जो नर आत्मदान से अपना जीवन-घट भरता है, वही मृत्यु के मुख में भी पड़कर न कभी मरता है। जहाँ कहीं है ज्योति जगत् में, जहाँ कहीं उजियाला, वहाँ खड़ा है कोई अन्तिम मोल चुकानेवाला। व्रत का अन्तिम मोल राम ने दिया, त्याग सीता को, जीवन की संगिनी, प्राण की मणि को, सुपुनीता को, दिया अस्थि देकर दधीचि ने, शिवि ने अंग कतर कर, हरिश्चन्द्र ने कफ़न माँगते हुए सत्य पर अड़ कर। ईसा ने संसार-हेतु शूली पर प्राण गँवा कर, अन्तिम मूल्य दिया गांधी ने तीन गोलियाँ खाकर। सुन अन्तिम ललकार मोल माँगते हुए जीवन की, सरमद ने हँसकर उतार दी त्वचा समूचे तन की।