स्वतंत्र भारत हेतु चर्चिल की रणनीति

मुस्लिम लीग द्वारा भारत के विभाजन और पाकिस्तान के निर्माण के लिए चलाए जा रहे अभियान के चलते सन् 1945 में ग्रेट ब्रिटेन के प्रधानमंत्री विंस्टन चर्चिल ने कहा कि वह भारत का विभाजन कर पाकिस्तान, हिन्दुस्तान और प्रिंसस्तान बनाने के पक्ष में हैं।


सरदार पटेल पर बलराज कृष्ण की जिस पुस्तक का संदर्भ मैंने अपने पिछले ब्लॉग में दिया है, उसमें ‘ए चर्चिलियन प्लान’ शीर्षक से एक विशेष अध्याय है, जिसकी शुरूआत वायसराय वावेल के समय के वायसराय जर्नल के एक उध्दरण से होती है।


churchill-pmपुस्तक कहती है कि ”चर्चिल युध्द जीत गए थे लेकिन साम्राज्य गवां रहे थे!” वह आगे कहते हैं: एक उद्वेलित भारत पर शासन करने हेतु ब्रिटेन के पास न तो मानवशक्ति थी और न ही धन। चर्चिल को पूरी तरह पीछे हटने में ”ब्रिटेन के संचार तथा मध्य पूर्व और दक्षिण पूर्व एशिया के बीच अड्डों हेतु गंभीर परिणाम” दिखते थे।


इसलिए उसकी योजना इस उप-महाद्वीप में ब्रिटिश एकाधिकार में तीन स्वतंत्र हिस्सों के चलते भारत पर किसी न किसी रुप में ब्रिटिश प्रभुत्व कायम रखने की थी।


चर्चिल की साम्राज्य सम्बन्धी रणनीति का यह मूल था। युध्द के पश्चात चुनावों में चर्चिल की हार और कलिमेंट एटली के नेतृत्व में लेबर पार्टी की सरकार पदारूढ़ होने के बाद भी भारत के प्रति ब्रिटेन के दृष्टिकोण को यह सोच प्रभावित करती रही।


20 फरवरी, 1947 को प्रधानमंत्री एटली ने ब्रिटिश संसद में जो वक्तव्य दिया उसकी दो महत्वपूर्ण विशेषताएं थीं:


(1) ब्रिटिश सरकार जून 1948 तक ब्रिटिश भारत को पूर्ण सेल्फ-गवर्नेमेंट प्रदान करेगी।

(2) रियासती राज्यों का भविष्य अंतिम स्थानांतरण की तिथि के बाद तय किया जाएगा।


pm-atlleएटली द्वारा घोषित इस नीति वक्तव्य के पश्चात् 3 जून प्लान की घोषणा हुई, जिसे माऊण्टबेंटन प्लान के नाम से भी जाना जाता है। यह 3 जून 1947 को घोषित किया गया और जिसमें निम्नलिखित विशेषताएं समाहित थीं:


(1) ब्रिटिश सरकार ने विभाजन का सिध्दान्त स्वीकार कर लिया।

(2) परवर्ती सरकारों को स्वतंत्र-उपनिवेश का दर्जा दिया जाएगा।

(3) उन्हें ब्रिटिश राष्ट्रमण्डल से पृथक होने का अन्तर्निहित अधिकार होगा।


3 जून प्लान के आधार पर ही ब्रिटेन की संसद ने भारतीय स्वतंत्रता अधिनियम, 1947 पारित किया।


भारतीय स्वतंत्रता अधिनियम के विस्तृत प्रावधानों में कहीं भी 500 से अधिक रियासती राज्यों के बारे में कुछ उल्लेख नहीं था, जिसके बारे में चर्चिल ने तीसरा हिस्सा, प्रिंसस्तान का वर्णन किया था। भारत के विदेश सचिव के.पी.एस. मेनन ने अपनी आत्मकथा ‘मेनी वर्ल्डस रिविजिटेड’ में लिखा है:


