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दान जगत् का प्रकृत धर्म है, मनुज व्यर्थ डरता है, एक रोज तो हमें स्वयं सब-कुछ देना पड़ता है।
ब्रह्मण्यः सत्यवादी च तपस्वी नियतव्रतः, रिपुष्वपि दयावांश्र्च तस्मात् कर्णो वृषः स्मृतः।
ऊँच-नीच का भेद न माने, वही श्रेष्ठ ज्ञानी है, दया-धर्म जिसमें हो, सबसे वही पूज्य प्राणी है। क्षत्रिय वही, भरी हो जिसमें निर्भयता की आग, सबसे श्रेष्ठ वही ब्राह्मण है, हो जिसमें तप-त्याग।
तेजस्वी सम्मान खोजते नहीं गोत्र बतलाके, पाते हैं जग से प्रशस्ति अपना करतब दिखलाके।
सूतपुत्र हूँ मैं, लेकिन, थे पिता पार्थ के कौन? साहस हो तो कहो, ग्लानि से रह जाओ मत मौन।
“नित्य कहा करते हैं गुरुवर, ‘खड्ग महाभयकारी है, इसे उठाने का जग में हर एक नहीं अधिकारी है। वही उठा सकता है इसको, जो कठोर हो, कोमल भी, जिसमें हो धीरता, वीरता और तपस्या का बल भी।
“हाय, कर्ण, तू क्यों जन्मा था? जन्मा तो क्यों वीर हुआ? कवच और कुण्डल-भूषित भी तेरा अधम शरीर हुआ। धँस जाये वह देश अतल में, गुण की जहाँ नहीं पहचान, जाति-गोत्र के बल से ही आदर पाते हैं जहाँ सुजान।
‘माना लिया था पुत्र, इसीसे प्राण-दान तो देता हूँ, पर, अपनी विद्या का अन्तिम, चरम तेज, हर लेता हूँ, सिखलाया ब्रह्मास्त्र तुझे जो, काम नहीं वह आयेगा, है यह मेरा शाप, समय पर उसे भूल तू जायेगा।”
“हित-वचन नहीं तूने माना, मैत्री का मूल्य न पहचाना, तो ले, मैं भी अब जाता हूँ, अन्तिम संकल्प सुनाता हूँ। याचना नहीं, अब रण होगा, जीवन-जय या कि मरण होगा।
“जब ध्यान जन्म का धरता हूँ, उन्मन यह सोचा करता हूँ, कैसी होगी वह माँ कराल, निज तन से जो शिशु को निकाल, धाराओं में धर आती है, अथवा जीवित दफनाती है?
“कुन्ती ने केवल जन्म दिया, राधा ने माँ का कर्म किया, पर, कहते जिसे असल जीवन, देने आया वह दुर्योधन। वह नहीं भिन्न माता से है, बढ़कर सोदर भ्राता से है।
“कुल-गोत्र नहीं साधन मेरा, पुरुषार्थ एक बस धन मेरा, कुल ने तो मुझको फेंक दिया, मैंने हिम्मत से काम लिया। अब वंश चकित भरमाया है, खुद मुझे खोजने आया है,
“मित्रता बड़ा अनमोल रतन, कब इसे तोल सकता है धन? धरती की तो है क्या बिसात? आ जाय अगर वैकुण्ठ हाथ, उसको भी न्योछावर कर कुरूपति के चरणों पर धर दें
“वैभव-विलास की चाह नहीं, अपनी कोई परवाह नहीं, बस, यही चाहता हूँ केवल, दान की देव-सरिता निर्मल करतल से झरती रहे सदा, निर्धन को भरती रहे सदा!
“प्रासादों के कनकाभ शिखर, होते कबूतरों के ही घर, महलों में गरुड़ न होता है, कंचन पर कभी न सोता है। बसता वह कहीं पहाड़ों में, शैलों की फटी दरारों में।
रथ से राधेय उतर आया, हरि के मन में विस्मय छाया, बोले कि “वीर! शत बार धन्य, तुझ-सा न मित्र कोई अनन्य। तू कुरूपति का ही नहीं प्राण, नरता का है भूषण महान्।
पर, जाने क्यों, नियम एक अद्भुत जग में चलता है, भोगी सुख भोगता, तपस्वी और अधिक जलता है।
प्रण करना है सहज, कठिन है लेकिन, उसे निभाना, सबसे बड़ी जाँच है व्रत का अन्तिम मोल चुकाना। अन्तिम मूल्य न दिया अगर, तो और मूल्य देना क्या? करने लगे मोह प्राणों का-तो फिर प्रण लेना क्या?
यह न स्वत्व का त्याग, दान तो जीवन का झरना है, रखना उसको रोक मृत्यु के पहले ही मरना है। किस पर करते कृपा वृक्ष़ यदि अपना फल देते हैं? गिरने से उसको सँभाल क्यों रोक नहीं लेते हैं?
