Dongri Se Dubai Tak (Dongri to Dubai: Six Decades of the Mumbai Mafia) (Hindi)
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जब मैं डोंगरी कहता हूँ, तो मेरा आशय महज़ उस इलाक़े से नहीं है जो ज़कारिया मस्जिद के क़रीब माण्डवी से शुरू होता है, बल्कि यह वह इलाक़ा है जो क्रॉफ़ोर्ड माकेंट से शुरू होकर, बीच में नल बाज़ार, उमेरखाडी, चोर बाज़ार, कमाठीपुरा, और उनके आस-पास के तमाम कपड़ा और खुदरा बाज़ारों को समेटता हुआ जेजे अस्पताल पर जाकर समाप्त होता है।
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एक ज़माना था जब कॉन्स्टेबल को मुम्बई के पुलिस बल की रीढ़ की हड्डी समझा जाता था।
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1995 में ‘बम्बई’ शहर का नाम बदलकर ‘मुम्बई’ कर दिया गया।
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तीन साल पहले, मार्च, 1993 में दाऊद बम्बई बम धमाकों के एक मुख्य अपराधी के रूप में उभरकर सामने आ चुका था। यही वह समय भी था जब प्रधानमन्त्री पी. वी. नरसिंह राव मुल्क को लायसेंस राज की जकड़बन्दी से रिहा करने और हिन्दुस्तान की अर्थव्यवस्था को उदारीकरण के रास्ते पर ले जाने के लिए प्रयत्नशील थे।
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जब यह हिन्दुस्तानी पेरेस्ट्रोइका (सोवियत अर्थव्यवस्था की पुनर्संरचना जो 1980 के मध्य में शुरू हुई) घटित हुआ, तो इसने आर्थिक अवसरों की एक बाढ़ ला दी और इसके मुनाफ़ों को सबसे पहले सूँघने वाला माफ़िया था, जो पहले ही बॉलीवुड से उलझ चुका था।
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जल्द ही अबू सलेम, जो अपने स्तर पर सक्रिय था, ने टी-सीरीज़ संगीत सम्राट गुलशन कुमार की हत्या करवा दी। लेकिन छोटा शकील इस हत्या का कोई भी आरोप दाऊद पर नहीं लगने देना चाहता था, क्योंकि उसका बॉस कुमार की मौत के लिए ज़िम्मेदार नहीं था, इसकी ज़िम्मेदारी तो अबू सलेम की थी।
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‘जनाब, आपका इस्मे गिरामी?’
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चालीस सालों में भारत और पाकिस्तान के बीच के समीकरणों को बदला है; इनमें से एक है दाऊद इब्राहिम और दूसरा था पाकिस्तान का भूतपूर्व राष्ट्रपति जनरल ज़िया–उल–हक़। अगर ज़िया – उल – हक़ सलाफ़ी इस्लाम को कश्मीर ले गए और कश्मीर में उग्रवाद को और ज़्यादा बढ़ावा देकर भारत के सूफ़ी कश्मीरियों को बदलने में कामयाब रहे, तो दाऊद इब्राहिम ने दोनों देशों के रिश्तों में इस हद तक खटास भर दी जहाँ से वापसी नामुमकिन थी।
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दोनों देश इस बात को अच्छी तरह से जानते हैं कि भारत और पाकिस्तान के बीच अमन क़ायम करने की कुंजी दाऊद के हाथों में है।
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जिनमें से ज़्यादातर बॉलीवुड और ज़मीन–जायदाद से ताल्लुक़ रखते हैं। माना जाता है कि ज़्यादातर हवाला कारोबार दाऊद के हाथों में हैं, जो पैसे और भुगतान को सरकारी संस्थाओं की नज़र से बचाकर यहाँ से वहाँ भिजवाने का अक्सर इस्तेमाल किया जाने वाला ग़ैरसरकारी तरीक़ा है। इसका कुल लेन–देन वेस्टर्न यूनियन और मनीग्राम के संयुक्त लेन–देन से कहीं ज़्यादा है।
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जैसा कि नैपोलियन हिल ने कहा है, आवश्यकता आविष्कार की जननी हो सकती है लेकिन वह अपराध का पिता भी हो सकती है।
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दक्षिण बम्बई के भायखला पुलिस स्टेशन द्वारा सहेजे गए रिकॉर्ड के मुताबिक़, नन्हें ख़ाँ, जो इलाहाबाद से आया था, पहला हिस्ट्री–शीटर था जो एक लम्बे चाकू की नोक पर लोगों को धमकाकर उनका क़ीमती सामान लूटता था।
