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दान जगत् का प्रकृत धर्म है, मनुज व्यर्थ डरता है, एक रोज तो हमें स्वयं सब-कुछ देना पड़ता है। बचते वही समय पर जो सर्वस्व दान करते हैं, ऋतु का ज्ञान नहीं जिनको, वे देकर भी मरते हैं।
तेजस्वी सम्मान खोजते नहीं गोत्र बतलाके, पाते हैं जग से प्रशस्ति अपना करतब दिखलाके। हीन मूल की ओर देख जग गलत कहे या ठीक, वीर खींचकर ही रहते हैं इतिहासों में लीक।
“मूल जानना बड़ा कठिन है नदियों का, वीरों का, धनुष छोड़कर और गोत्र क्या होता रणधीरों का?
पाते हैं सम्मान तपोबल से भूतल पर शूर, ‘जाति-जाति’ का शोर मचाते केवल कायर, क्रूर।
बड़े वंश से क्या होता है, खोटे हों यदि काम? नर का गुण उज्ज्वल चरित्र है, नहीं वंश-धन-धाम।
अपना अवगुण नहीं देखता, अजब जगत् का हाल, निज आँखों से नहीं सुझता, सच है, अपना भाल।”
सच है, विपत्ति जब आती है, कायर को ही दहलाती है, शूरमा नहीं विचलित होते, क्षण एक नहीं धीरज खोते,
जब नाश मनुज पर छाता है, पहले विवेक मर जाता है।
सब जन्म मुझी से पाते हैं, फिर लौट मुझी में आते हैं।
सूने को साध न सकता है, वह मुझे बाँध कब सकता है?
“सच है, मेरी है आस उसे, मुझपर अटूट विश्वास उसे, हाँ, सच है मेरे ही बल पर, ठाना है उसने महासमर। पर, मैं कैसा पापी हूँगा, दुर्योधन को धोखा दूँगा?
“लेकिन, नौका तट छोड़ चली, कुछ पता नहीं, किस ओर चली। यह बीच नदी की धारा है, सूझता न कूल-किनारा है।
“धर्माधिराज का ज्येष्ठ बनूँ? भारत में सबसे श्रेष्ठ बनुँ? कुल की पोशाक पहन करके, सिर उठा चलूँ कुछ तन करके? इस झूठ-मूठ में रस क्या है? केशव! यह सुयश-सुयश क्या है?
“कुल-गोत्र नहीं साधन मेरा, पुरुषार्थ एक बस धन मेरा, कुल ने तो मुझको फेंक दिया, मैंने हिम्मत से काम लिया। अब वंश चकित भरमाया है, खुद मुझे खोजने आया है,
“धनराशि जोगना लक्ष्य नहीं, साम्राज्य भोगना लक्ष्य नहीं, भुजबल से कर संसार-विजय, अगणित समृद्धियों का संचय, दे दिया मित्र दुर्योधन को, तृष्णा छू भी न सकी मन को।
“वैभव-विलास की चाह नहीं, अपनी कोई परवाह नहीं, बस, यही चाहता हूँ केवल, दान की देव-सरिता निर्मल करतल से झरती रहे सदा, निर्धन को भरती रहे सदा!
रथ से राधेय उतर आया, हरि के मन में विस्मय छाया, बोले कि “वीर! शत बार धन्य, तुझ-सा न मित्र कोई अनन्य। तू कुरूपति का ही नहीं प्राण, नरता का है भूषण महान्।
पर, जाने क्यों, नियम एक अद्भुत जग में चलता है, भोगी सुख भोगता, तपस्वी और अधिक जलता है। हरियाली है जहाँ, जलद भी उसी खण्ड के वासी, मरु की भूमि मगर, रह जाती है प्यासी की प्यासी।
ऋतु के बाद फलों का रुकना डालों का सड़ना है, मोह दिखाना देय वस्तु पर आत्मघात करना है। देते तरु इसलिए कि रेशों में मत कीट समायें, रहें डालियाँ स्वस्थ और फिर नये-नये फल आयें।
दान जगत् का प्रकृत धर्म है, मनुज व्यर्थ डरता है, एक रोज़ तो हमें स्वयं सब-कुछ देना पड़ता है।
“अरे, कौन है भिक्षु यहाँ पर? और कौन दाता है? अपना ही अधिकार मनुज नाना विधि से पाता है। कर पसार कर जब भी तुम मुझसे कुछ ले लेते हो, तृप्त भाव से हेर मुझे क्या चीज़ नहीं देते हो?
कहा कर्ण ने, “वृथा भाग्य से आप डरे जाते हैं, जो है सम्मुख खड़ा, उसे पहचान नहीं पाते हैं। विधि ने था क्या लिखा भाग्य में, खूब जानता हूँ मैं, बाँहों को, पर, कहीं भाग्य से बली मानता हूँ मैं।
“मही डोलती और डोलता नभ में देव-निलय भी, कभी-कभी डोलता समर में किंचित् वीर-हृदय भी। डोले मूल अचल पर्वत का, या डोले ध्रुवतारा, सब डोलें, पर नहीं डोल सकता है वचन हमारा।”
“तनिक सोचिये, वीरों का यह योग्य समर क्या होगा? इस प्रकार से मुझे मार कर पार्थ अमर क्या होगा? एक बाज़ का पंख तोड़ कर करना अभय अपर को, सुर को शोभे भले, नीति यह नहीं शोभती नर को।
“और पार्थ यदि बिना लड़े ही जय के लिए विकल है, तो कहता हूँ, इस जय का भी एक उपाय सरल है। कहिये उसे, मोम की मेरी एक मूर्त्ति बनवाये, और काट कर उसे, जगत् में कर्णजयी कहलाये।
“मैं ही था अपवाद, आज वह भी विभेद हरता हूँ, कवच छोड़ अपना शरीर सबके समान करता हूँ। अच्छा किया कि आप मुझे समतल पर लाने आये, हर तनुत्र दैवीय; मनुज सामान्य बनाने आये।
“और दान, जिसके कारण ही हुआ ख्यात मैं जग में, आय है बन विघ्न सामने आज विजय के मग में। व्रह्मा के हित उचित मुझे क्या इस प्रकार छलना था? हवन डालते हुए यज्ञ में मुझको ही जलना था?
“फिर कहता हूँ, नहीं व्यर्थ राधेय यहाँ आया है, एक नया सन्देश विश्व के हित वह भी लाया है। स्यात्, उसे भी नया पाठ मनुजों को सिखलाना है, जीवन-जय के लिए कहीं कुछ करतब दिखलाना है। “वह करतब है यह कि शूर जो चाहे कर सकता है, नियति-भाल पर पुरुष पाँव निज बल से धर सकता है। वह करतब है यह कि शक्ति बसती न वंश या कुल में, बसती है वह सदा वीर पुरुषों के वक्ष पृथुल में।