रश्मिरथी
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Read between April 7 - April 16, 2018
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हृदय का निष्कपट, पावन क्रिया का, दलित-तारक, समुद्धारक त्रिया का, बड़ा बेजोड़ दानी था, सदय था, युधिष्ठिर! कर्ण का अदभुत हृदय था।
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ऊँच-नीच का भेद न माने, वही श्रेष्ठ ज्ञानी है, दया-धर्म जिसमें हो, सबसे वही पूज्य प्राणी है। क्षत्रिय वही, भरी हो जिसमें निर्भयता की आग, सबसे श्रेष्ठ वही ब्राह्मण है, हो जिसमें तप-त्याग।
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तेजस्वी सम्मान खोजते नहीं गोत्र बतलाके, पाते हैं जग से प्रशस्ति अपना करतब दिखलाके।
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समझे कौन रहस्य? प्रकृति का बड़ा अनोखा हाल, गुदड़ी में रखती चुन-चुन कर बड़े क़ीमती लाल।
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फूले सस्ता सुयश प्राप्त कर, उस नर को धिक्कार।”
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“ऊपर सिर पर कनक-छत्र, भीतर काले-के-काले, शरमाते हैं नहीं जगत् में जाति पूछनेवाले।
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बड़े वंश से क्या होता है, खोटे हों यदि काम? नर का गुण उज्ज्वल चरित्र है, नहीं वंश-धन-धाम।
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परशु और तप, ये दोनों वीरों के ही होते श्रृंगार, क्लीव न तो तप ही करता है, न तो उठा सकता तलवार।
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वीर वही है जो कि शत्रु पर जब भी खड्ग उठाता है, मानवता के महागुणों की सत्ता भूल न जाता है। सीमित जो रख सके खड्ग को, पास उसीको आने दो, विप्रजाति के सिवा किसी को मत तलवार उठाने दो।’
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धँस जाये वह देश अतल में, गुण की जहाँ नहीं पहचान, जाति-गोत्र के बल से ही आदर पाते हैं जहाँ सुजान।
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“सूत-पुत्र मैं शूद्र कर्ण हूँ, करुणा का अभिलाषी हूँ, जो भी हूँ, पर, देव, आपका अनुचर अन्तेवासी हूँ।
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सच है, विपत्ति जब आती है, कायर को ही दहलाती है, शूरमा नहीं विचलित होते, क्षण एक नहीं धीरज खोते, विघ्नों को गले लगाते हैं, काँटों में राह बनाते हैं।
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है कौन विघ्न ऐसा जग में, टिक सके वीर नर के मग में? खम ठोंक ठेलता है जब नर, पर्वत के जाते पाँव उखड़। मानव जब जोर लगाता है, पत्थर पानी बन जाता है।
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वसुधा का नेता कौन हुआ? भूखण्ड - विजेता कौन हुआ? अतुलित यश-क्रेता कौन हुआ? नव - धर्म - प्रणेता कौन हुआ? जिसने न कभी आराम किया, विघ्नों में रहकर नाम किया।
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वर्षों तक वन में घूम-घूम, बाधा-विघ्नों को चूम-चूम, सह धूप-घाम, पानी-पत्थर, पाण्डव आये कुछ और निखर।
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सौभाग्य न सब दिन सोता है, देखें, आगे क्या होता है?
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जब नाश मनुज पर छाता है, पहले विवेक मर जाता है।
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याचना नहीं, अब रण होगा, जीवन-जय या कि मरण होगा।
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केवल दो नर न अघाते थे, धृतराष्ट्र-विदुर सुख पाते थे। कर जोड़ खड़े प्रमुदित, निर्भय, दोनों पुकारते थे ‘जय-जय!’