”जब अंग्रेजों ने भारत छोड़ा तब विभाजित भारत की एकता भी खतरे में थी। कुछ 560 रियासती राज्य अपने हाल पर छोड़ दिए गए थे। यह उन पर निर्भर था कि वे भारत में मिल जाएं, या पाकिस्तान में या फिर स्वतंत्र ही बने रहें…..यह लगभग दिखता था कि मानों भारत बिखर जाएगा। परन्तु सरदार वल्लभभाई पटेल द्वारा राजे-रजवाड़ों से सख्ती से निपटने के चलते यह खतरा टल गया।”


patel1विभाजन के सिध्दान्त को स्वीकार करने वाले भारतीय स्वतंत्रता अधिनियम के पारित होने के फलस्वरूप होने वाले परिणामों की काट के रुप में सरदार पटेल ने प्रारम्भिक रूप से कांग्रेस पार्टी से एक प्रस्ताव पारित कराया जिसमें कहा गया कि ”पंजाब का विभाजन दो हिस्सों में किया जाए ताकि मुस्लिम बहुल वाला भाग गैर-मुस्लिम बहुल भाग से अलग हो सके।”


गांधीजी इस कदम से हतप्रभ रह गए और महसूस किया कि ‘अचानक उनके पैरों के नीचे से जमीन खिसक गई’। बलराज कृष्ण लिखते हैं: ”पटेल का कदम भारत के विभाजन के लिए नहीं था अपितु यह लीग द्वारा पाकिस्तान की मांग के परिणामों को ध्यान में रखकर पंजाबी मुस्लिमों (जो पूरे पंजाब को पाकिस्तान का हिस्सा बनाना चाहते थे) को पूर्व चेतावनी थी। बलराज कृष्ण कहते हैं: यहां तक कि नेहरू ने भी गांधी को साफ-साफ बता दिया कि ”यह प्रस्ताव जिन्ना द्वारा विभाजन की मांग का एकमात्र उत्तर है।” महात्मा गांधी & दि लास्ट फेज बाई प्यारेलाल


balraj-krishnaइस पुस्तक के लेखक बलराज कृष्ण जिनकी पुस्तक पर मैंने अपने पिछले दो ब्लॉग लिखे हैं, एक वरिष्ठ पत्रकार थे जिन्होंने 1944 में लाहौर में सिविल एण्ड मिलट्री गजेट से अपने केरियर की शुरूआत की। विभाजन के पश्चात् वह नई दिल्ली में विदेश मंत्रालय के प्रचार विभाग से सम्बन्ध्द थे। बाद में वह हिन्दुस्तान टाइम्स से जुडे। वह टाइम्स ऑफ इण्डिया] इकनामिक्स टाइम्स] दि हिन्दू और दि इलस्ट्रेटिड वीकली ऑफ इण्डिया जैसे अनेक प्रमुख दैनिकों और पत्रिकाओं में लिखते रहे।


पुस्तक के शुरूआती पृष्ठ पर ही उन्होंने दो वायसराय -वावेल और माऊण्टबेंटन तथा एक उद्योगपति जे.आर.डी. टाटा द्वारा सरदार पटेल के बारे में की गई टिप्पणियां दी हैं।


वायसराय लॉर्ड बावेल द्वारा अंडर सेक्रेटरी ऑफ स्टेट आर्थर हेंडरसन को लिखा गया

”वल्लभभाई पटेल, भारत के बिस्मार्क हैं, गुजरात से आए लौह पुरूष……”


वायसराय लार्ड माऊण्टबेंटन द्वारा सरदार पटेल को सम्बोधित

”वर्षों से आप भारत के ‘लौह पुरूष’ हैं….. मुझे नहीं लगता कि देश में कोई भी एक ऐसा व्यक्ति होगा जो आप द्वारा निर्णय लिए जाने के बाद आपके सामने खड़ा रह सके।”