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‘मेरे अब्बा ने मुझे हमेशा यही सिखाया था कि मैं सबकी निगाहों से बच सकता हूँ लेकिन ख़ुदा की निगाहों से नहीं बच सकता। मुझे यक़ीन है कि मैं अब भी एक दिन बम्बई का बादशाह बन सकता हूँ।’
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यह व्यवसाय और अपराध की दुनिया का एक जानामाना तथ्य है कि सोना किसी भी शक्ल में मिलावटी हो सकता है, लेकिन बिस्किट की शक्ल में यह पीली धातु पूरी तरह असली मानी जाती है।
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कमज़ोरियाँ समझता था। उसे हमेशा यह कहते हुए सुना जाता था कि ‘लोगों के पेट भरके रखो लेकिन अण्डकोष ख़ाली रखो’ (लोगों को संतुष्ट रखो लेकिन उन्हें सिर मत उठाने दो)।
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यह कहना अतिशयोक्ति न होगी कि, एक छोटे स्तर पर, धारावी को एशिया की सबसे बड़ी झुग्गी बस्ती बनाने में वरदाराजन का काफ़ी योगदान रहा है।
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ख़ालिद पहलवान, राशिद पहलवान और लाल ख़ान भारतीय मानकों के मुताबिक़ विकराल डीलडौल वाले इंसान थे।
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तो वह उसके सामने सच्ची श्रद्धा से भरकर उठ खड़ा होता था। हालाँकि इस्लाम में ऊँच–नीच का कोई क़ायदा नहीं है, तब भी सैयद मुसलमानों को सबसे ऊँचे कुल का माना जाता है, क्योंकि उनके बारे में माना जाता है कि वे मोहम्मद पैगम्बर के वंशज हैं।
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एक शख़्स जो इस घटनाक्रम से बहुत विचलित था वह था इब्राहिम कस्कर का वरिष्ठ अधिकारी एसीपी दस्तगीर बुरहान मल्गी।
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दाऊद जो था वह होने से ख़ुद को नहीं रोक सकता था। उसे उस ताक़त से प्यार था जो लोगों को आतंकित करने से आती थी और वह जैसे भी हो, ढेर सारी दौलत हासिल करना चाहता था। हालाँकि
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बचाव का सबसे अच्छा तरीक़ा होता है आक्रमण और बदला लेने का सबसे अच्छा तरीक़ा है ऐसी जगह पर वार करना जहाँ सबसे ज़्यादा चोट पहुँचती हो।
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दुनिया को मुट्ठी में रखना सीखो, हाथ खोलो तो सिर्फ़ पैसा लेने के लिए।’
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लेकिन नैतिक गिरावट अपने साथ विषैले पूर्वग्रह भी लेकर आती है।
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भारत की सबसे बड़ी ख़ुफ़िया एजेन्सी, द रिसर्च एण्ड ऐनालिसिस विंग (RAW) की स्थापना 1962 में चीन युद्ध के अन्त में की गई थी। इसके पीछे इरादा देश के बाहर भारत के ख़ुफ़िया तन्त्र की स्थिति को बेहतर बनाना था।
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RAW सीधे प्रधानमन्त्री सचिवालय के अधीन था। इन्दिरा गाँधी पहली प्रधानमन्त्री थीं जिन्होंने देश के भीतर राजनैतिक जासूसी के लिए इसका इस्तेमाल किया था। इसका
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द मेन्टेनेन्स ऑफ़ इण्टर्नल सिक्योरिटी एक्ट (MISA) में 1974 में संशोधन कर सरकार को अधिकृत कर दिया गया था कि वह किसी भी व्यक्ति को उसके ख़िलाफ़ अदालत में आरोप–पत्र पेश किए बग़ैर नज़रबन्द या गिरफ़्तार कर सकती है।
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सरकार चूँकि तस्करों, अपराधियों, चोरबाज़ारी के कारोबार में लगे लोगों के ख़िलाफ़ जंगी पैमाने पर सक्रिय थी, उसने देश पर और कड़ी लगाम कसने का फ़ैसला किया और 26 जून, 1975 को आपातकाल की घोषणा कर दी। ज़रूरी चीज़ों की क़ीमतों में स्थिरता आपातकाल की एक मुख्य उपलब्धि थी। स्कूलों, दूकानों, रेलगाड़ियों और बसों पर अनुशासन के असर दिखाई देने लगे। और माफ़िया भी, असरदार ढंग से, आपातकाल के उन्नीस महीनों के दौरान भूमिगत हो गया।
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उनके बेटे और विश्वस्त सहयोगी संजय ने RAW को ‘रिलेटिव्स ऑफ़ वाइव्स एसोसिएशन’ (बीवियों के संघ के रिश्तेदार) कहकर पुकारना शुरू कर दिया;
