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ऊँच-नीच का भेद न माने, वही श्रेष्ठ ज्ञानी है, दया-धर्म जिसमें हो, सबसे वही पूज्य प्राणी है। क्षत्रिय वही, भरी हो जिसमें निर्भयता की आग, सबसे श्रेष्ठ वही ब्राह्मण है, हो जिसमें तप-त्याग।
सूत-वंश में पला, चखा भी नहीं जननि का क्षीर, निकला कर्ण सभी युवकों में तब भी अद्भुत वीर।
बड़े वंश से क्या होता है, खोटे हों यदि काम? नर का गुण उज्ज्वल चरित्र है, नहीं वंश-धन-धाम।
धँस जाये वह देश अतल में, गुण की जहाँ नहीं पहचान, जाति-गोत्र के बल से ही आदर पाते हैं जहाँ सुजान।
“नहीं पूछता है कोई, तुम व्रती, वीर या दानी हो? सभी पूछते मात्र यही, तुम किस कुल के अभिमानी हो? मगर, मनुज क्या करे? जन्म लेना तो उसके हाथ नहीं, चुनना जाति और कुल अपने बस की तो है बात नहीं।
“सूत-पुत्र मैं शूद्र कर्ण हूँ, करुणा का अभिलाषी हूँ, जो भी हूँ, पर, देव, आपका अनुचर अन्तेवासी हूँ। छली नहीं मैं हाय, किन्तु, छल का ही तो यह काम हुआ, आया था विद्या-संचय को, किन्तु, व्यर्थ बदनाम हुआ।
“व्रत का, पर, निर्वाह कभी ऐसे भी करना होता है; इस कर से जो दिया, उसे उस कर से हरना होता है।
वर्षों तक वन में घूम-घूम, बाधा-विघ्नों को चूम-चूम, सह धूप-घाम, पानी-पत्थर, पाण्डव आये कुछ और निखर। सौभाग्य न सब दिन सोता है, देखें, आगे क्या होता है? मैत्री की राय बताने को, सबको सुमार्ग पर लाने को, दुर्योधन को समझाने को, भीषण विध्वंस बचाने को, भगवान् हस्तिनापुर आये, पाण्डव का सन्देशा लाये। “दो न्याय अगर, तो आधा दो, पर, इसमें भी यदि बाधा हो, तो दे दो केवल पाँच ग्राम, रक्खो अपनी धरती तमाम। हम वही खुशी से खायेंगे, परिजन पर असि न उठायेंगे।” दुर्योधन वह भी दे न सका, आशिष समाज की ले न सका, उलटे, हरि को बाँधने चला, जो था असाध्य, साधने चला। जब नाश मनुज पर छाता है, पहले विवेक मर जाता है।
हरि ने भीषण हुङ्कार किया, अपना स्वरूप-विस्तार किया, डगमग-डगमग दिग्गज डोले, भगवान् कुपित होकर बोले- “ज़ंजीर बढ़ा कर साध मुझे, हाँ-हाँ, दुर्योधन! बाँध मुझे।
“यह देख, गगन मुझमें लय है, यह देख, पवन मुझमें लय है, मुझमें विलीन झङ्कार सकल, मुझमें लय है संसार सकल। अमरत्व फूलता ...
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“अम्बर में कुन्तल-जाल देख, पद के नीचे पाताल देख, मुट्ठी में तीनों काल देख, मेरा स्वरूप विकराल देख। सब जन्म मुझी से पाते हैं, फिर लौट मुझी में आते हैं।
“बाँधने मुझे तो आया है, ज़ंजीर बड़ी क्या लाया है? यदि मुझे बाँधना चाहे मन,
पहले तो बाँध अनन्त गगन। सूने को साध न सकता है, वह मुझे बाँध कब सकता
माँ का स्नेह पाया न कभी, सामने सत्य आया न कभी, क़िस्मत के फेरे में पड़कर, पा प्रेम बसा दुश्मन के घर। निज बन्धु मानता है पर को, कहता है शत्रु सहोदर को।
“जब ध्यान जन्म का धरता हूँ, उन्मन यह सोचा करता हूँ, कैसी होगी वह माँ कराल, निज तन से जो शिशु को निकाल, धाराओं में धर आती है, अथवा जीवित दफनाती है?
