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तेजस्वी सम्मान खोजते नहीं गोत्र बतलाके, पाते हैं जग से प्रशस्ति अपना करतब दिखलाके।
अपना अवगुण नहीं देखता, अजब जगत् का हाल, निज आँखों से नहीं सुझता, सच है, अपना भाल।”
धँस जाये वह देश अतल में, गुण की जहाँ नहीं पहचान, जाति-गोत्र के बल से ही आदर पाते हैं जहाँ सुजान।
कैसी अनोखी बात है? मोती छिपे आते किसी के आँसुओं के तार में, हँसता कहीं अभिशाप ही आनन्द के उच्चार में।
“मही का सूर्य होना चाहता हूँ, विभा का तूर्य होना चाहता हूँ। समय को चाहता हूँ दास करना, अभय हो मृत्यु का उपहास करना। “भुजा की थाह पाना चाहता हूँ, हिमालय को उठाना चाहता हूँ। समर के सिन्धु को मथ कर शरों से, धरा हूँ चाहता श्री को करों से। “ग्रहों को खींच लाना चाहता हूँ, हथेली पर नचाना चाहता हूँ; मचलना चाहता हूँ धरा पर मैं, हँसा हूँ चाहता अङ्गार पर मैं। “समूचा सिन्धु पीना चाहता हूँ, धधक कर आज जीना चाहता हूँ; समय को बन्द करके एक क्षण में, चमकना चाहता हूँ हो सघन मैं।