जोर-जबरदस्ती और घूसखोरी का सामना करने में जीवंत है भारतीय लोकतंत्र

वर्ष 2013 समाप्ति की ओर है। एक महत्वपूर्ण चुनावी लड़ाई अभी हाल ही में समाप्त हुई है, एक निर्णायक लड़ाई आने वाले वर्ष में लड़नी है। आगामी वर्ष की मध्यावधि समाप्त होने से पहले सोनिया गांधी-मनमोहन सिंह के शासन का भविष्य तय हो जाएगा। समाचारपत्रों की सुर्खियों ने विगत् विधानसभाई चुनावों को ‘कांग्रेस के सफाए‘ के रुप में वर्णित किया हैं। सण्डे टाइम्स (15 दिसम्बर, 2013) में एम.जे. अकबर के लेख का शीर्षक है। पोस्ट पोल लेसन्स फॉर दि विनरस् एण्ड वाइर्नस् (Post Poll Lessons for the winners and whiners)। लेख के अंतिम तीन वाक्य इस प्रकार हैं: ”जब प्रत्येक भारतीय गुस्से में है तब भारत गुस्से से उबल रहा है। सन् 2013 में हमें एक झलक देखने को मिली है। सन् 2014 में हमें क्रोध का पूर्ण स्वरुप देखने को मिलेगा।”


 


dr-manmohan-singhsonia-gandhiआने वाले चुनावी संघर्ष में कांग्रेस का भविष्य कोई ज्यादा अलग नहीं होगा। पिछले विधानसभाई चुनावों तक, कांग्रेस को चेतावनी देते हुए मैं हमेशा आपातकाल के बाद 1977 में हुए लोकसभाई चुनावों की याद दिलाते हुए कहता था कि एक जीवंत लोकतंत्र में प्रचण्ड क्रोध राजनीतिक व्यवस्था में सर्वाधिक अपेक्षित जवाबदेही लाने के लिए सर्वाधिक प्रभावी उपकरण बन सकता है।


 


भारत के राजनीतिक इतिहास में सन् 1977 के संसदीय चुनाव ने कांग्रेस को सत्ताच्युत कर दिया था। तीस वर्षों तक पार्टी अजेय सी बनी रही।


 


परन्तु 1975 की शुरुआत में इलाहाबाद उच्च न्यायालय ने श्रीमती इंदिरा गांधी के विरुध्द एक चुनाव याचिका स्वीकार करते हुए न केवल लोकसभा के लिए उनका चुनाव रद्द कर दिया अपितु 6 वर्ष के लिए संसद का चुनाव लड़ने के लिए भी अयोग्य करार दिया। स्वाभाविक रुप से विपक्ष ने उनका त्यागपत्र मांगा। श्रीमती गांधी का जवाब था: अनुच्छेद 352 लागू कर आपातकाल थोपना।


 


इसके पश्चात् अनेक ऐसे कदम उठाए गए जिनसे भारत का लोकतंत्र समाप्ति के कगार पर पहुंच गया। एक लाख से ज्यादा विरोधियों जिनमें जयप्रकाश नारायण, अटल बिहारी वाजपेयी और चन्द्रशेखर जैसे देश भक्तों सहित 300 से ज्यादा मीडियाकर्मियों को आपातकाल में जेलों में डाल दिया गया। मीडिया पर अनेक प्रतिबंध थोप दिए गए।


 


jai-prakash-narain1975-77 के नाजुक संकट में भी यदि भारतीय लोकतंत्र जीवित बचा रहा तो इसके दो कारण थे। पहला, लोकतंत्र की रक्षा के लिए लोकनायक जयप्रकाश नारायण द्वारा उन राजनीतिक दलों को साथ लेकर किया गया साहसी संघर्ष, जिन्होंने आपातकाल से पूर्व ही उनके द्वारा भ्रष्टाचार के विरुध्द छेड़े गए अभियान में उनके नेतृव्त को स्वीकार कर लिया था। दूसरा, 1977 के लोकसभाई चुनावों में मतदाताओं द्वारा विरोध में की गई रिकार्डतोड़ मतदान।


 


उस चुनाव में, उत्तर भारतीय राज्यों की 236 लोकसभाई सीटों में से कांग्रेस पार्टी केवल दो सीटें बचा सकी: एक राजस्थान और दूसरी मध्यप्रदेश में। उत्तर प्रदेश में, देश की प्रधानमंत्री स्वयं चुनावों में पराजित हो गई।


 


मैं मानता हूं कि हाल ही के विधानसभाई चुनाव कांग्रेस पार्टी के लिए आपातकाल के बाद से दूसरी विनाशकारी पराजय है, बावजूद इसके कि मतदाताओं को खरीदने के तमाम प्रयास किए गए। विशेष रुप से राजस्थान में, मतदाताओं को रिझाने के लिए चुनावों की पूर्व संध्या पर अनेक फैसले किए गए। भ्रष्टाचार, महंगाई, कालेधन इत्यादि सम्बन्धी अपने एक पूर्ववर्ती ब्लॉग में मैंने टिप्पणी की थी कि 2014 के लोकसभाई चुनावों में यदि कांग्रेस दो के आंकड़े तक सिमट जाए तो देश को आश्चर्य नहीं करना चाहिए।


 


टेलपीस (पश्च्यलेख)


 


अपने जीवन में मैंने अनेक यात्राएं की हैं। इस कड़ी में मेरी अंतिम यात्रा सन् 2011 में थी। इसका नाम था जनचेतना यात्रा। यह चालीस दिन तक चली।


 


यह यात्रा भ्रष्टाचार, महंगाई, विशेष रूप से खाद्यान्न महंगाई और कालेधन के विरूध्द थी। मांग थी कि भ्रष्टाचार रोका जाए, कीमतें कम हों, विेशेष रूप से खाद्यान्न वस्तुओं की और विदेशों के टैक्स हेवन्स में ले जाए गए धन को भारत में वापस लाया जाए।


 


मुझे स्वयं आश्चर्य हुआ कि मेरी इस यात्रा को जितना समर्थन मिला वह पूर्व में निकाली गई सभी यात्राओं से कहीं अधिक था।


 


देश में चले इस अभियान के फलस्वरूप भारत सरकार ने इस मुद्दे पर संसद में श्वेतपत्र प्रस्तुत किया, लेकिन उसके बाद कोई कदम नहीं उठाए गए। एक पैसा भी वापस नहीं लाया जा सका!


 


एक समाचार के मुताबिक अंतरराष्ट्रीय संस्था ‘ग्लोबल फायनेंशियल इंटीग्रटी‘ (GFI) के मुताबिक 2011 में चार लाख करोड़ रूपए का कालाधन अवैध रूप से भारत से बाहर ले जाया गया। यह गत् वर्ष की तुलना में 24 प्रतिशत अधिक था!


 


 


लालकृष्ण आडवाणी


नई दिल्ली


17 दिसम्बर, 2013


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Published on December 17, 2013 19:12
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