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“… अपनी ज़िंदगी में तुमने क्या किया? किसी से सच्चे दिल से प्यार किया? किसी दोस्त को नेक सलाह दी? किसी दुश्मन के बेटे को मोहब्बत की नज़र से देखा? जहाँ अँधेरा था वहाँ रौशनी की किरन ले गये? जितनी देर तक जिये, इस जीने का क्या मतलब था . .? . .”
लोग जब अपने बारे में लिखते हैं तो सबसे पहले यह बताते हैं कि वो किस शहर के रहने वाले हैं—मैं किस शहर को अपना शहर कहूँ?
मेरी क्लास में कई बच्चे घड़ी बाँधते हैं। वो सब बहुत अमीर घरों के हैं। उनके पास कितने अच्छे-अच्छे स्वेटर हैं। एक के पास तो फाउन्टेन पेन भी है। यह बच्चे इन्टरवल में स्कूल की कैन्टीन से आठ आने की चॉकलेट ख़रीदते हैं (अब भगवती की चाट अच्छी नहीं लगती)। कल क्लास में राकेश कह रहा था उसके डैडी ने कहा है कि वो उसे पढ़ने के लिए इंग्लैंड भेजेंगे। कल मेरे नाना कह रहे थे … अरे कमबख़्त! मैट्रिक पास कर ले तो किसी डाकख़ाने में मोहर लगाने की नौकरी तो मिल जाएगी। इस उम्र में जब बच्चे इंजन ड्राईवर बनने का ख़्वाब देखते हैं, मैंने फ़ैसला कर लिया है कि बड़ा होकर अमीर बनूँगा …
बहुत नाकामियों पर आप अपनी नाज़ करते हैं अभी देखी कहाँ हैं, आपने नाकामियाँ मेरी
“मैं जिस दुनिया में रहता हूँ वो उस दुनिया की औरत है”—
ऐसा तो नहीं है कि मैंने ज़िंदगी में कुछ किया ही नहीं है लेकिन फिर ये ख़्याल आता है कि मैं जितना कर सकता हूँ उसका तो एक चौथाई भी अब तक नहीं किया और इस ख़्याल की दी हुई बेचैनी जाती नहीं।
जब वो कम-उम्र ही था उसने यह जान लिया था कि अगर जीना है बड़ी चालाकी से जीना होगा आँख की आख़िरी हद तक है बिसाते-हस्ती3 और वह मामूली-सा इक मुहरा है एक इक ख़ाना बहुत सोच के चलना होगा
ऊँची इमारतों से मकाँ मेरा घिर गया कुछ लोग मेरे हिस्से का सूरज भी खा गए
कभी जो ख़्वाब था वो पा लिया है मगर जो खो गयी वो चीज़ क्या थी
मुहब्बत मर गयी मुझको भी ग़म है मिरे अच्छे दिनों की आशना3 थी
जिसे छू लूँ मैं वो हो जाए सोना तुझे देखा तो जाना बद्दुआ थी
मैं अब जिस घर में रहता हूँ बहुत ही ख़ूबसूरत है मगर अकसर यहाँ ख़ामोश बैठा याद करता हूँ वो कमरा बात करता था।
ऊँची इमारतों से मकां मेरा घिर गया कुछ लोग मेरे हिस्से का सूरज भी खा गए
कौन-सा शे’र सुनाऊँ मैं तुम्हें, सोचता हूँ नया मुब्हम1 है बहुत और पुराना मुश्किल
सिर्फ़ देख सकता हूँ अब पढ़ा नहीं जाता लोग आते जाते हैं पास से गुज़रते हैं फिर भी कितने धुँधले हैं
जो भी देखता हूँ मैं ख़्वाब जैसा लगता है है भी और नहीं भी है दोपहर की गर्मी में बेइरादा क़दमों से
ख़ुशशक्ल1 भी है वो, ये अलग बात है, मगर हमको ज़हीन 2 लोग हमेशा अज़ीज़3 थे
ख़ुदकुशी क्या दुःखों का हल बनती मौत के अपने सौ झमेले थे
हमको उठना तो मुँह अँधेरे था लेकिन इक ख़्वाब हमको घेरे था
बंजारा मैं बंजारा वक़्त के कितने शहरों से गुज़रा हूँ लेकिन वक़्त के इस इक शहर से जाते-जाते मुड़के देख रहा हूँ सोच रहा हूँ तुमसे मेरा ये नाता भी टूट रहा है तुमने मुझको छोड़ा था जिस शहर में आके वक़्त का अब वो शहर भी मुझसे छूट रहा है मुझको बिदा करने आए हैं इस नगरी के सारे बासी वो सारे दिन जिनके कंधे पर सोती है अब भी तुम्हारी ज़ुल्फ़ की ख़ुशबू सारे लम्हे जिनके माथे पर हैं रौशन अब भी तुम्हारे लम्स 1 का टीका नम आँखों से गुमसुम मुझको देख रहे हैं मुझ को इन के दुख का पता है इन को मेरे ग़म की ख़बर है लेकिन मुझ को हुक्मे सफ़र है जाना होगा
वक़्त के अगले शहर मुझे अब जाना होगा वक़्त के अगले शहर के सारे बाशिंदे 2 सब दिन सब रातें जो तुम से नावाक़िफ़ 3 होंगे वो कब मेरी बात सुनेंगे मुझसे कहेंगे जाओ अपनी राह लो राही हमको कितने काम पड़े हैं जो बीती सो बीत गयी अब वो बातें क्यूँ दोहराते हो कंधे पर ये झोली रक्खे क्यूँ फिरते हो क्या पाते हो
मैं बेचारा इक बंजारा आवारा फिरते-फिरते जब थक जाऊँगा तनहाई के टीले पर जाकर बैठूँगा फिर जैसे पहचान के मुझको इक बंजारा जान के मुझको वक़्त के अगले शहर के सारे नन्हे-मुन्ने भोले लम्हे नंगे पाँव दौड़े-दौड़े भागे-भागे आ जाएँगे मुझको घेर के बैठेंगे और म...
