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जब नाश मनुज पर छाता है, पहले विवेक मर जाता है।
याचना नहीं, अब रण होगा, जीवन-जय या कि मरण होगा। “टकरायेंगे नक्षत्र-निकर, बरसेगी भू पर वह्नि प्रखर, फण शेषनाग का डोलेगा, विकराल काल मुँह खोलेगा। दुर्योधन! रण ऐसा होगा, फिर कभी नहीं जैसा होगा। “भाई पर भाई टूटेंगे, विष-बाण बूँद-से छूटेंगे, वायस-श्रृगाल सुख लूटेंगे, सौभाग्य मनुज के फूटेंगे। आखिर तू भूशायी होगा, हिंसा का पर, दायी होगा।”
“क्या पाँच पुत्र हो जाने पर, सुत के धन-धाम गँवाने पर, या महानाश के छाने पर, अथवा मन के घबराने पर। नारियाँ सदय हो जाती हैं? बिछुड़े को गले लगाती हैं?
मेरा सुख, या पाण्डव की जय?
सस्ती क़ीमत पर बिकती रहती जबतक कुर्बानी, तबतक सभी बने रह सकते हैं त्यागी, बलिदानी। पर, महँगी में मोल तपस्या का देना दुष्कर है, हँस कर दे यह मूल्य, न मिलता वह मनुष्य घर-घर है।
नरता कहते हैं जिसे, सत्त्व क्या वह केवल लड़ने में है? पौरुष क्या केवल उठा खड्ग मारने और मरने में है? तब उस गुण को क्या कहें मनुज जिससे न मृत्यु से डरता है? लेकिन, तब भी मारता नहीं, वह स्वयं विश्व-हित मरता है। है वन्दनीय नर कौन? विजय-हित जो करता है प्राण हरण? या सबकी जान बचाने को देता है जो अपना जीवन?