जे.आर.डी. टाटा द्वारा गांधी-नेहरू-पटेल त्रिमूर्ति पर की गई टिप्पणी:

jrd-tata”सामान्यतया मैं अक्सर गांधीजी से मिलकर आने के बाद प्रफुल्लित और उत्प्रेरित लेकिन सदैव थोड़ा संशयी महसूस करता हूं, और जवाहरलाल से बातें करने के बाद भावात्मक जोश से ओतप्रोत मगर अक्सर भ्रमित और न समझने वाला; जबकि वल्लभभाई से मुलाकात प्रसन्नता से भरपूर होती है और वापसी में हमारे देश के भविष्य के बारे में पुन:विश्वास भरा होता है। मैं अक्सर सोचता हूं कि यदि नियति ने जवाहरलाल के बजाय दोनों में उन्हें युवा बनाया होता तो भारत ने एक दूसरा पथ चुना होता और आज की तुलना में अच्छी आर्थिक स्थिति में होता।”


हालांकि इस पुस्तक के लेखक द्वारा इस पुस्तक का शीर्षक रखते समय उनके मन में वायसराय वावेल द्वारा बोले गए शब्द प्रभावी रहे होंगे परन्तु यहां यह जानना भी उपयुक्त होगा कि पुस्तक में लेखक ने इस पक्ष पर भी जोर दिया है कि ”पटेल द्वारा महाद्वीप आकार और विभिन्न वर्गों के लोगों वाले देश में 500 से ज्यादा देसी रियासतों को एक करने तथा उन्हें ठोस रूप प्रदान करने जैसा ऐतिहासिक काम किया है, वह जर्मनी में बिस्मार्क की भूमिका से ज्यादा महत्वपूर्ण है”।


उन्होंने आगे कहा कि, भारत में उनका योगदान यदि तुलनात्मक रूप से देखा जाए तो वैसा ही है जैसा लार्ड वेल्लसले द्वारा ब्रिटेन के भारतीय साम्राज्य की नींव रखे जाना।


वेल्लसले की नीति आक्रामक साम्राज्यवादी थी जिसने कभी गर्व से भरे राजे-रजवाड़ों को मात्र कठपुतलियां और चाटुकार बना दिया था। पटेल ने यह नहीं किया। उनका एकीकरण एक रक्तहीन क्रांति थी जिसमें राजे-रजवाड़े उनके बराबर के सहयोगी थे।”


इसमें कोई आश्चर्य नहीं कि जब 1956 में सोवियत नेता खु्रश्चेव भारत यात्रा पर आए तो सरदार पटेल के कमाल से गद्गद् थे और उन्होंने कहा: ”आप भारतीय भी अद्भुत हो! धरती पर आपने राजाओं को समाप्त किए बगैर रियासतों के राज को समाप्त कैसे कर दिखाया?”


वास्तव में सरदार पटेल द्वारा राज्यों के एकीकरण के लक्ष्य को हासिल करने में सर्वाधिक उल्लेखनीय यह रहा कि इससे उन लोगों जिनके निहित स्वार्थ इसके एकीकरण में नहीं थे, भी पटेल को निस्संकोच बधाई देने से अपने को नहीं रोक पाए, स्वयं लार्ड माऊण्टबेंटन हैदराबाद में सेना भेजे जाने को लेकर चिंतित थे। उन्होंने निजाम को विलिनीकरण संधि जो सभी रियासतों से हो रही थी, के बजाय किसी तरह के ‘सहयोग’ जैसी संधि पर राजी करने की काफी कोशिश की।


lord-mountbettenअंतत: जब पटेल को सफलता मिली, तो माऊण्टबेंटन ने टिप्पणी की कि राज्यों के संदर्भ में शानदार नीति से ज्यादा कोई और चीज वर्तमान सरकार की प्रतिष्ठा में चार चांद नहीं लगाती।”


