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सूर्य एक सत्य है जिसे झुठलाया नहीं जा सकता मगर ओस भी तो एक सच्चाई है यह बात अलग है कि ओस क्षणिक है क्यों न मैं क्षण-क्षण को जीऊँ? कण-कण में बिखरे सौंदर्य को पीऊँ?
सूर्य तो फिर भी उगेगा, धूप तो फिर भी खिलेगी, लेकिन मेरी बगीची की हरी-हरी दूब पर, ओस की बूँद हर मौसम में नहीं मिलेगी।
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टू टे हुए तारों से फूटे वासंती स्वर, पत्थर की छाती में उग आया नव अंकुर, झरे सब पीले पात, कोयल की कुहुक रात, प्राची में अरुणिमा की रेख देख पाता हूँ। गीत नया गाता हूँ। टूटे हुए सपने की सुने कौन सिसकी? अंतर को चीर व्यथा पलकों पर ठिठकी। हार नही मानूँगा, रार नई ठानूँगा, काल के कपाल पर लिखता-मिटाता हूँ। गीत नया गाता हूँ।
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टूट सकते हैं मगर हम झुक नहीं सकते। सत्य का संघर्ष सत्ता से, न्याय लड़ता निरंकुशता से, अँधेरे ने दी चुनौती है, किरण अंतिम अस्त होती है। दीप निष्ठा का लिये निष्कंप, वज्र टूटे या उठे भूकंप, यह बराबर का नहीं है युद्ध हम निहत्थे, शत्रु है सन्नद्ध, हर तरह के शस्त्र से है सज्ज, और पशुबल हो उठा निर्लज्ज। किंतु फिर भी जूझने का प्रण, पुनः अंगद ने बढ़ाया चरण, प्राण-पण से करेंगे प्रतिकार, समर्पण की माँग अस्वीकार। दाँव पर सबकुछ लगा है, रुक नहीं सकते। टूट सकते हैं मगर हम झुक नहीं सकते।
बाधाएँ आती हैं आएँ, घिरें प्रलय की घोर घटाएँ, पाँवों के नीचे अंगारे, सिर पर बरसें यदि ज्वालाएँ, निज हाथों से हँसते-हँसते, आग लगाकर जलना होगा। कदम मिलाकर चलना होगा। हास्य-रुदन में, तूफानों में, अमर असंख्यक बलिदानों में, उद्यानों में, वीरानों में, अपमानों में, सम्मानों में उन्नत मस्तक, उभरा सीना, पीड़ाओं में पलना होगा! कदम मिलाकर चलना होगा। उजियारे में, अंधकार में, कल कछार में, बीच धार में, घोर घृणा में, पूत प्यार में, क्षणिक जीत में, दीर्घ हार में, जीवन के शत-शत आकर्षक, अरमानों को दलना होगा। कदम मिलाकर चलना होगा। सम्मुख फैला अमर ध्येय-पथ, प्रगति चिरंतन कैसा इति-अथ, सुस्मित हर्षित कैसा श्रम
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प्रखर प्यार से वंचित यौवन, नीरवता से मुखरित मधुवन, पर-हित अर्पित अपना तन-मन, जीवन को शत-शत आहुति में, जलना होगा, गलना होगा। कदम मिलाकर चलना होगा।
कभी न खेतों में फिर खूनी खाद फलेगी, खलिहानों में नहीं मौत की फसल खिलेगी, आसमान फिर कभी न अंगारे उगलेगा, एटम से नागासाकी फिर नहीं जलेगी, युद्ध विहीन विश्व का सपना भंग न होने देंगे। जंग न होने देंगे।
हथियारों के ढेरों पर जिनका है डेरा, मुँह में शांति, बगल में बम, धोखे का फेरा, कफन बेचनेवालों से कह दो चिल्लाकर, दुनिया जान गई है उनका असली चेहरा, कामयाब हो उनकी चालें, ढंग न होने देंगे। जंग न होने देंगे। हमें चाहिए शांति, जिंदगी हमको प्यारी, हमें चाहिए शांति, सृजन की है तैयारी, हमने छेड़ी जंग भूख से, बीमारी से, आगे आकर हाथ बँटाए दुनिया सारी। हरी-भरी धरती को खूनी रंग न लेने देंगे। जंग न होने देंगे।
जन्म-मरण का अविरत फेरा, जीवन बंजारों का डेरा, आज यहाँ, कल कहाँ कूच है, कौन जानता, किधर सवेरा, अँधियारा आकाश असीमित, प्राणों के पंखों को तौलें। अपने ही मन से कुछ बोलें!
