Tarkash (Hindi)
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सबकी ख़ातिर हैं यहाँ सब अजनबी और कहने को हैं घर आबाद सब
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शहर के हाकिम का ये फ़रमान है क़ैद में कहलायेंगे आज़ाद सब
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चार लफ़्ज़ों में कहो जो भी कहो उसको कब फ़ुरसत सुने फ़रियाद सब
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तल्ख़ियाँ1 कैसे न हों अशआर2 में हम पे जो गुज़री हमें है याद सब
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मैं पा सका न कभी इस ख़लिश1 से छुटकारा वो मुझसे जीत भी सकता था जाने क्यों हारा
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जो पर समेटे तो इक शाख़ भी नहीं पाई खुले थे पर तो मिरा आसमान था सारा
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लो देख लो ये इश्क़ है ये वस्ल1 है ये हिज्र 2 अब लौट चलें आओ बहुत काम पड़ा है
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मैं ख़ुद भी सोचता हूँ ये क्या मेरा हाल है जिसका जवाब चाहिए वो क्या सवाल है घर से चला तो दिल के सिवा पास कुछ न था क्या मुझसे खो गया है मुझे क्या मलाल1 है
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वह शक्ल पिघली तो हर शय में ढल गई जैसे अजीब बात हुई है उसे भुलाने में
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हर एक किस्से का इक इख़तिताम2 होता है हज़ार लिख दे कोई फ़तह 3 ज़र्रे ज़र्रे पर मगर शिकस्त का भी इक मुक़ाम होता है
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वो नहर एक क़िस्सा है दुनिया के वास्ते फ़रहाद ने तराशा था ख़ुद को चटान पर
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सच ये है बेकार हमें ग़म होता है जो चाहा था दुनिया में कम होता है
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ग़ैरों को कब फ़ुरसत है दुख देने की जब होता है कोई हमदम होता है
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ज़ख़्म तो हमने इन आँखों से देखे हैं लोगों से सुनते हैं मरहम होता है
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मैं भूल जाऊँ तुम्हें अब यही मुनासिब है मगर भुलाना भी चाहूँ तो किस तरह भूलूँ कि तुम तो फिर भी हक़ीक़त हो कोई ख़्वाब नहीं यहाँ तो दिल का ये आलम है क्या कहूँ कमबख़्त! भुला न पाया ये वो सिलसिला जो था ही नहीं
78%
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वो इक ख़याल जो आवाज़ तक गया ही नहीं वो एक बात जो मैं कह नहीं सका तुमसे वो एक रब्त2 जो हममें कभी रहा ही नहीं मुझे है याद वो सब जो कभी हुआ ही नहीं।
79%
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तुम्हें भी याद नहीं और मैं भी भूल गया वो लम्हा कितना हसीं था मगर फ़ुज़ूल1 गया
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फिरते हैं कब से दर-बदर अब इस नगर अब उस नगर इक दूसरे के हमसफ़र मैं और मिरी अवारगी नाआश्ना1 हर रहगुज़र नामेहरबां हर इक नज़र जाएँ तो अब जाएँ किधर मैं और मिरी अवारगी
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तुम मेरी आँखों में आँखें डालके देखो फिर मैं तुमसे सारी झूठी क़समें खाऊँ फिर तुम वो सारी झूठी बातें दोहराओ जो सबको अच्छी लगती हैं जैसे वफ़ा करने की बातें जीने की मरने की बातें हम दोनों यूँ वक़्त गुज़ारें
83%
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मैं तुमको कुछ ख़्वाब दिखाऊँ तुम मुझको कुछ ख़्वाब दिखाओ जिनकी कोई ताबीर1 नहीं हो जितने दिन ये मेल रहेगा देखो अच्छा खेल रहेगा
88%
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दर्द के फूल भी खिलते हैं बिखर जाते हैं ज़ख़्म कैसे भी हों कुछ रोज़ में भर जाते हैं
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रास्ता रोके खड़ी है यही उलझन कब से कोई पूछे तो कहें क्या कि किधर जाते हैं
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आगही1 से मिली है तनहाई आ मिरी जान मुझको धोखा दे
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मुझको यक़ीं है सच कहती थीं जो भी अम्मी कहती थीं जब मेरे बचपन के दिन थे चाँद में परियाँ रहती थीं एक ये दिन जब अपनों ने भी हमसे नाता तोड़ लिया एक वो दिन जब पेड़ की शाख़ें बोझ हमारा सहती थीं
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एक ये दिन ज़ब सारी सड़कें रूठी-रूठी लगती हैं एक वो दिन जब ‘आओ खेलें’ सारी गलियाँ कहती थीं एक ये दिन जब जागी रातें दीवारों को तकती हैं एक वो दिन जब शामों की भी पलकें बोझिल रहती थीं एक ये दिन जब ज़हन में सारी अय्यारी1 की बातें हैं एक वो दिन जब दिल में भोली-भाली बातें रहती थीं
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एक ये दिन जब लाखों ग़म और काल पड़ा है आँसू का एक वो दिन जब एक ज़रा सी बात पे नदियाँ बहती थीं एक ये घर जिस घर में मेरा साज़ो-सामाँ1 रहता है एक व...
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रात सर पर है और सफ़र बाक़ी हमको चलना ज़रा सवेरे था।
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घुल रहा है सारा मंज़र शाम धुँधली हो गई चाँदनी की चादर ओढ़े हर पहाड़ी सो गई
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धुल गई है रूह लेकिन दिल को ये एहसास है ये सूकूँ बस चन्द लमहों को ही मेरे पास है फ़ासलों की गर्द में ये सादगी खो जाएगी शहर जाकर ज़िंदगी फिर शहर की हो जाएगी
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Sanchit Kalra
First completed on 12/10/023 @ 1:06 a.m. "Mohabbat marr gayi mujhko bhi ghum hai, mere acche dino ki aashna thi!"
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