“इस पुरूष-सिंह का समर देख मेरे तो हुए निहाल नयन, कुछ बुरा न मानो, कहता हूँ, मैं आज एक चिर-गूढ़ वचन। कर्ण के साथ तेरा बल भी मैं ख़ूब जानता आया हूँ, मन-ही-मन तुझ से बड़ा वीर, पर इसे मानता आया हूँ। ‘औ‘ देख चरम वीरता आज तो यही सोचता हूँ मन में, है भी कोई, जो जीत सके इस अतुल धनुर्धर को रण में? मैं चक्र सुदर्शन धरूँ और गाण्डीव अगर तू तानेगा, तब भी, शायद ही, आज कर्ण आतङ्क हमारा मानेगा।