ऋतु के बाद फलों का रुकना डालों का सड़ना है, मोह दिखाना देय वस्तु पर आत्मघात करना है। देते तरु इसलिए कि रेशों में मत कीट समायें, रहें डालियाँ स्वस्थ और फिर नये-नये फल आयें।
आत्मदान के साथ जगज्जीवन का ऋजु नाता है, जो देता जितना बदले में उतना ही पाता है।
दान जगत् का प्रकृत धर्म है, मनुज व्यर्थ डरता है, एक रोज़ तो हमें स्वयं सब-कुछ देना पड़ता है।
“यह, शायद, इसलिए कि अर्जुन जिये, आप सुख लूटें, व्यर्थ न उसके शर अमोघ मुझपर टकरा कर टूटें। उघर करें बहु भाँति पार्थ की स्वयं कृष्ण रखवाली, और इधर मैं लड़ूँ लिये यह देह कवच से खाली।
“और कहें यदि पूर्व जन्म के पापों का यह फल है, तो फिर विधि ने दिया मुझे क्यों कवच और कुण्डल है? समझ नहीं पड़ती, विरंचि की बड़ी जटिल है माया, सब-कुछ पाकर भी मैंने यह भाग्य-दोष क्यों पाया?
“तृण-सा विवश डूबता, उगता, बहता, उतराता हूँ, शील-सिन्धु की गहराई का पता नहीं पाता हूँ। धूम रहा मन-ही-मन लेकिन, मिलता नहीं किनारा, हुई परीक्षा पूर्ण, सत्य ही, नर जीता, सुर हारा।
“तू दानी, मैं कुटिल प्रवंचक, तू पवित्र, मैं पापी, तू देकर भी सुखी और मैं लेकर भी परितापी। तू पहुँचा है जहाँ कर्ण, देवत्व न जा सकता है, इस महान् पद को कोई मानव ही पा सकता है।
“उमड़ी न स्नेह की उज्ज्वल धार हृदय से, तुम सूख गयीं मुझको पाते ही भय से। पर, राधा ने जिस दिन मुझको पाया था, कहते हैं, उसको दूध उतर आया था।
दें छोड़ भले ही कभी कृष्ण अर्जुन को, मैं नहीं छोड़नेवाला दुर्योधन को।
“अब भी मन पर है खिंची अग्नि की रेखा, त्यागते समय मैंने तुझको जब देखा, पेटिका-बीच मैं डाल रही थी तुझको, टुक-टुक तू कैसे ताक रहा था मुझको।
है वन्दनीय नर कौन? विजय-हित जो करता है प्राण हरण? या सबकी जान बचाने को देता है जो अपना जीवन?
पाण्डव यदि केवल पाँच ग्राम लेकर सुख से रह सकते थे, तो विश्व-शान्ति के लिए दु:ख कुछ और न क्या सह सकते थे? सुन कुटिल वचन दुर्योधन का केशव न क्यों यह कहा नहीं- “हम तो आये थे शान्ति-हेतु, पर, तुम चाहो जो, वही सही।
“तुम भड़काना चाहते अनल धरती का भाग जलाने को, नरता के नव्य प्रसूनों को चुन-चुन कर क्षार बनाने को। पर, शान्ति-सुन्दरी के सुहाग पर आग नहीं धरने दूँगा, जब तक जीवित हूँ, तुम्हें बान्धवों से न युद्ध करने दूँगा।
शत लक्ष मानवों के सम्मुख दस-पाँच जनों का सुख क्या है? यदि शान्ति विश्व की बचती हो, वन में बसने में दुख क्या है? सच है कि पाण्डुनन्दन वन में सम्राट् नहीं कहलायेंगे, पर, काल-ग्रन्थ में उससे भी वे कहीं श्रेष्ठ पद पायेंगे।
ये तो साधन के भेद, किन्तु, भावों में तत्त्व नया क्या है? क्या खुली प्रेम की आँख अधिक? भीतर कुछ बढ़ी दया क्या है? झर गयी पूँछ, रोमान्त झरे, पशुता का झरना बाक़ी है; बाहर-बाहर तन सँवर चुका, मन अभी सँवरना बाक़ी है।
“इस पुरूष-सिंह का समर देख मेरे तो हुए निहाल नयन, कुछ बुरा न मानो, कहता हूँ, मैं आज एक चिर-गूढ़ वचन। कर्ण के साथ तेरा बल भी मैं ख़ूब जानता आया हूँ, मन-ही-मन तुझ से बड़ा वीर, पर इसे मानता आया हूँ। ‘औ‘ देख चरम वीरता आज तो यही सोचता हूँ मन में, है भी कोई, जो जीत सके इस अतुल धनुर्धर को रण में? मैं चक्र सुदर्शन धरूँ और गाण्डीव अगर तू तानेगा, तब भी, शायद ही, आज कर्ण आतङ्क हमारा मानेगा।
“प्रलापी! ओ उजागर धर्म वाले! बड़ी निष्ठा, बड़े सत्कर्म वाले! मरा, अन्याय से अभिमन्यु जिस दिन, कहाँ पर सो रहा था धर्म उस दिन?
“वधूजन को नहीं रक्षण दिया क्यों? समर्थन पाप का उस दिन किया क्यों? न कोई योग्य निष्कृति पा रहा हूँ, लिये यह दाह मन में जा रहा हूँ।