Piyush Sharma

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“तृण-सा विवश डूबता, उगता, बहता, उतराता हूँ, शील-सिन्धु की गहराई का पता नहीं पाता हूँ। धूम रहा मन-ही-मन लेकिन, मिलता नहीं किनारा, हुई परीक्षा पूर्ण, सत्य ही, नर जीता, सुर हारा।
रश्मिरथी
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