पेड़ के ऊपर चढ़ा आदमी उँचा दिखाई देता है। जड़ में खड़ा आदमी नीचा दिखाई देता है। आदमी न ऊँचा होता है, न नीचा होता है, न बडा होता है, न छोटा होता है। आदमी सिर्फ आदमी होता है। पता नहीं, इस सीधे-सपाट सत्य को दुनिया क्यों नहीं जानती? और अगर जानती है, तो मन से क्यों नहीं मानती? इससे फर्क नहीं पड़ता कि आदमी कहाँ खड़ा है? पथ पर या रथ पर? तीर पर या प्राचीर पर? फर्क इससे पड़ता है कि जहाँ खड़ा है, या जहाँ उसे खड़ा होना पड़ा है, वहाँ उसका धरातल क्या है? हिमालय की चोटी पर पहुँच, एवरेस्ट-विजय की पताका फहरा, कोई विजेता यदि ईर्ष्या से दग्ध अपने साथी से विश्वासघात करे, तो क्या उसका अपराध इसलिए क्षम्य हो जाएगा
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बेनकाब चेहरे हैं, दाग बड़े गहरे हैं, टूटता तिलिस्म, आज सच से भय खाता हूँ। गीत नहीं गाता हूँ। लगी कुछ ऐसी नजर, बिखरा शीशे-सा शहर, अपनों के मेले में मीत नहीं पाता हूँ। गीत नहीं गाता हूँ। पीठ में छुरी-सा चाँद, राहु गया रेखा फाँद, मुक्ति के क्षणों में बार-बार बँध जाता हूँ। गीत नहीं गाता हूँ।
जीवन की ढलने लगी साँझ उमर घट गई डगर कट गई जीवन की ढलने लगी साँझ। बदले हैं अर्थ शब्द हुए व्यर्थ शांति बिना खुशियाँ हैं बाँझ। सपनों से मीत बिखरा संगीत ठिठक रहे पाँव और झिझक रही झाँझ। जीवन की ढलने लगी साँझ।
मुझे दूर का दिखाई देता है, मैं दीवार पर लिखा पढ़ सकता हूँ, मगर हाथ की रेखाएँ नहीं पढ़ पाता। सीमा के पार भड़कते शोले मुझे दिखाई देते हैं। पर पाँवों के इर्द-गिर्द फैली गरम राख नजर नहीं आती। क्या मैं बूढ़ा हो चला हूँ? हर पचीस दिसंबर को जीने की एक नई सीढ़ी चढ़ता हूँ, नए मोड़ पर औरों से कम, स्वयं से ज्यादा लड़ता हूँ। मैं भीड़ को चुप करा देता हूँ, मगर अपने को जवाब नहीं दे पाता, मेरा मन मुझे अपनी ही अदालत में खड़ा कर, जब जिरह करता है, मेरा हलफनामा मेरे ही खिलाफ पेश करता है, तो मैं मुकदमा हार जाता हूँ, अपनी ही नजर में गुनहगार बन जाता हूँ। तब मुझे कुछ दिखाई नहीं देता, न दूर का, न पास का, मेरी उम्र
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भीड़ में खो जाना, यादों में डूब जाना, स्वयं को भूल जाना, अस्तित्व को अर्थ, जीवन को सुगंध देता है। धरती को बौनों की नहीं, ऊँचे कद के इनसानों की जरूरत है। इतने ऊँचे कि आसमान को छू लें, नए नक्षत्रों में प्रतिभा के बीज बो लें, किंतु इतने ऊँचे भी नहीं, कि पाँव तले दूब ही न जमे, कोई काँटा न चुभे, कोई कली न खिले। न वसंत हो, न पतझड़, हो सिर्फ ऊँचाई का अंधड़, मात्र अकेलेपन का सन्नाटा। मेरे प्रभु! मुझे इतनी ऊँचाई कभी मत देना गैरों को गले न लगा सकूँ इतनी रुखाई कभी मत देना।
पृथिवी पर मनुष्य ही ऐसा एक प्राणी है, जो भीड़ में अकेला, और अकेले में भीड़ से घिरा अनुभव करता है। मनुष्य को झुंड में रहना पसंद है। घर-परिवार से प्रारंभ कर, वह बस्तियाँ बसाता है। गली-ग्राम-पुर-नगर सजाता है। सभ्यता की निष्ठुर दौड़ में, संस्कृति को पीछे छोड़ता हुआ, प्रकृति पर विजय, मृत्यु को मुट्ठी में करना चाहता है। अपनी रक्षा के लिए औरों के विनाश के सामान जुटाता है। आकाश को अभिशप्त, धरती को निर्वसन, वायु को विषाक्त, जल को दूषित करने में संकोच नहीं करता। किंतु, यह सबकुछ करने के बाद जब वह एकांत में बैठकर विचार करता है, वह एकांत, फिर घर का कोना हो, या कोलाहल से भरा बाजार, या प्रकाश की गति से तेज
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