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उन शहरों की कोई कहानी हमें सुनाओं उनसे कहूँगा नन्हे लम्हो! एक थी रानी … सुन के कहानी सारे नन्हे लम्हे ग़मगीं1 होकर मुझसे ये पूछेंगे तुम क्यों उनके शहर न आयीं लेकिन उनको बहला लूँगा उनसे कहूँगा ये ...
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तुम ये कहतीं तुम वो कहतीं तुम इस बात पे हैराँ होतीं तुम उस बात पे कितनी हँसतीं तुम होतीं तो ऐसा होता तुम होतीं तो वैसा होता धीरे-धीरे मेरे सारे नन्हे लम्हे सो जाएँगे और मैं ...
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फिर चल दूँगा वक़्त के अगले शहर की जानिब 1 नन्हे लम्हों को समझाने भोले लम्हों को बहलाने यही कहानी फिर दोहराने तुम होतीं त...
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सब का ख़ुशी से फ़ासला एक क़दम है हर घर में बस एक ही कमरा कम है
सूखी टहनी तनहा चिड़िया फीका चाँद आँखों के सहरा 1 में एक नमी का चाँद उस माथे को चूमे कितने दिन बीते जिस माथे की ख़ातिर था इक टीका चाँद
कम हो कैसे इन ख़ुशियों से तेरा ग़म लहरों में कब बहता है नद्दी का चाँद
अपनी वजहे-बरबादी सुनिये तो मज़े की है ज़िंदगी से यूँ खेले जैसे दूसरे की है
इस शहर में जीने के अंदाज़ निराले हैं होठों पे लतीफ़े हैं आवाज़ में छाले हैं
जो मुझको ज़िंदा जला रहे हैं वो बेख़बर हैं कि मेरी ज़ंजीर धीरे-धीरे पिघल रही है
तू तो मत कह हमें बुरा दुनियाँ तूने ढाला है और ढले हैं हम
क्यूँ हैं कब तक हैं किसकी ख़ातिर हैं बड़े संजीदा3 मसअले4 हैं हम
गली में शोर था मातम था और होता क्या मैं घर में था मगर इस ग़ुल1 में कोई सोता क्या
अकसर वो कहते हैं वो बस मेरे हैं अकसर क्यूँ कहते हैं हैरत होती है
तब हम दोनों वक़्त चुरा कर लाते थे अब मिलते हैं जब भी फ़ुरसत होती है
आज की दुनिया में जीने का क़रीना1 समझो जो मिलें प्यार से उन लोगों को ज़ीना2 समझो
हमसे दिलचस्प कभी सच्चे नहीं होते हैं अच्छे लगते हैं मगर अच्छे नहीं होते हैं
कोई याद आये हमें कोई हमें याद करे और सब होता है ये क़िस्से नहीं होते हैं
कोई मंज़िल हो बहुत दूर ही होती है मगर रास्ते वापसी के लंबे नहीं होते हैं
आज तारीख़1 तो दोहराती है ख़ुद को लकिन इसमें बेहतर जो थे वो हि...
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कम से कम उसको देख लेते थे अब के सैलाब में वो पुल भी गया
ऐ सफ़र इतना रायगाँ1 तो न जा न हो मंज़िल कहीं तो पहुँचा दे
मैं अकसर सोचता हूँ ज़हन2 की तारीक3 गलियों में दहकता और पिघलता धीरे-धीरे आगे बढ़ता ग़म का ये लावा अगर चाहूँ तो रुक सकता है मेरे दिल की कच्ची खाल पर रक्खा ये अंगारा अगर चाहूँ
तो बुझ सकता है लेकिन फिर ख़याल आता है मेरे सारे रिश्तों में पड़ी सारी दरारों से गुज़र के आनेवाली बर्फ़ से ठंडी हवा और मेरी हर पहचान पर सर्दी का ये मौसम कहीं ऐसा न हो इस जिस्म को, इस रूह को ही मुंजमिद1कर दे
मैं अकसर सोचता हूँ ज़हन की तारीक गलियों में ...
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धीरे-धीरे आगे बढ़ता ग़म का ये लावा अज़ीयत2 है मगर फिर भी ग़नीमत3 है इसी से रूह में गर्मी बदन में ये हरारत4 है ये ग़म मेरी ज...
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दर्द बेरहम है जल्लाद है दर्द दर्द कुछ कहता नहीं सुनता नहीं दर्द बस होता है दर्द का मारा हुआ रौंदा हुआ जिस्म तो अब हार गया रूह ज़िद्दी है
लड़े जाती है हाँपती काँपती घबराई हुई दर्द के ज़ोर से थर्राई हुई जिस्म से लिपटी है कहती है नहीं छोडूँगी मौत चौखट पे खड़ी है कब से सब्र से देख रही है उसको आज की रात न जाने क्या हो
ये तसल्ली है कि हैं नाशाद1 सब मैं अकेला ही नहीं बरबाद सब