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आपातकाल हालाँकि राजनैतिक वजहों से और संसद पर अपनी प्रभुता क़ायम रखने की महत्वाकांक्षा के चलते आरोपित किया गया था, लेकिन उसने भारत के मीडिया को अपाहिज़ बनाकर रख दिया और आम आदमी को उसके बुनियादी हक़ों से वंचित कर दिया था।
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कंज़र्वेशन ऑफ़ फ़ॉरेन एक्सचेंज एण्ड प्रिवेंशन ऑफ़ स्मगलिंग एक्ट (COFEPOSA)
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राम जेठमलानी जैसे अपराधिक मामलों के श्रेष्ठ वकील की सेवाएँ लेने के बावजूद मस्तान को आपातकाल का पूरा वक़्त जेल में ही बिताना पड़ा।
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आपातकाल आरोपित करने के पीछे इन्दिरा गाँधी की राजनैतिक मजबूरियाँ जो भी रही हों, लेकिन वह तस्करों के ख़िलाफ़ निर्मम बल प्रयोग का युग ज़रूर बन गया था। बड़ी तादाद में काला धन खोद निकाला गया था और ढेर सारे व्यापारियों को ‘आर्थिक अपराधों’ के लिए MISA के अन्तर्गत बन्द कर दिया गया था
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‘तस्करी – विरोधी अभियान ने तस्करी के व्यापार को न सिर्फ़ ख़तरनाक बना दिया था बल्कि ख़र्चीला भी बना दिया था।
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किसी भी सल्तनत के दो बादशाह कभी नहीं हो सकते और अपना वर्चस्व क़ायम रखने एक के लिए दूसरे को ख़त्म करना ज़रूरी होता
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‘सुपारी’ पद बादशाहों और लड़ाकों के एक पुराने क़िस्से से निकला है। लोक कथा के मुताबिक़ बम्बई के माहिम प्रान्त के राजा भीम को, जो महेमी क़बीले का सरदार भी था, जब यह फ़ैसला करना होता था कि कोई मुश्किल काम कैसे और किसे सौंपा जाए, तो वह एक दिलचस्प रस्म का प्रयोग किया करता था।
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स्पेशल ब्रांच या एसबी बम्बई पुलिस का ख़ुफ़िया विभाग है। यह विक्टोरिया युग में स्थापित किया गया था और ब्रितानी पुलिस तन्त्र ने एसबी का इस्तेमाल भारतीय पुलिस के मुखियाओं के मुक़ाबले बेहतर तरीक़े से किया था; ब्रितानी लोग इलाज के बजाय रोकथाम में ज़्यादा यक़ीन रखते थे। भारतीय
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अयूब उन बेहद प्रभावशाली, कुख्यात, चालाक, ख़तरनाक और हाथ न आने वाले पठानों में से था जिनसे बम्बई पुलिस को निपटना पड़ा था। उसके बारे में माना जाता था कि वह ज़रा–सी बात पर बिगड़ उठता था और हिंसा पर उतारू हो जाता था। दरअसल एक बार तो उसने इतनी–सी बात पर एक आदमी का धड़ चीर दिया था कि उसने उसे ‘पागल पठान’ कह दिया था।
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उन दिनों माफ़िया के ख़िलाफ़ लिखने का साहस करने वाले पत्रकारों की तादाद ज़्यादा नहीं थी। बुज़ुर्ग क्राइम रिपोर्टर एम. पी. अय्यर अपने घोर आदर्शवाद से प्रेरित होकर माफ़िया के बारे में लगातार लिख रहे थे और उनकी ज़िन्दगियों को मुश्किल में डाले हुए थे। प्रेस ट्रस्ट ऑफ़ इंडिया (पीटीआई) में उनके लेख अपराधी गुटों के तमाम वर्गों का भण्डाफोड़ करते रहते थे। अय्यर ने किसी को भी नहीं बख़्शा था, चाहे वे मस्तान, करीम लाला और यूसुफ़ पटेल हों, या उस दौर के हुकूमत चलाने वाले दूसरे डॉन हों। अन्ततः इन डॉनों के गुर्गों ने मिलकर इस साहसी रिपोर्टर की ज़ुबान बन्द करने का फ़ैसला कर लिया।
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अय्यर पहला पत्रकार था जिसे 1970 में माफ़िया द्वारा ‘ख़ामोश’ किया गया। (उसकी हत्या के इकतालीस साल बाद माफ़िया ने, इस दफ़ा, पुलिस के मुताबिक़, छोटा राजन के हुक़्म पर जाने–माने क्राइम रिपोर्टर ज्योतिर्मय डे की पवई में दिन–दहाड़े गोली मारकर हत्या की थी।)