न केवल लार्ड माऊण्टबेंटन अपितु उस समय के भारतीय सेना के प्रमुख, जनरल बुशर जब निजाम के विरूध्द ऑपरेशन पोलो शुरू किया गया, भी इस कार्रवाई के खिलाफ थे। ऑपरेशन की सफलता के पश्चात् जब पटेल ने औपचारिक रूप से उन्हें बधाई दी तो उन्होंने बेवाकी से स्वीकार किया: ”हैदराबाद ऑपरेशन की सफलता हेतु मैं कोई श्रेय नहीं लेना चाहता, प्रारम्भ से अंत तक, सभी परिस्थितियों में, मैं यह कहने को तैयार नहीं था: ‘जाओ, जब तक सोची गई प्रत्येक संभावित घटना न घटे और उसकी रक्षा करो। मेरे विचार से वास्तव में सरदार एक बहुत महान व्यक्ति थे….. निस्संदेह, वह सही थे जब उन्होंने तय किया कि हैदराबाद सरकार, भारत सरकार की शर्तें स्वीकार करे या रज़ाकरों के खात्मे के उद्देश्य से राज्य में घुसना पड़ेगा।”


टेलपीस (पश्च्यलेख)


इस उल्लेखनीय पुस्तक में अंतिम अध्याय का शीर्षक है ‘दि मैन हू डेयर्ड चर्चिल: बट वन हिज़ एडमॉयरेशन।


इस अध्याय में चर्चिल को अदम्य वर्णित किया गया है। ”उसका प्रखर जिद्दी और साहसी रूप तत्काल आदेश पालना चाहता था।”


जून, 1948 में जब ”रॉयल टाइटल्स में से भारत के साम्राज्य टाइटल के लोप होने पर विलाप” हो रहा था तब उसने भारत और भारतीयों के प्रति विष उगलते हुए इन शब्दों में कहा: ”सत्ता धूर्तों, दुष्टों और बदमाशों के हाथों में जाएगी…. ये सूखी घास जैसे लोग हैं जिनका कुछ वर्षों के बाद अता-पता भी नहीं चलेगा।”


देहरादून में रोग शैय्या पर पड़े पटेल ने चर्चिल को करारा जबाव दिया। सरदार ने द्वितीय विश्व युध्द के घोषित विजेता को ”एक संकोचहीन साम्राज्यवादी जो साम्राज्यवाद के अंतिम दौर पर खड़ा है” निरूपित किया। पटेल ने और कहा वह (चर्चिल) ”नीचे से उठी हस्ती है जिसके लिए कारण, कल्पना या बुध्दिमता से ज्यादा जिद और मूर्खता अधिक महत्व रखती है।”


बलराज कृष्ण की इस पुस्तक का अंतिम पैराग्राफ निम्न है:


”चर्चिल ने पटेल के जवाबी हमले को अच्छी भावना से लिया-जैसाकि दो महापुरूषों में होता है- और अपने पूर्व विदेश सचिव एंथोनी इडेन जो भारत की यात्रा पर थे, के माध्यम से संदेश भिजवाया कि उन्होंने ‘इस जवाब से सम्पूर्णतया आनन्द हुआ है’ और उनके मन में उनके प्रति कुछ नहीं सिवाय प्रशंसा के कि जिस ढंग से नया राष्ट्र विशेषकर भारतीय राज्यों से जुड़े अपने आगे कार्य और जिम्मेदारियों को सही ढंग से जमा पाया। ”चर्चिल ने विशेष रूप से कहा कि सरदार को अपने आप को भारत की सीमाओं तक सीमित नहीं रखना चाहिए अपितु विश्व उन्हें देखने और उनसे अधिक सुनने का अधिकार रखता है।”


लालकृष्ण आडवाणी

नई दिल्ली

13 नवम्बर, 2013


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Published on November 14, 2013 10:12
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