“कुन्ती ने केवल जन्म दिया, राधा ने माँ का कर्म किया, पर, कहते जिसे असल जीवन, देने आया वह दुर्योधन। वह नहीं भिन्न माता से है, बढ़कर सोदर भ्राता से है।
ऋणी कर्ण का रोम-रोम, जानते सत्य यह सूर्य-सोम, तन, मन, धन दुर्योधन का है, यह जीवन दुर्योधन का है। सुरपुर से भी मुख मोड़ूँगा, केशव! मैं उसे न छोड़ूँगा।
“रह साथ सदा खेला, खाया, सौभाग्य-सुयश उससे पाया, अब जब विपत्ति आने को है, घनघोर प्रलय छाने को है, तज उसे भाग यदि जाऊँगा, कायर, कृतघ्न कहलाऊँगा।
“लेकिन, नौका तट छोड़ चली, कुछ पता नहीं, किस ओर चली। यह बीच नदी की धारा है, सूझता न कूल-किनारा है। ले लील भले यह धार मुझे, लौटना नहीं स्वीकार मुझे।
“कुल-गोत्र नहीं साधन मेरा, पुरुषार्थ एक बस धन मेरा, कुल ने तो मुझको फेंक दिया, मैंने हिम्मत से काम लिया। अब वंश चकित भरमाया है, खुद मुझे खोजने आया है,
“होकर समृद्धि-सुख के अधीन, मानव होता नित तप:क्षीण,
“पर, एक विनय है मधुसूदन! मेरी यह जन्म-कथा गोपन मत कभी युधिष्ठिर से कहिये, जैसे हो, इसे दवा रहिये। वे इसे जान यदि पायेंगे, सिंहासन को ठुकरायेंगे। “साम्राज्य न कभी स्वयं लेंगे, सारी सम्पत्ति मुझे देंगे, मैं भी न उसे रख पाऊँगा, दुर्योधन को दे जाऊँगा। पाण्डव वंचित रह जायेंगे, दुख से न छूट वे पायेंगे।
प्रण करना है सहज, कठिन है लेकिन, उसे निभाना, सबसे बड़ी जाँच है व्रत का अन्तिम मोल चुकाना। अन्तिम मूल्य न दिया अगर, तो और मूल्य देना क्या? करने लगे मोह प्राणों का-तो फिर प्रण लेना क्या?
यह न स्वत्व का त्याग, दान तो जीवन का झरना है, रखना उसको रोक मृत्यु के पहले ही मरना है। किस पर करते कृपा वृक्ष़ यदि अपना फल देते हैं? गिरने से उसको सँभाल क्यों रोक नहीं लेते
दान जगत् का प्रकृत धर्म है, मनुज व्यर्थ डरता है, एक रोज़ तो हमें स्वयं सब-कुछ देना पड़ता है। बचते वही, समय पर जो सर्वस्व दान करते हैं, ऋतु का ज्ञान नहीं जिनको, वे देकर भी मरते हैं।
“ऐसा है तो मनुज-लोक, निश्चय, आदर पायेगा, स्वर्ग किसी दिन भीख माँगने मिट्टी पर आयेगा। किन्तु, भाग्य है बली, कौन किससे कितना पाता है, यह लेखा नर के ललाट में ही देखा जाता है।
व्यर्थ है देख बड़ों को बड़ी वस्तु की आशा, किस्मत भी चाहिये, नहीं केवल ऊँची अभिलाषा।”
चकित, भीत चहचहा उठे कुंजों में विहग बिचारे, दिशा सत्र रह गयी देख यह दृश्य भीति के मारे। सह न सके आघात, सूर्य छिप गये सरक कर घन में, ‘साधु, साधु!‘ की गिरा मन्द्र गूँजी गम्भीर गगन में।
पाप हाथ से निकल मनुज के सिर पर जब छाता है, तब, सत्य ही, प्रदाह प्राण का सहा नहीं जाता है। अहंकारवश इन्द्र सरल नर को छलने आये थे, नहीं त्याग के महातेज-सम्मुख जलने आये थे।
“तेरे महातेज के आगे मलिन हुआ जाता हूँ, कर्ण! सत्य ही, आज स्वयं को बड़ा क्षुद्र पाता हूँ। आह! खली थी कभी नहीं मुझकों यों लघ़ुता मेरी, दानी! कहीं दिव्य है मुझसे आज छाँह भी तेरी।
धूम रहा मन-ही-मन लेकिन, मिलता नहीं किनारा, हुई परीक्षा पूर्ण, सत्य ही, नर जीता, सुर हारा।
“तू दानी, मैं कुटिल प्रवंचक, तू पवित्र, मैं पापी, तू देकर भी सुखी और मैं लेकर भी परितापी। तू पहुँचा है जहाँ कर्ण, देवत्व न जा सकता है, इस महान् पद को कोई मानव ही पा सकता है।
