समझ नहीं पड़ती, विरंचि की बड़ी जटिल है माया, सब-कुछ पाकर भी मैंने यह भाग्य-दोष क्यों पाया? “जिससे मिलता नहीं सिद्ध फल मुझे किसी भी व्रत का, उलटा हो जाता प्रभाव मुझपर आ धर्म सुगत का। गंगा में ले जन्म, वारि गंगा का पी न सका मैं, किये सदा सत्कर्म, छोड़ चिन्ता, पर, जी न सका मैं। “जानें क्या मेरी रचना में था उद्देश्य प्रकृति का, मुझे बना आगार शूरता का, करुणा का, धृति का, देवोपम गुण सभी दान कर, जाने, क्या करने को, दिया भेज भू पर केवल बाधाओं से लड़ने को?