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आजकल लोग बाजारों से ओट्स (जई) मँगाकर खाया करते हैं। आंशिक तुलना में यह गीत और मुक्तक का आनन्द है। मगर, कथा-काव्य का आनन्द खेतों में देशी पद्धति से जई उपजाने के आनन्द के समान है; यानी इस पद्धति से जई के दाने तो मिलते ही हैं, कुछ घास और भूसा भी हाथ आता है, कुछ लहलहाती हुई हरियाली देखने का भी सुख प्राप्त होता है और हल चलाने में जो मेहनत करनी पड़ती है, उससे कुछ तन्दुरुस्ती भी बनती है।
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ऊँच-नीच का भेद न माने, वही श्रेष्ठ ज्ञानी है, दया-धर्म जिसमें हो, सबसे वही पूज्य प्राणी है। क्षत्रिय वही, भरी हो जिसमें निर्भयता की आग, सबसे श्रेष्ठ वही ब्राह्मण है, हो जिसमें तप-त्याग।
“कौन जन्म लेता किस कुल में? आकस्मिक ही है यह बात, छोटे कुल पर, किन्तु, यहाँ होते तब भी कितने आघात! हाय, जाति छोटी है, तो फिर सभी हमारे गुण छोटे, जाति बड़ी, तो बड़े बनें वे, रहें लाख चाहे खोटे।”
सच है, विपत्ति जब आती है, कायर को ही दहलाती है, शूरमा नहीं विचलित होते, क्षण एक नहीं धीरज खोते, विघ्नों को गले लगाते हैं, काँटों में राह बनाते हैं।
“मैत्री की बड़ी सुखद छाया, शीतल हो जाती है काया, धिक्कार-योग्य होगा वह नर, जो पाकर भी ऐसा तरुवर, हो अलग खड़ा कटवाता है, खुद आप नहीं कट जाता है।
पर, जाने क्यों, नियम एक अद्भुत जग में चलता है, भोगी सुख भोगता, तपस्वी और अधिक जलता है। हरियाली है जहाँ, जलद भी उसी खण्ड के वासी, मरु की भूमि मगर, रह जाती है प्यासी की प्यासी।
पर, तब भी रेखा प्रकाश की जहाँ कहीं हँसती है, वहाँ किसी प्रज्वलित वीर नर की आभा बसती है। जिसने छोड़ी नहीं लीक विपदाओं से घबराकर, दी जग को रोशनी टेक पर अपनी जान गँवाकर।
नरता का आदर्श तपस्या के भीतर पलता है, देता वही प्रकाश, आग में जो अभीत जलता है। आजीवन झेलते दाह का दंश वीर-व्रतधारी, हो पाते तब कहीं अमरता के पद के अधिकारी।
“और दान, जिसके कारण ही हुआ ख्यात मैं जग में, आय है बन विघ्न सामने आज विजय के मग में। व्रह्मा के हित उचित मुझे क्या इस प्रकार छलना था? हवन डालते हुए यज्ञ में मुझको ही जलना था?
समझ नहीं पड़ती, विरंचि की बड़ी जटिल है माया, सब-कुछ पाकर भी मैंने यह भाग्य-दोष क्यों पाया? “जिससे मिलता नहीं सिद्ध फल मुझे किसी भी व्रत का, उलटा हो जाता प्रभाव मुझपर आ धर्म सुगत का। गंगा में ले जन्म, वारि गंगा का पी न सका मैं, किये सदा सत्कर्म, छोड़ चिन्ता, पर, जी न सका मैं। “जानें क्या मेरी रचना में था उद्देश्य प्रकृति का, मुझे बना आगार शूरता का, करुणा का, धृति का, देवोपम गुण सभी दान कर, जाने, क्या करने को, दिया भेज भू पर केवल बाधाओं से लड़ने को?
“वह करतब है यह कि विश्व ही चाहे रिपु हो जाये, दगा धर्म दे और पुण्य चाहे ज्वाला बरसाये; पर, मनुष्य तब भी न कभी सत्पथ से टल सकता है, बल से अन्धड़ को धकेल वह आगे चल सकता है। “वह करतब है यह कि युद्ध में मारो और मरो तुम, पर, कुपन्थ में कभी जीत के लिए न पाँव धरो तुम। वह करतब है यह कि सत्य-पथ पर चाहे कट जाओ, विजय-तिलक के लिए करों में कालिख पर, न लगाओ।
ये तो साधन के भेद, किन्तु, भावों में तत्त्व नया क्या है? क्या खुली प्रेम की आँख अधिक? भीतर कुछ बढ़ी दया क्या है? झर गयी पूँछ, रोमान्त झरे, पशुता का झरना बाक़ी है; बाहर-बाहर तन सँवर चुका, मन अभी सँवरना बाक़ी है।
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