“उसको सेवा, तुमको सुकीर्त्ति प्यारी है, तु ठकुरानी हो, वह केवल नारी है। तुमने तो तन से मुझे काढ़ कर फेंका, उसने अनाथ को हृदय लगा कर सेंका।
“जन्मा लेकर अभिशाप, हुआ वरदानी, आया बनकर कंगाल, कहाया दानी। दे दिये मोल जो भी जीवन ने माँगे, सिर नहीं झुकाया कभी किसी के आगे।
“जीवन-सरिता की बड़ी अनोखी गति है, कुछ समझ नहीं पाती मानव की मति है। बहती प्रचण्डता से सबको अपनाकर, सहसा खो जाती महासिन्धु को पाकर।
पाण्डव यदि केवल पाँच ग्राम लेकर सुख से रह सकते थे, तो विश्व-शान्ति के लिए दु:ख कुछ और न क्या सह सकते थे? सुन कुटिल वचन दुर्योधन का केशव न क्यों यह कहा नहीं- “हम तो आये थे शान्ति-हेतु, पर, तुम चाहो जो, वही सही।
“लो, सुखी रहो, सारे पाण्डव फिर एक बार वन जायेंगे, इस बार, माँगने को अपना वे स्वत्व न वापस आयेंगे। धरती की शान्ति बचाने को आजीवन कष्ट सहेंगे वे, नूतन प्रकाश फैलाने को तप में मिल निरत रहेंगे वे।
धीमी कितनी गति है? विकास कितना अदृश्य हो चलता है? इस महावृक्ष में एक पत्र सदियों के बाद निकलता है। थे जहाँ सहस्रों वर्ष पूर्व, लगता है वहीं खड़े हैं हम। है वृथा वर्ग, उन गुफावासियों से कुछ बहुत बड़े हैं हम।
“क्या तत्त्व विशेष बचा? बेटा, आँसू ही शेष बचा।
इसे क्रोध जब आता है; कुछ भी न शेष रह पाता है।
इसलिए, ध्येय में नहीं, धर्म तो सदा निहित, साधन में है, वह नहीं किसी भी प्रधन-कर्म, हिंसा, विग्रह या रण में है।
पर, हाय, मनुज के भाग्य अभी तक भी खोटे के खोटे हैं, हम बड़े बहुत बाहर, भीतर लेकिन, छोटे के छोटे हैं।
“रे अश्वसेन! तेरे अनेक वंशज हैं छिपे नरों में भी, सीमित वन में ही नहीं, बहुत बसते पुर - ग्राम - घरों में भी। ये नर-भुजङ्ग मानवता का पथ कठिन बहुत कर देते हैं, प्रतिबल के वध के लिए नीच साहाय्य सर्प का लेते हैं।
“बड़े पापी हुए जो ताज माँगा, किया अन्याय; अपना राज माँगा। नहीं धर्मार्थ वे क्यों हारते हैं? अधी हैं, शत्रु को क्यों मारते हैं? “हमी धर्मार्थ क्या दहते रहेंगे? सभी कुछ मौन हो सहते रहेंगे? कि देंगे धर्म को बल अन्य जन भी? तजेंगे क्रुरता-छल अन्य जन भी? “न दी क्या यातना इन कौरवों ने? किया क्या-क्या न निर्घिन कौरवों ने? मगर, तेरे लिए सब धर्म ही था, दुरित निज मित्र का, सत्कर्म ही था।
“वृथा है पूछना किसने किया क्या, जगत् के धर्म को सम्बल दिया क्या! सुयोधन था खड़ा कल तक जहाँ पर, न हैं क्या आज पाण्डव ही वहाँ पर? “उन्होंने कौन-सा अपधर्म छोड़ा? किये से कौन कुत्सित कर्म छोड़ा? गिनाऊँ क्या? स्वयं सब जानते हैं, जगद्गुरू आपको हम मानते हैं, “शिखण्डी को बनाकर ढाल अर्जुन, हुआ गांगेय का जो काल अर्जुन, नहीं वह और कुछ, सत्कर्म ही था। हरे! कह दीजिये, वह धर्म ही था।
“ज़हर की कीच में ही आ गये जब, कलुष बन कर कलुष पर छा गये जब, दिखाना दोष फिर क्या अन्य जन में, अहं से फूलना क्या व्यर्थ मन में?
“प्रभा-मण्डल! भरो झङ्कार, बोलो! जगत् की ज्योतियो! निज द्वार खोलो! तपस्या रोचिभूषित ला रहा हूँ, चढ़ा मैं रश्मि-रथ पर आ रहा हूँ।“