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सर्वव्यापी जेनावाई दारूवाली, एकमात्र औरत जो उन दिनों माफ़िया और पुलिस के बीच की तनी हुई रस्सी पर चला करती थी। वह सोने के ज़ेवरों से लदी एक असाधारण औरत थी जिसके पास बम्बई का हर गिरोहबाज़ मशवरे के लिए जाता था। हाजी मस्तान उसे जेना बेन कहकर, और दाऊद उसे जेना मासी कहकर पुकारता था।
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बम्बई के अण्डरवल्र्ड को परिभाषित करने वाला और जोड़ने वाला अन्दरूनी तार वह एजेण्डा होता है जो उसके तमाम कृत्यों के पीछे छुपा होता है इन कृत्यों के फ़र्क़ को वही थोड़े से लोग समझ पाते हैं जिनमें तमाम परिस्थितियों के बीच यहाँ और अभी के परे सोच पाने की क़ाबिलियत होती है।
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एक डॉन के रूप में दाऊद की ज़िन्दगी में, 1980 के आस – पास, यह पहली बार था जब वह तस्करी की वजह से क़ानूनी तौर पर गिरफ़्तार किया जा रहा था। लेकिन वह अपने पैसे की ताक़त और बाहुबल की उस ऊँचाई पर था कि उसने सरकारी तन्त्र के भीतर लोगों को खाद–पानी देना शुरू कर दिया था। वह गवाहों को ख़रीदने और दस्तावेजों में हेरफेर की बदौलत 1983 में तमाम आरोपों से बरी कर दिया गया।
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इंसानी प्रवृत्ति कुछ ऐसी है कि जब उसकी तिजोरियाँ भर रही होती हैं तो वह ज़िन्दगी के दूसरे मसलों के प्रति गाफ़िल हो जाता है।
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1983 में इस प्रेम के टूटने के बाद दाऊद उदास और ग़मगीन रहने लगा। वह अक्सर 1966 की दिलीप कुमार की फ़िल्म दिल दिया दर्द लिया का गाना गुनगुनाता देखा जाता था, ‘गुज़रे हैं आज इश्क़ में, हम उस मुक़ाम से, नफ़रत सी हो गई है मोहब्बत के नाम से’।
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हाजी शब्द अज़मत और ईमानदारी की गवाही के रूप में पेश किया जाता है।
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एक ज़माना था जब आज़ादी के आन्दोलन की रहनुमाई करने वाले भारतीय राष्ट्रीय काँग्रेस के दिग्गजों ने काँग्रेस हाउस को अपनी गतिविधियों का केन्द्र बनाया था। लेकिन वे गौरवशाली दिन हुआ करते थे। सत्तर का दशक शुरू होते-होते यह एक वेश्यालय बन चुका था जहाँ नाचगाना करने वाली वेश्याएँ, जिन्हें स्थानीय ज़ुबान में मुजरेवालियाँ कहा जाता था, पाकीज़ा के अन्दाज़ में अपने ग्राहकों का मनोरंजन किया करती थीं।
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बम्बई की पहली पुलिस मुठभेड़ (एनकाउण्टर) का यह शिकार पुलिस को तब तक धिक्कारता रहा जब तक कि ख़ून की आख़िरी हिचकी ने उसकी जान नहीं ले ली।
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24 नवम्बर, 1979 को मन्या के क़रीबी दोस्त बाजीराव ‘बज्या’ पाटिल और शेख मुनीर अस्पताल में उससे मिलने आए।
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बाद में मस्ताकर ने मन्या के ख़िलाफ़ गवाही दी, और उसके इस साहस की वजह से मन्या की हिटलिस्ट में उसकी जगह सुरक्षित हो गई। लेकिन इसके पहले कि वह मस्ताकर तक पहुँच पाता, मन्या मारा गया। पाटिल और मस्ताकर पर किए इन हमलों का महत्व इस बात में है कि मन्या की गिरफ़्तारी के पहले तक ये दोनों उसके दोस्त हुआ करते थे। मन्या पाटिल के इतने क़रीब था कि उसने पाटिल के घर पर कई बार खाना खाया था। दरअसल, ‘ना’ एक ऐसी चीज़ थी जिसे मन्या किसी से भी सुनने को तैयार नहीं था, फिर वह कोई भी क्यों न हो; जो भी कोई ‘ना’ कहता था मन्या अपने आप उसका दुश्मन बन जाता था ।
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मन्या की हिटलिस्ट में दादर पुलिस स्टेशन का पुलिस इंस्पेक्टर अशोक दाभोलकर (नाम परिवर्तित) भी शामिल था, जिसने 1969 में उसे गिरफ़्तार किया था।
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