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“होकर समृद्धि-सुख के अधीन, मानव होता नित तप:क्षीण, सत्ता, किरीट, मणिमय आसन, करते मनुष्य का तेज-हरण। नर विभव-हेतु ललचाता है, पर वही मनुज को खाता है।
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“चाँदनी, पुष्पछाया में पल, नर भले बने सुमधुर, कोमल, पर, अमृत क्लेश का पिये बिना, आतप, अन्धड़ में जिये बिना। वह पुरुष नहीं कहला सकता, विघ्नों को नहीं हिला सकता।
32%
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पर, जाने क्यों, नियम एक अद्‍भुत जग में चलता है, भोगी सुख भोगता, तपस्वी और अधिक जलता है।
32%
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हरियाली है जहाँ, जलद भी उसी खण्ड के वासी, मरु की भूमि मगर, रह जाती है प्यासी की प्यासी।
34%
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व्रत का अन्तिम मोल चुकाते हुए न जो रोते हैं, पूर्ण-काम जीवन से एकाकार वही होते हैं।
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दान जगत् का प्रकृत धर्म है, मनुज व्यर्थ डरता है, एक रोज़ तो हमें स्वयं सब-कुछ देना पड़ता है।
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क्षुद्र पात्र हो मग्न कूप में जितना जल लेता है, उससे अधिक वारि सागर भी उसे नहीं देता है। अतः, व्यर्थ है देख बड़ों को बड़ी वस्तु की आशा, किस्मत भी चाहिये, नहीं केवल ऊँची अभिलाषा।”
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जिन्हें नहीं अवलम्ब दूसरा, छोड़ बाहु के बल को, धर्म छोड़ भजते न कभी जो किसी लोभ से छल को।
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पाण्डव यदि केवल पाँच ग्राम लेकर सुख से रह सकते थे, तो विश्व-शान्ति के लिए दु:ख कुछ और न क्या सह सकते थे?
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प्रतिकार अनय का हो सकता। क्या उसे मौन हो सहने से?
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क्या वही धर्म है, लौ जिसकी दो-एक मनों में जलती है। या वह भी जो भावना सभी के भीतर छिपी मचलती है।
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युगपुरुष वही सारे समाज का विहित धर्मगुरु होता है, सबके मन का जो अन्धकार अपने प्रकाश से धोता है।
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है धर्म पहुँचना नहीं, धर्म तो जीवन भर चलने में है। फैला कर पथ पर स्निग्ध ज्योति दीपक समान जलने में है। यदि कहें विजय, तो विजय प्राप्त हो जाती परतापी को भी, सत्य ही, पुत्र, दारा, धन, जन; मिल जाते हैं पापी को भी।
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दाहक कई दिवस बीते; पर, विजय किसे मिल सकती थी, जब तक थे द्रोण-कर्ण जीते? था कौन सत्य-पथ पर डटकर, जो उनसे योग्य समर करता? धर्म से मार कर उन्हें जगत् में, अपना नाम अमर करता?
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क्या, सत्य ही, जय के लिए केवल नहीं बल चाहिए कुछ बुद्धि का भी घात; कुछ छल-छद्म-कौशल चाहिए
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मुसीबत को नहीं जो झेल सकता, निराशा से नहीं जो खेल सकता, पुरुष क्या, श्रृङ्खला को तोड़ करके, चले आगे नहीं जो जोर करके?
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“हमी धर्मार्थ क्या दहते रहेंगे? सभी कुछ मौन हो सहते रहेंगे? कि देंगे धर्म को बल अन्य जन भी? तजेंगे क्रुरता-छल अन्य जन भी?
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“वधूजन को नहीं रक्षण दिया क्यों? समर्थन पाप का उस दिन किया क्यों? न कोई योग्य निष्कृति पा रहा हूँ, लिये यह दाह मन में जा रहा हूँ।
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तपस्या रोचिभूषित ला रहा हूँ, चढ़ा मैं रश्मि-रथ पर आ रहा हूँ।“
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नहीं पुरुषार्थ केवल जीत में है। विभा का सार शील पुनीत में है।
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“हृदय का निष्कपट, पावन क्रिया का, दलित-तारक, समुद्धारक त्रिया का। बड़ा बेजोड़ दानी था, सदय था, युधिष्ठिर! कर्ण का अद्‍भुत हृदय था।