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कर्ण चकित रह गया सुयोधन की इस परम कृपा से, फूट पड़ा मारे कृतज्ञता के भर उसे भुजा से। दुर्योधन ने हृदय लगाकर कहा-“बन्धु! हो शान्त, मेरे इस क्षुद्रोपहार से क्यों होता उद्भ्रान्त? “किया कौन-सा त्याग अनोखा, दिया राज यदि तुझको? अरे, धन्य हो जायँ प्राण, तु ग्रहण करे यदि मुझको।“ कर्ण और गल गया, “हाय, मुझपर भी इतना स्नेह! वीर बन्धु! हम हुए आज से एक प्राण, दो देह।
विफल क्रोध में कहा भीम ने और नहीं कुछ पा के- “हय की झाड़े पूँछ, आज तक रहा यही तो काज, सूतपुत्र किस तरह चला पायेगा कोई राज?”
दुर्योधन ने कहा-“भीम! झूठे बकबक करते हो, कहलाते धर्मज्ञ, द्वेष का विष मन में धरते हो। बड़े वंश से क्या होता है, खोटे हों यदि काम? नर का गुण उज्ज्वल चरित्र है, नहीं वंश-धन-धाम।
अपना अवगुण नहीं देखता, अजब जगत् का हाल, निज आँखों से नहीं सुझता, सच है, अपना भाल।”
एकलव्य से लिया अँगूठा, कढ़ी न मुख से आह, रखा चाहता हूँ निष्कण्टक बेटा! तेरी राह।
“मगर, आज जो कुछ देखा, उससे धीरज हिलता है, मुझे कर्ण में चरम वीरता का लक्षण मिलता है। बढ़ता गया अगर निष्कण्टक यह उद्धट भट बाल, अर्जुन! तेरे लिए कभी वह हो सकता है काल! “सोच रहा हूँ क्या उपाय, मैं इसके साथ करूँगा, इस प्रचण्डतम धूमकेतु का कैसे तेज हरूँगा? शिष्य बनाऊँगा न कर्ण को, यह निश्चित है बात; रखना ध्यान विकट प्रतिभट का, पर तू भी हे तात!”