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ऊँच-नीच का भेद न माने, वही श्रेष्ठ ज्ञानी है, दया-धर्म जिसमें हो, सबसे वही पूज्य प्राणी है।
तेजस्वी सम्मान खोजते नहीं गोत्र बतलाके, पाते हैं जग से प्रशस्ति अपना करतब दिखलाके।
-ज्यों मिलती विजय, अहं नरपति का बढ़ता जाता है, और ज़ोर से वह समाज के सिर पर चढ़ता जाता है।
जब नाश मनुज पर छाता है, पहले विवेक मर जाता है।
और, वीर जो किसी प्रतिज्ञा पर आकर अड़ता है, सचमुच, उसके लिए उसे सब-कुछ देना पड़ता है। नहीं सदा भीषिका दौड़ती द्वार पाप का पाकर, दुःख भोगता कभी पुण्य को भी मनुष्य अपनाकर।
अतः, व्यर्थ है देख बड़ों को बड़ी वस्तु की आशा, किस्मत भी चाहिये, नहीं केवल ऊँची अभिलाषा।”
पाप हाथ से निकल मनुज के सिर पर जब छाता है, तब, सत्य ही, प्रदाह प्राण का सहा नहीं जाता है।