अगर नहीं तो तुम्हारा मौन स्वीकृति का नहीं अस्वीकृति का लक्षण माना जाएगा, जिसके परिणामस्वरूप किसी पीपल के नीचे बिठाकर हम तुम्हें पिंपलेश्वर महादेव कहकर तुम्हारे सर पर नारियल फोड़ेंगे, फिर नहीं कहना कि भाईसाहब आपने हमसे पहले क्यों नहीं कहा।
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ही दीन मुद्रा बनाकर मुझसे बोले, “लक्ष्मी विष्णुप्रिया हैं, किसी की प्रिया को अपने पास बंधक बनाकर रखो तो वह विरह में काली हो जाती है। तुम जानते हो कि मुझसे किसी का दर्द नहीं देखा जाता, दो प्रेमियों को आपस में मिला देना सबसे बड़ा पुण्य है, सो लक्ष्मी को विष्णुजी से मिलाने का काम कर रहा था।