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परशु और तप, ये दोनों वीरों के ही होते श्रृंगार, क्लीव न तो तप ही करता है, न तो उठा सकता तलवार।
“‘पत्थर-सी हों मांस-पेशियाँ, लोहे-से भुजदण्ड अभय, नस-नस में हो लहर आग-की, तभी जवानी पाती जय।
सच है, विपत्ति जब आती है, कायर को ही दहलाती है, शूरमा नहीं विचलित होते, क्षण एक नहीं धीरज
“मुझ-से मनुष्य जो होते हैं, कंचन का भार न ढोते हैं। पाते हैं धन बिखराने को, लाते हैं रतन लुटाने को। जग से न कभी कुछ लेते हैं, दान ही हृदय का देते हैं।
नरता कहते हैं जिसे, सत्त्व क्या वह केवल लड़ने में है? पौरुष क्या केवल उठा खड्ग मारने और मरने में है? तब उस गुण को क्या कहें मनुज जिससे न मृत्यु से डरता है? लेकिन, तब भी मारता नहीं,