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तन से समरशूर, मन से भावुक, स्वभाव से दानी, जाति-गोत्र का नहीं, शील का, पौरूष का अभिमानी।
बैठा रहा अचल आसन से कर्ण बहुत मन को मारे, आह निकाले बिना, शिला-सी सहनशीलता को धारे।
“सूत-पुत्र मैं शूद्र कर्ण हूँ, करुणा का अभिलाषी हूँ, जो भी हूँ, पर, देव, आपका अनुचर अन्तेवासी हूँ।
‘माना लिया था पुत्र, इसीसे प्राण-दान तो देता हूँ, पर, अपनी विद्या का अन्तिम, चरम तेज, हर लेता हूँ, सिखलाया ब्रह्मास्त्र तुझे जो, काम नहीं वह आयेगा, है यह मेरा शाप, समय पर उसे भूल तू जायेगा।”
सच है, विपत्ति जब आती है, कायर को ही दहलाती है, शूरमा नहीं विचलित होते, क्षण एक नहीं धीरज खोते, विघ्नों को गले लगाते हैं, काँटों में राह बनाते हैं।
वर्षों तक वन में घूम-घूम, बाधा-विघ्नों को चूम-चूम, सह धूप-घाम, पानी-पत्थर, पाण्डव आये कुछ और निखर। सौभाग्य न सब दिन सोता है, देखें, आगे क्या होता है?
“भूलोक, अतल पाताल देख, गत और अनागत काल देख, यह देख, जगत् का आदि-सृजन, यह देख, महाभारत का रण; मृतकों से पटी हुई भू है, पहचान, कहाँ इसमें तू है
“माँ का पय भी न पिया मैंने, उलटे, अभिशाप लिया मैंने। वह तो यशस्विनी बनी रही, सबकी भौं मुझपर तनी रही। कन्या वह रही अपरिणीता, जो कुछ बीता, मुझपर बीता।
“है ऋणी कर्ण का रोम-रोम, जानते सत्य यह सूर्य-सोम, तन, मन, धन दुर्योधन का है, यह जीवन दुर्योधन का है। सुरपुर से भी मुख मोड़ूँगा, केशव! मैं उसे न छोड़ूँगा।
“सम्राट् बनेंगे धर्मराज, या पायेगा कुरूराज ताज; लड़ना भर मेरा काम रहा, दुर्योधन का संग्राम रहा। मुझको न कहीं कुछ पाना है, केवल ऋण मात्र चुकाना है,
“साम्राज्य न कभी स्वयं लेंगे, सारी सम्पत्ति मुझे देंगे, मैं भी न उसे रख पाऊँगा, दुर्योधन को दे जाऊँगा। पाण्डव वंचित रह जायेंगे, दुख से न छूट वे पायेंगे।
पर, जाने क्यों, नियम एक अद्भुत जग में चलता है, भोगी सुख भोगता, तपस्वी और अधिक जलता है। हरियाली है जहाँ, जलद भी उसी खण्ड के वासी, मरु की भूमि मगर, रह जाती है प्यासी की प्यासी।
“पर का दुःख हरण करने में ही अपना सुख माना, भाग्यहीन मैंने जीवन में और स्वाद क्या जाना?
“अर्जुन की जननी! मुझे न कोई दुख है, ज्यों-त्यों मैंने भी ढ़ूँढ लिया निज सुख है। जब भी पीछे की ओर दृष्टि जाती है, चिन्तन में भी यह बात नहीं आती है।
“जन्मा लेकर अभिशाप, हुआ वरदानी, आया बनकर कंगाल, कहाया दानी। दे दिये मोल जो भी जीवन ने माँगे, सिर नहीं झुकाया कभी किसी के आगे।
जो मुझ पर इतना प्रेम उमड़ आया है। अब तक न स्नेह से कभी किसी ने हेरा, सौभाग्य किन्तु, जग पड़ा अचानक मेरा। “मैं खूब समझता हूँ कि नीति यह क्या है, असमय में जन्मी हुई प्रीति यह क्या है। जोड़ने नहीं बिछुड़े वियुक्त कुलजन से, फोड़ने मुझे आयी हो दुर्योधन से।
इस पार्थ भाग्यशाली का भी क्या कहना! ले गये माँग कर, जनक कवच-कुण्डल को, जननी कुण्ठित करने आयीं रिपु-बल को।
दें छोड़ भले ही कभी कृष्ण अर्जुन को, मैं नहीं छोड़नेवाला दुर्योधन को।
पाण्डव यदि केवल पाँच ग्राम लेकर सुख से रह सकते थे, तो विश्व-शान्ति के लिए दु:ख कुछ और न क्या सह सकते थे? सुन कुटिल वचन दुर्योधन का केशव न क्यों यह कहा नहीं- “हम तो आये थे शान्ति-हेतु, पर, तुम चाहो जो, वही सही।